किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत
लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी
देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद
अध्याय -4
भाग-1
खिलाफत-ए-राशिदा से मुलूकिय्यत तक
खिलाफात-ए-राशिदा जिस के इम्तियाज़ी खासाइस और बुनियादी उसूल
गुर्जिश्ता सफ्हात में बयान किये गए हैं, हकीकत में महज़ एक सियासी हुकूमत न थी, बल्कि
नबुव्वत की मुकम्मल नियाबत थी। यानी इस का काम सिर्फ इतना ही था कह मुल्क का नज़्म-ओ-नस्क चलाये, अमन कायम
करे और सरहदों की हिफाज़त करती रहे बल्कि
वह मुसलामानों की इज्तिमाई ज़िंदगी में मुअल्लिम, मुरब्बी और मुर्शिद के वह तमाम
फ़राइज़ अंजाम देती थी जो नबी (स०) अपनी हयात-ए-तय्यबा में अंजाम दिया करते थे। और उसकी यह ज़िम्मेदारी थी कह दारुल सलाम में दीन-ए-हक
के पूरे निजाम को उसकी अस्ली शक्ल व रूह के साथ चलाये और दुनिया में मुसलामानों की
पूरी इज्तिमाई ताक़त अल्लाह का कलमा बुलंद करने की खिदमत पर लगा दे। इस बिना पर यह कहना ज्यादा सही होगा कह वो
सिर्फ खिलाफत-ए-राशिदा ही न थी बल्कि खिलाफात-ए-मुर्शिदा भी थी। खिलाफत आला मिन्हाज-ए-नबुव्वात के अल्फ़ाज़ उस की
इन ही दोनों ख़ुसूसियात को ज़ाहिर करते हैं, और दीन की समझ रखने वाला कोई शख्स भी इस
बात से न`वाकिफ नहीं हो सकता कह इस्लाम में अस्ल मतलूब उसी नौइयत की रियासत है न
कह महज़ एक सियासी हुकूमत।
अब हम इख्तिसार के साथ उन मराहिल का जाइज़ा लेंगे जिन से
गुज़रते हुए यह खिलाफत आखिर मुलूकिय्यत में तब्दील हुई और यह बताएँगे कह इस तगय्युर
ने मुसलामानों की रियासत को इस्लाम के उसूल- ए-हुक्मरानी से किस कद्र हटा दिया
और उसके क्या असरात मुसलामानों की इज्तिमाई ज़िंदगी पर मुतरत्तिब हुए।
तगय्युर का आगाज़
इस तगय्युर का आगाज़ ठीक उसी मुकाम से हुआ जहाँ से उसके रु-नुमा होने का हजरत उमर (रजि०) को
इन्देशा था। अपनी वफात के करीब ज़माने में
सब से बढ़ कर जिस बात से वो डरते थे वो यह थी कह उनका जाँनशीन अपने कबीले और अपने
अकर्बा के मामले में उस पॉलिसी को न बदल दे जो रसूल अल्लाह (स०) के ज़माने से उनके
ज़माने तक चली आ रही थी। रसूल अल्लाह (स०)
ने अपने पूरे अहद-ए-हुकूमत में हजरत अली (रजि०) के सिवा बनि
हाशिम में से किसी को कोई ओहदा न दिया। हजरत अबुबकर (रजि०) ने अपने ज़माने खिलाफत में अपने कबीले और खानदान के किसी
शख्स को सिरे से किसी मंसब पर मामूर न किया। हजरत उमर (रजि०) ने अपने दस साल के अहद में बनि अदि के सिर्फ एक शख्स को एक
छोटे से ओहदे पर मुकर्रर किया और उससे भी उन को बहुत जल्द सुबुक-दोश कर दिया। यही वज़ह थी कह उस ज़माने में क़बाईली अस्बियतों
को सर उठाने का कोई मौका न मिला। हजरत उमर (रजि०) को खौफ था कह यह पॉलिसी अगर हजरत उस्मान (रजि०), हजरत अली
(रजि०), हजरत साद (जि०) बिन अबि वकास ..... को अलग अलग बुला कर उनको वसीयत की थी
कह अगर मेरे बाद तुम खलीफ़ा हो तो अपने कबीले के लोगों को मुसलामानों की गर्दन पर
मुसल्लत न कर देना।[1]
लेकिन इन के बाद जब हजरत उस्मान (रजि०) जाँनशीन हुए तो
रफ्ता-रफ्ता वो इस पॉलिसी से हट्ते चले गए। उन्होंने अपने दर पे अपने रिश्तेदारों को बड़े-बड़े अहम ओहदे अता किये और उनके
साथ दूसरी ऐसी रिआयत कीं जो आम तौर पर लोगों ने हद्फ-ए-एतराज़ बनकर रहीं।[2] हज़रत सअद (रजि०) बिन अबि वकास को मअजूल कर के उन्होंने कूफ़े की गवर्नरी पर
अपने माँ जाए भाई वलीद बिन उक्बा बिन अबि मुईत को मुकर्रर फ़रमाया और उसके बाद यह
मंसब अपने एक और अजीज सईद बिन आस को दिया। हजरत अबु मूसा अशअरी (रजि०) को बसरा की गवर्नरी से मअजूल
कर के अपने मामू जाद भाई अब्दुल्लाह बिन आमिर को उनकी जगह मामूर किया। हजरत अम्र (रजि०) बिन आस को
मिस्र की गवर्नरी से हटा कर अपने रजाई भाई अब्दुल्लाह बिन सअद बिन अबि सरह को
मुक़र्रर किया। हजरत मुआविया (रजि०) सय्यदना उमर फारूक (रजि०) के ज़माने में सिर्फ दमिश्क की
विलायत पर थे। [3] हजरत उस्मान (रजि०) ने उन की
गवर्नरी में दमिश्क, हम्स, फिलिस्तीन, अर्दन और लिबनान का पूरा इलाका जमा कर दिया। फिर अपने चाचा जाद भाई मरवान
बिन हकम को उन्होंने अपना सेकेट्री बना लिया जिस की वज़ह से सल्तनत के पूरे दर-ओ-बस्त इसका असर-ओ-नुफूज़ कायम हो गया। इस तरह अमलन् एक ही खानदान के
हाथ में सरे इख्तियार ज़मा हो गए |
इन बातों का रद्दे अमल सिर्फ अवाम पर ही नहीं अकाबिर-ए-सहाबा
(रजि०) तक कुछ अच्छा न था और न हो सकता था। मिसाल के तौर पर जब वलीद बिन उक्बा कूफे की गवर्नरी का
परवाना लेकर हजरत सअद (रजि०) बिन अबि वकास के पास पहुंचा तो उन्होंने फ़रमाया-
“मालूम नहीं हमारे बाद तू जियादा दाना हो गया है या हम तेरे बाद अहमक हो गए हैं।” उसने जवाब दिया- “ अबु इसहाक
! बर-अफ़रोख़्ता न हो, यह तो बादशाही है, सुबह कोई इसके
मज़े लोटता है तो शाम कोई और। ” हज़रत सअद (रजि०) ने कहा “ मैं समझता हूँ वाकई तुम लोग इसे बादशाही बना कर
छोड़ोगे। ” करीब करीब ऐसे ही ख्यालात अब्दुल्लाह (रजि०) बिन मसूद ने भी ज़ाहिर फरमाए।” [4]
[1] अल तबरी, जि०3, सफ०264 | तबकात इब्ने साद, जि० 3, सफ०
340-344
[2] मिसाल के तौर पर उन्होंने अफ्रीके के माले गनीमत का पूरा
ख़ुम्स (पांच लाख दिनार) मरवान को बख्श दिया | इस वाकये मुतालिक इब्ने अल असीर ने
अपने तहकीक इस तरह बयान की है – “ अब्दुल्लाह बिन सादबिन अबि सरह अफ्रीका का ख़ुम्स
मदीने लाए और मरवान बिन हक़म ने उसे पांच लाख दीनार में खरीद लिया, फिर हजरत उस्मान
(रजि०) ने यह कीमत उसको माफ़ कर दी | यह भी उन उमूर में से है जिन की वज़ह सी हजरत
उस्मान (रजि०) पर एतराज़ किया गया था | अफ्रीका के ख़ुम्स के मामले में जितनी रिवायत
बयान की जाती हैं यह रिवायत उनमे सबसे ज्यादा दुरुस्त है | बअज़ लोग कहते हैं हजरत
उस्मान (रजि०) ने अफ्रीका का ख़ुम्स अब्दुल्लाह बिन साद को दे दिया था | और बअज़
दुसरे लोग बयान करते हैं कह मरवान बिन हकम को अता कर दिया था | इस रिवायत से हकीकत
ये ज़ाहिर हुई कह हजरत उस्मान (रजि०) ने अफ्रीका की पहली जंग का ख़ुम्स अब्दुल्लाह
बिन साद को अता किया था और दूसरी जंग जिसमे अफ्रीका का पूरा इलाका फतह हुआ उस का
ख़ुम्स मरवान को अता किया |” (अल कामिल फी अल तारीख जि० 3, सफ० 46, मबतुल तबातुल
मुनीरिया, मिस्र 1340 हि०
[3] हाफ़िज़ इब्ने कसीर कहते हैं – “ सही बात यह है कह शाम के
तमाम इलाकों को हजरत मुआविया (रजि०) की गवर्नरी में हजरत उस्मान (रजि०) ने जमा किय
| हजरत उमर (रजि०) ने उनको सिर्फ शाम के बअज़ हिस्सों का हाकिम बनाया था| ” अल बदाय
वल नहाया जि०8, सफ० 124
[4] इब्ने अब्दुरबर्र , अल इस्तियाब, जि०2, सफ० 604
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