"अंगारे" कहानी -6
बादल नहीं आते
अहमद अली
हिंदी अनुवाद- फ़रीद अहमद
और बादल नहीं आते,
निगोड़े बादल नहीं आते, गर्मी इस तड़ाखे की पड़ रही है कि तौबा-तौबा, तड़पती हुई मछली
की तरह भुने जाते हैं। सूरज की गर्मी और धूप की तेजी। भट्टी भी क्या ऐसी गर्म
होगी। पूरा नरक है। कभी देखी भी है ? नहीं देखी तो अब मजा चख लो। वह मुई चिलचिलाती
हुई धूप है कि अपने होश में तो देखी नहीं। चील अंडा छोड़ती है। हिरन तो काले हो गए
होंगे। भई कोई पंखा ही को तेज कर दो। सुकून तो हो जाता है।
खामोशी, खामोशी, सुस्ती और पस्ती, पस्ती और मस्ती। बचपन में सुनते थे कि हिमालय पर्वत के
पहलू में एक बड़ी गुफा है। ऊँचे आसमान से बातें करते हुए पहाड़। सख्त और घने। एक
पहलू में एक सूखी, बड़ी, चौड़ी और अँधेरी गुफा, उसके मुँह पर एक बड़ी चट्टान रखी रहती है। इस गुफा में बादल
बंद रहते हैं। सफेद, भूरी और काली गायें बंद रहती हैं। क्या... क्या भई मूर्ख वाले विचार होते हैं। अज्ञानता की भी कोई
सीमा है। कितना ही समझाओ समझ में नहीं आता। एक ही लाठी से बैल और बकरियों को
हाँकते हो। हम कोई कुत्ते हैं कि भौंके चले जाएँ ? भों ! भों ! भों ! कोई सुनता तक
नहीं। अक्ल पर पत्थर पड़ गए है। ऐ कोई तो बताओ कि अक्ल बड़ी या भैंस। भैंस बड़ी
है भैंस।भैंस अक्ल की दुम में नम्दा। ज्यादा कहो डंडा लेकर पिल पड़े। मौलवियों
के भी कहीं अक्ल होती है ? अक्ल, अक्ल, सूरत न शक्ल। भाड़ में से निकल। दाढ़ी ने दिल
पर कालिख छा रखी है। दिमाग को इस्तेमाल नहीं करते। समझ को छप्पर पर रख दिया। ताक़
में से किताब उतारी, हिल-हिल कर पढ़ रहे हैं, झुक-झुक कर पढ़ रहे हैं। वाह मियाँ मिट्ठू वाह ! खूब बोले !
पढ़ो मियाँ मिट्ठू, पढ़ो हक अल्लाह-पाक जात अल्लाह, पाक नबी रसूल अल्लाह, नबी जी भेजो। या अल्लाह भेज! मौलवी साहब को बच्चे
की तमन्ना है। सख्त आरजू है। न मालूम क्या गुनाह किया है जिसकी सज़ा मिल रही है।
घबराइए नहीं। दो तावीज़ देता हूँ। ‘हकीर-फकीर, नाचीज ओ गुनाहगार हूँ[1]” लेकिन अल्लाह का क़ुरआन है। अल्लाह ने चाहा तो मुराद पूरी
होगी। इशा[2] के बाद नहा कर, सात बार दुरुद शरीफ[3] पढ़ कर लोबान[4] की धूनी के साथ
संभोग के समय नाभि के नीचे बाँध दीजिएगा। दूसरा पानी में घोल कर एक सुराही या किसी
बरतन में रख ली जिएगा और सात दिनों तक आब-ए-ज़मज़म[5] मिला कर निहार मुँह पी लीजिएगा। अगर ख़ुदा ने चाहा तो मुराद
जरूर पूरी होगी !
‘ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाहि अलिउल ज़ीम’[6] तुमको शर्म नहीं आती ? समझते हो कि अल्लाह का क़ुरआन खरीदा जा सकता है ? ख़ुदा को भी मोल लोगे ? मैं दक्षिणा-वक्षिणा नहीं लेता। जाओ
किसी टट-पूंज्या के पास जाओ। भाग यहाँ से ! निकल ! साहब बड़ी ग़लती हुई, माफ़ी चाहता हूँ।
फ़िर ऐसी गुस्ताखी न होगी। अच्छा खैर ! जा, लेकिन बात याद रखना नौचंदी जुमेरात[7] को बड़े पीर साहब की नियाज[8] दिलवा देना। सवा रुपया और पाव भर मोतियाँ के फूल हरे-भरे
साहब के मजार[9] पर चढ़ा देना।
का-आ-री सो आ जीब आ-आ आपकी दस्ता आरे मु बा आ रक में खा तन गा आ आ। मौलवी साहब
खाई। हाँ बेटा खूब खाई। अजि मौलवी साहब खाई। हाँ-हाँ बेटा ख़ूब खाई। नहीं मौलवी
साहब खाई ! अबे कह तो दिया खाई, हाँ खूब खाई। आओ ब!! अंग्रेजों को ख़ुदा बरबाद करे। अंग्रेजी
पढ़ा-पढ़ा कर अधर्मी बना डाला। नपुंसक बना डाला। मर्दानगी की नाक काट कर ले गए, न नरक का डर, न स्वर्ग की
तमन्ना। पढ़ा-पढ़ाया सब मिट्टी में मिला दिया। हमारा मजाक उड़ाते हैं, पाक ख़ुदा पर हँसते
हैं। जब आग में जलेंगे तो.....
और एक साधू उस गुफा का मुँह बरसात में खोल देता है। बादल भड़-भड़ उड़ निकलते
हैं। सुन-सुन सखी पंखी का ब्याह होता था........ तातल ममूला नाचती थी….... बुलबुल तो खूब बोला पोदना
सताई…... तीतरी भंभेरी सब को कि नाल तेरी….... पर बिल्ली जो नाइन आई सारी सबा भगाई।
भाड़-भाड़ सब बारात उड़ गई। अब तो हवा उखड़ गई, हवा। अभी देखो क्या होता है। ख़ुदा
सीधा रास्ता दिखाए। सच है, कयामत की सब निशानी मौजूद हैं। आग उगलता हुआ साँप। आपसी फूट, झगड़े, लड़ाइयाँ, मजहब और ख़ुदा का
अपमान। जमीन का गिरोह बदल रहा है। जब यूनान का तख़्तापलट हुआ था तो यही सब लक्षण
मौजूद थे। या अल्लाह रहम कर ! यह जाहिल हैं। यह नहीं समझते कि क्या कह रहे हैं।
तू दुनियाँ का मालिक है। इनको माफ़ कर।अहमद अली
बादल क्यों नहीं आते ? और जिंदगी बवाल है। बवाल, बवाल। लंबे-लंबे काले-काले
बाल। एक बेकार की लादी लदी हुई। आखिर हम भी मर्दों की तरह क्यों नहीं कटवा सकते ?
छोटे-छोटे बालों से सर कैसा हल्का मालूम होता होगा। ख़ुदा माफ़ करे, अब्बा जान के तो
छोटे-छोटे बाल थे। एक बार ऐसी ही गर्मी पड़ी तो सर भी बनवा लिया था।
मैंने और साबरा ने खूब सर सहलाया। काश कि हमारे बाल भी कटने होते। गुद्दी जली जाती
है। झुलसी जाती है। उस पर भी बाल नहीं कटवा सकते। ख़ानदान वालों की क्या बड़ी नाक
है, हम जो बाल कटवा
लेंगे तो उनकी नाक कट जाएगी। अगर मैं कहीं लड़का होती तो छुरी से काट डालती, जड़ से उड़ा
डालती। जब नाक ही न रहती तो कटने का डर कहाँ ?
ख़ुदा गंजे को नाख़ून ही नहीं देता। ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ून न बढ़ आएँगे क्या ?
ज़ख़्म तो भर आया लेकिन नाख़ून ही नहीं। जो ज़ख़्म-ज़ख़्म....... रहम, और
अर-रहमा-निर्रहीम[10]….... क्या ख़ुदा भी रहमों को मिला कर बना है ? आखिर
हम ही में रहम क्यों पैदा किया ? औरत कमबख्त़ मारी भी क्या जान है, चिचड़ी से बेकार।
काम करे काज करें, सीना-पिरोना, खाना-पकाना, सुबह से रात तक जले पाँव की बिल्ली की तरह इधर-उधर फिरना। उस पर यह कि बच्चे
जनना। जी चाहे या न चाहे, जब मियाँ का जी चाहा हाथ पकड़ के खींच लिया। इधर आओ मेरी
जानी, मेरी प्यारी। तुम्हारे नख़रे में गर्म मसाला। देखो तो कमरे में कैसी ठंडक है, मेरे कलेजे की
ठंडक ! वरे आओ। हटो परे। तुम पर हर वक्त कमबख्त शैतान सवार रहता है न दिन देखो, न रात। हाय, मार डालो, कटारी मारो ना।
हाथ मरोड़ डाला-तोड़ डाला। कहाँ भागी जाती हो ? सीने से चिमट के लेट जाओ ! देखो
कटारी का मज़ा चख लो। वही दूधों पर हाथ चलने लगे। सख्त-सख्त उंगलियों से मसल
डाला-वसल डाला। कमबख्त ने घुंडी को किस जोर से दबाया कि बिलबिला भी न सकी। मुआ
जवाना मरे। कोठे वालियों के साथ भी कोई ऐसा बर्ताव न करता होगा। कमजोर जान लेट गई
कि सारा गर्मी का गुस्सा मुझ ही पर उतरा। मुर्दे की तरह क्यों पड़ी हो ! क्या
जान नहीं? जोर लगाओ। प्यारी, पी आरी, ज…अ…आ…नी। और हम हैं कि कुछ कर ही नहीं सकते। हम क्यों नहीं कुछ
कर सकते ? अगर अपना रुपया होता तो ये सब ज़िल्लत क्यों सहनी पड़ती। जिस वक्त जो जी
चाहता करते। कमाने की इजाज़त भी तो नहीं। पर्दे में पड़े-पड़े सड़ते हैं। लौंडियों से बेकार जिंदगी है। जानवरों से भी गए-गुजरे हुए पिंजरे में
पड़े हैं, क़ैद किए पड़े हैं। पर भी फड़फड़ाने की गुंजाइश नहीं। हमारी जिंदगी ही क्या है
? बुझा दिया तो बुझ गए, जला दिया तो जल रहे हैं। हर वक्त जला करते हैं। जलने के
अलावा और भी कुछ हमारी किस्मत में है? हुक्म पूरा करते जाएँ बस ! मर्द मुए सारे
में जूतियाँ चटखाते फिरते हैं। कहीं बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ाया, कहीं गप्पें कीं, कहीं शतरंज, कहीं ताश। रात को
कुछ नहीं तो चावड़ी चले गए। गाना सुनने का बहाना ! लेकिन फिर सुबह नहाना कैसा? और
कह-कह कर हमें जलाना। कहीं जलाने से भी तो
नहीं चुकते। लाख-लाख आँसू बहाते हैं। मुई आग ऐसी चौबीसो घड़ी की लगी रहती है कि
ज़रा बुझने का नाम नहीं लेती। मौत भी तो नहीं आती। हिंदुओं की जिंदगी कहीं हम से
अच्छी है। आजादी तो है। ईसाइयों का तो क्या कहना। जो जी में आता है करती हैं।
नाच नाचें, तस्वीरें देखें, बाल कटाएँ, लिखने वाला चैन लिखता है..........
नहीं पता किस घड़ी हमारा जन्म हुआ जो मुसलमान के घर में जन्म लिया। आग लगे ऐसे
मजहब को। मजहब, मजहब, मजहब, रूह की तसल्ली मर्दों की तसल्ली है। औरत बेचारी को क्या ? पाँच उंगली भर
दाढ़ी रख के बड़े मुसलमान बनते हैं। टट्टी की आड़ में शिकार[11] करते हैं। हमारे तो जैसे जान
तलक नहीं। आज़ादी के लिए तो क़हक़हा-दीवार[12] है। अब्बा जान ने किस मुसीबत से स्कूल में दाखिल किया
था। मुश्किल से आठवीं तक पहुँची थी कि ख़ुदाबख्शें दुनिया से चले गए। सब ने ही तो
फौरन स्कूल से नाम कटा दिया और इस मोटे-मुस्टन्डे, दाढ़ी वाले के साथ नत्थी कर दिया। मुवा शैतान
है। औरत की आजादी तो आजादी, औरत का जवाब तक देना गवारा नहीं करता।
क्या समुंदर सूख
गए, जो बादल नहीं आते ? सो गए। समुंदर भी सूख समंदर, सात समंदर पार से आए, हमारी भी लुटिया
डूब गई, गुड़ुप- गुड़ुप - गुड़ुप गोते लगा रहे हैं ! अपने ही खून में नहा रहे हैं। धूप तो
इतनी तेज है, भाप भी नहीं बनती। काहे की भाप बने, खून तो ख़ुश्क हो गया, जल कर राख हो गया। लेकिन क्या सचमुच बादल भाप
के बनते हैं ? हम तो सुना करते थे कि बादल स्पंज की तरह होते हैं। हवा में तैरा
करते हैं। जब गर्मी बहुत ज़्यादा पड़ी, प्यास के मारे समुंदर के किनारे उतर पड़ते हैं। खूब पानी
पीते हैं और फिर हवा में उड़ जाते हैं। शायद हमारी सरकार के जहाजी बेड़े से डर के
उड़ जाते हैं और तोपों के खौफ़ से मूतने लगते हैं। तुल-तुल मूतने लगते हैं। जो कुछ
भी स्कूल में पढ़ाते हैं झूठ बकते हैं। बादल सचमुच भाप के नहीं होते। भूगोल गलत,
अंग्रेजों का डर सही, सही। यही बात है। ओहो आज समझ में आया। क्या समझे ? जहाजी
बेड़ा और तोप। लेकिन अफ़्ग़ान भी क्या तपक मारता है। चट्टानों की आड़ में छिपा
रहता है। जहाँ दुश्मन को देखा एक आँखें भींच, शायद दोनों आँखें बंद कर लेता है।
घोड़ा दबा दिया। ठाँय ! टप से जिंदा जान मुर्दे की तरह गिर पड़ी। खूब ख़ूब मारा ! लेकिन
अफ़्ग़ान तो पैदल चलता है। मगर हवाई जहाज को एक गोली से गिरा लेता है। हमारे पास
मोटर छोड़ घोड़ा गाड़ी भी नहीं। हम क्या करेंगे ? चलो जलियांवाला बाग की सैर कर
आएँ। मगर जाएँगे काहे में ? हम बताएँ सरकंडे की गाड़ी दो बैल जोते जाएँ। वाह ! भाई वाह ! खूब सुनाई। इतने
सारे आदमी और सरकंडे की गाड़ी। पागल है भई, पागल, पेरी है बे लमडू, पेरी है। सफेदे
की पेरी है। वह काटा ! यूँ नहीं तो यूँ सही। हुश-हुश मेरे कान में घुस। सबके कान
में घुस लेंगे। पागल है भई, पागल है। वह काटा ! यही तो मुसीबत है, सुनते तक नहीं। इस
कान से सुना, उस कान से निकाल दिया। जूँ तक नहीं चलती। घड़ा भी क्या इतना चिकना होगा।
मिट्टी में पड़े रौंदते हैं। सूरत तक को नहीं सँभालते। क्या क्या शे`र था ? क्या
? हमने अपनी सूरत बिगाड़ ली, उनको तस्वीर बनानी आती हैं। क्या था ? एक हम हैं। हाँ, हम ! यह ही हम जिनको अपनी सूरत का एहसास नहीं। काले
भुजंगे, मैले-कुचैले, लंगोटी में मस्त हैं। भाई बंदों में किसी ने काई बात कह दी, लड़ने-मरने पर
तैयार और दूसरे जो गला काट डालते हैं। उसका कुछ भी नहीं। जूते खाते हैं, लातें
सहते हैं। गालियाँ सुनते हैं और फिर वही लौंडों की सी बात, अब के तो मार लिया। चाट ! चाट ! भें, भें, भें।
देखो बी अम्मा चुन्नु का बच्चा नहीं मानता, जबसे बरोबर मारे जा रहा है। उसको समझा लो, नहीं तो उस
हरामजादे की...... माश अल्लाह-चश्मेबद्दूर-चश्मेबन्दूक, क्या मीठी गाली दी
है। मुँह चूम ले मुँह। जबान गुद्दी के पीछे से खींच के निकाल डाले, ऐसा चाँटा मारे कि
सारा पजौड़ापन दूर हो जाये। कुत्ते की तरह मारते हैं, हड्डी दिखा कर मारते हैं, अजी पास बुला के
मारते हैं, घेर के मारते हैं, घार के मारते हैं, प्यार करके मारते हैं, दुलार करके मारते हैं और तो और मार करके मारते
हैं। और हम हैं कि कुत्ते की ज़ात फिर उनके चूतड़ों में घुसे जाते हैं। अफसोस तो यह
है कि गू तक नहीं मिलता। आख़ थू.....। काले कुत्ते का गू। लानत तुम जैसे लोगों पर।
बस बे छोटू ? बस ! चुन्नू की गाली सह ली।
मार ! मार ! देखता क्या है ? लपक के दे दबा के हाथ ! मार ! और राजा मारी पोदनी हम
बीर बसावन जाएँ। आपकी सूरत तो दखो। क्या पिद्दी का शोरबा। हम बीर बसावन जाएँ। वाह
मेरे सींख के पहलवान, वाह, कोई तंज़ कहो। ख़ुदा लगती कहो। हम बैर बसावन जाएँ। हाँ, बेर कहते तो एक बात भी थी। मियाँ शेखपुर के बहुत
अच्छे होते हैं। कभी सहारनपुर के बेरों का भी नाम सुना है ? अजि साहब बैल होंगे, बैल, जी हाँ, ठीक कहा, सही, बैल ही तो
थे। हम बैर बसावन जाएँ। सरकंडों की गाड़ी दो बैल जोते जाएँ............ और ? राजा
मारी पोदनी, हम बैर बसावन जाएँ। वाह मियाँ पोदने बड़ी हिम्मत की। मिट्टी का शेर है न ? सरकंडों
की गाड़ी में बैठेगा, बैलों पर, कि राजा मारी पोदनी, हम बैर बसावन जाएँ।
[1] तुच्छ,अल्पज्ञानी और निर्धन।
[2] रात की नमाज़
[3] मोहम्मद स० और उनके परिवार पर दुआ व सलाम पढना।
[4] सुगंधित गोंद जिसे जलाने पर हवा सुगंधित हो
जाती है।
[5]पवित्र जल जो मक्का शहर में
निकलता है।
[6]एक अरबी वाक्य जिसका अर्थ
है अल्लाह के अतिरिक्त कोई भी सर्वशक्तिमान नहीं है। किसी वस्तु के प्रति घृणा भाव
व्यक्त करने के लिए बोला जाता है।
[7]चन्द्र दर्शन (चाँद की तरीख)का
प्रथम ब्रहस्पतिवार।
[8] एक सूफी संत जिनको कई नामों जैसे- बड़े पीर साहब, गौस पाक इत्यादि नामों से
जाना जाता है। आपका मूल नाम ‘अब्दुल क़दीर जिलानी’ है तथा आपकी दरगाह/मज़ार बग़दाद(इराक़)में है।के
नाम का चढ़ावा,प्रसाद।
[9] एक सूफी संत, जिनकी मज़ार/दरगाह दिल्ली जामा मस्जिद के पास स्थित है।
[10] एक अरबी वाक्य जिसका अर्थ है-अल्लाह बहुत दयालु है।
[11] छुप कर अनुचित कार्य करना
[12] चीन की एक पारंपरिक सीसे और तांबे की दीवार।
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