सामाजिक परिवर्तन
के सिद्धांत-I
-फ़रीद अहमद
समाज में सामाजिक परिवर्तन
होने के क्या कारण होते हैं ? सामाजिक परिवर्तन किन सियमों के अंतर्गत होते हैं ?
सामाजिक परिवर्तन की स्थिति और दशा क्या होती है ? इन प्रश्नों के उत्तर हेतु
प्राचीन समय से ही विद्वान् अपने अपने स्तर से अपने विचार और मत व्यक्त करते रहे
हैं । प्रारम्भ में दार्शनिकों द्वारा सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में सिद्धांत
प्रस्तुत किये तथा बाद में समाजशास्त्रीयों द्वारा सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांतों
को प्रस्तुत किया गया ।
16 वीं सदी ईस्वीं में जीन बोडिन
ने संसार की विभिन्न सभ्यताओं के एतिहासिक अध्ययन के आधार पर अपना यह मत व्यक्त
किया कि ‘समाज में परिवर्तन चक्रीय रूप में घटित होते हैं ।
19 वीं सदी ईस्वीं में आगस्ट कॉम्ट, हीगल और कार्ल मैनहीम
ने सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में कहा
कि ‘ सामाजिक परिवर्तन एक सीधी रेखा में कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुज़रता है तथा
प्रत्येक समाज को इन स्तरों से गुज़रना होता है ।’
सामाजिक
परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत –
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्तकारों का मत है कि समाज में परिवर्तन एक
चक्र में चलता है । हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं , घूम-फिर कर पुनः वहीँ पहुँच
जाते हैं । इस प्रकार के विचारों की प्रेरणा को संभवतः प्रकृति से मिली होगी ।
प्रकृति में हम देखते हैं कि ऋतुओं का एक चाकर चलता है और सर्दी, गर्मी एवं वर्षा
की ऋतुएं एक के बाद एक पुनः-पुनः आती हैं । इसी प्रकार से रात के बाद दिन एवं दिन
के बाद रात का चक्र भी चलता है । प्राणी भी जन्म और मृतु के दौर से गुज़रते हैं ।
हम जन लेते हैं , युवा होते हैं , वृद्ध होते हैं और मर जाते हैं । और इसी प्रकार
ये क्रम चक्र रूप में चलता रहता है ।
परिवर्तन के इस चक्र को कई विद्वानों ने समाज पर भी लागू किया और कहा कि
परिवार समाज और सभ्यताएं उत्थान और पतन के चक्र से गुज़रती हैं । इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने विश्व की
अनेकों सभ्यताओं का उल्लेख किया और कहा कि
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो सभ्यताएं आज फल-फूल रही हैं और प्रगती के उच्च
शिखर पर हैं, वो कभी आदिम और पिछड़ी अवस्था में थीं, और आज जो सभ्यताएँ नष्टप्राय दिखाई दे रही हैं, भूतकाल में वो
विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताएँ रह चुकी हैं ।चक्रीय सिद्धान्तकारों में सामाजिक स्पेंग्लेर,
टायनबी, पैरेटो एवं सोरोकिन प्रमुख हैं ।
स्पेंग्लेर का सिद्धांत
(Theory of Oswald Spengler)-
सामाजिक परिवर्तन
के बारे में जर्मन विद्वान् ओसवाल्ड स्पेंग्लेर ने 1918 में अपनी पुस्तक “ The Decline of the West ” में अपना चक्रीय सिद्धांत प्रस्तुत किया । इस
पुस्तक में उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के उदविकासीय सिद्धांतों आलोचना की और कहा
कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा (straight line) में नहीं होता हैं में
नहीं होता हैं । स्पेंग्लेर का मत है कि
सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहाँ से हम प्रराम्भ होते हैं घूम-फिर कर
पुनः वहीँ पहुँच जाते हैं । जैसे- मनुष्य जन्म लेता है , युवा होता है , वृद्ध
होता है और मर जाता है तथा फिर जन्म लेता है । यही चक्र मानव समाज एवं सभ्यताओं
में पाया जाता है । मानव की सभ्यता और संस्कृति भी उत्थान और पतन , निर्माण और
विनाश के चक्र गुज़रती हैं । वे भी मानव शरीर की तरह जन्म , विकास और मृत्यु को
प्राप्त होती है । अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए आपने विश्व की आठ (8)
सभ्यताओं (अरब, मिस्र, मेजियन, माया, रुसी एवं पश्चमी संस्कृतियों आदि ) का उल्लेख
किया और उनके उत्थान और पतन को दर्शाया । स्पेंग्लेर ने पश्चिमी सभ्यता के बारे
में कहा कि यह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गयी हैं । उद्योग एवं विज्ञान के
क्षेत्र में उसने अभूतपूर्व प्रगति की है , किन्तु अब वह धीरे-धीरे क्षीणता एवं
स्थिरता की स्थिति में पहुँच गयी हैं । अतः इसका विनाश अवश्यम्भावी है । उन्होंने
जर्मन संस्कृति के बारे में भी इसे ही विचार प्रकट किये और कहा कि यह भी अपनी चरम
सीमा पर पहुंच गयी हैं और अब इसका पतन निकट है । उनका मत है कि भविष्य में पश्चमी
समाजों का आज जो दबदबा है समाप्त हो जाएगा और उनकी सम्पनता एवं शक्ती नष्ट हो
जायेगी । आपने कहा कि दूसरी ओर एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए थे, कमज़ोर एवं
सुस्त थे अपनी आर्थिक एवं सैनिक शक्ती के कारण प्रगती एवं निर्माण के पथ पर बढ़ेंगे
। वे पश्चमी समाजों के लिए एक चुनोती बन जायेंगे । इस प्रकार पश्चिम एवं एशिया के
समजों के उदहारण द्वारा स्पेंग्लेर ने
सामाजिक परिवर्तन के चक्रे प्रवत्ति को स्पष्ट किया है ।[i]
समालोचना- स्पेंग्लेर के इस
सिद्धांत ने बहुत समय तक लोगों को अपनी और आकर्षित किया, किन्तु इसे पुरी तरहं
स्वीकार नहीं किया जा सकता । स्पेंग्लेर ने संस्कृति एवं सभ्यता की तुलना सावयव से
की है जिसे आज कोई स्वीकार नहीं करता । स्पेंग्लेर ने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मोड़
कर अपने पक्ष की पुष्टि की तथा काल्पनिक आधार पर युद्धों से पश्चमी समाज के विनाश
के घोषणा की । स्पेंग्लेर ने यह भी नहीं
बताया कि किसी सभ्यता, समाज व संस्कृति का अंतिम बिंदु कौन सा है, जिसके बाद ह्वास
प्रारम्भ हो जाता है । स्पेंग्लेर का यह कहना भी कि पश्चिम समाज विकास के चरम
स्वरूप को प्राप्त कर चुका है, त्रुटिपूर्ण है क्यूंकि अब भी विकास का कार्य जारी
है । स्पेंग्लेर के सिद्धांत को हम पुर्णतः वैज्ञानिक नहीं मान सकते । उनके
सिद्धांत से उनका निराशावाद प्रकट होता है ।
आलोचकों ने स्पेंग्लेर के
सिद्धांत को “निराशावादी सिद्धांत” कहा है ।
टॉयनबी का सिद्धांत (Theory of Toynbee) –
अर्नाल्ड जे०
टॉयनबी एक अंग्रेजी इतिहासकार थे । उन्होंने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया
तथा अपनी किताब “ A Study of History” में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धांत
प्रस्तुत किया । विभिन्न सभ्यताओं का अध्ययन करके आपने सभ्यताओं के विकास का एक
सामान्य प्रतिमान ढूंडा और सिद्धांत का निर्माण किया । टॉयनबी के सिद्धांत को ‘
चौनोती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धांत’ (Challenge and Response Theory of
Social Change) भी कहते हैं । टॉयनबी कहते
हैं कि प्रत्येक को प्रारम्भ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है । इस
चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ती को अनुकूलन की आवश्यकता होती है । व्यक्ती इस
चुनौती के प्रत्युत्तर में भी सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण कर्ता है । इसके बाद
भौगोलिक चुनौतियों के स्थान पर सामाजिक चुनौतियां दी जाती हैं । ये चुनौतियां समाज
की भीतरी समस्याओं के रूप में अथवा बाहरी समाजों द्वारा दी जाती हैं । जो समाज इन
चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर लेता है वह जीवित रहता है । और जो ऐसा नहीं कर
सकता वो नष्ट हो जाता है । इस प्रकार एक समाज निर्माण एवं विनाश तथा विघटन के दौर
से गुज़रता है ।[ii]
सिन्धु व नील नदी की
घाटियों में ऐसा ही हुआ है । प्राकृतिक पर्यावरण ने वहां के लोगों को चुनौती
दीजिसका प्रत्युत्तर उन्होंने निर्माण के द्वारा दिया । सिन्धु व मिस्र की
सभ्यताएँ भी इसी प्रकार विकसित हुईं । गंगा तथा वोल्गा नदी ने भी ऐसी चुनौती दीं,
किन्तु इसका समुचित प्रत्युत्तर वहां के लोगों ने नहीं दिया ।
अतः वहां सभ्यताएं नहीं पनपीं ।
समालोचना- टॉयनबी का सिद्धांत
वैज्ञानिकता से दूर एक दार्शनिक सिद्धांत प्रतीत होता है । किन्तु स्पेंग्लेर की
तुलना में अधिक आशावादी है । टॉयनबी ने परिवर्तन की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने
का प्रयास किया ।
पैरेटो का सिद्धांत (Theory of Pareto) –
विल्फ्रेड पैरेटो
सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत जिसे “ अभिजात वर्ग के परिभ्रण का
सिद्धांत “ (Theory of Circulation of Elites) कहते हैं का प्रतिपादन अपने पुस्तक ‘Mind
and Society’ में किया । उन्होंने
सामाजिक परिवर्तन को वर्ग व्यवस्था में होने वाले चक्रीय परिवर्तन के आधार पर
समझाया । उनका मत है कि प्रत्येक समज में हमें दो मत दिखाई देते हैं – उच्च या
अभिजात वर्ग तथा निम्न वर्ग । ये दोनों वर्ग स्थिर नहीं हैं वरन इनमे परिवर्तन का
चक्रीय क्रम पाया जाता है । निम्न वर्ग के व्यक्ति अपने गुणों एवं कुशलता में
वृद्धि करके अभिजात वर्ग (Elite Class)
में सम्मलित हो जाते हैं । अभिजात वर्ग के लोगों की कुशलता में एवं योग्यता
में धीरे-धीरे ह्वास होने लगता है और वह अपने गुणों को खो देते हैं, तथा भ्रष्ट हो
जाते हैं । इस प्रकार वह निम्न वर्ग की और बढ़तें हैं । उच्च या अभिजात वर्ग में
उनके रिक्त स्थान को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो व्यक्ति बुद्धिमान, चरित्रवान,
कुशल, योग्य एवं साहसी होते हैं , ऊपर की ओर जाते हैं । इस प्रकार उच्च वर्ग से
निम्न वर्ग में तथा निम्न वर्ग से उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चलती रहती हैं ।
इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक संरचना में परिवर्तन आ सकता है । चूँकि यह परिवर्तन
एक चक्रीय गति में होता है, इस लिए इसे सामाजिक परिवर्तन का ‘चक्रीय’ अथवा ‘अभिजात
वर्ग का सिद्धांत’ कहते हैं।
पैरेटो ने सामाजिक
परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत का उल्लेख राजनितिक, आर्थिक एवं आदर्शात्मक तीनों
क्षेत्रों में किया है ।
राजनितिक
क्षेत्र- राजनीयिक क्षेत्र में दो प्रकार के
व्यक्ति दिखायी देते हैं – शेर तथा लोमड़ियाँ ‘शेर’ लोगों का आदर्शवादी लक्ष्यों
में दृढ विश्वाश होता है, जिन्हें प्राप्त करने के वे लिए शक्ति का सहारा लेते हैं
और ‘शेर’ वे लोग होते हैं जो सत्ता में होते हैं । चूँकि ‘शेर’ लोग शक्ती का
प्रयोग करते हैं । अतः समाज में भयंकर प्रतिक्रिया हो सकती है, अतः वे कूटनीति का
सहारा लेते हैं और ‘शेर’ से अपने आपको ‘लोमड़ियों’ में बदल लेते हैं । तथा
‘लोमड़ियों’ की तरह चालाकी से शासन चलाते
हैं, एवं सत्ता में बने रहते हैं । किन्तु निम्न वर्ग में कुछ ‘लोमड़ियाँ’ होती हैं
जो सत्ता को हत्याने की फ्राक में रहती हैं । एक समय ऐसा आता है कि उच्च वर्ग की
लोमड़ियों से सत्ता निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ आ जाती हैं । ऐसी स्थिति में
सत्ता परिवर्तन के कारन राजनितिक व्यवस्था एवं संगठन में भी परिवर्तन आता है ।
पैरेटो का मत है
कि सभी समाजों में शासन के लिए ‘तर्क’ के स्थान पर ‘शक्ति’ का प्रयोग अधिक होता है
। शासन करने वाले लोगों में जब बल का प्रयोग करने करने की इच्छा व शक्ति कमज़ोर हो
जाती है तब वे शक्ति के स्थान पर लोमड़ी की तरह चालाकी से काम लेते हैं । शासित
वर्ग की लोमड़ियाँ उनसे अधिक चतुर होती हैं । अतः वह उच्च वर्ग की लोमड़ियों से
सत्ता छीन लेती हैं । अतः जब शासक बदलते हैं एवं सत्ता परिवर्तन होती है तो समाज
में भी परिवर्तन आता है ।
आर्थिक
क्षेत्र - आर्थिक क्षेत्र में पैरेटो ने दो वर्गों –
‘सट्टेबाज’ (Speculators) तथा निश्चित ‘आय
वर्ग’ (Rentiers) का उल्लेख किया है ।
पहले वर्ग के लोगों की आय अनिश्चित होती है – कभी कम तथा कभी ज्यादा । इस वर्ग के
लोग बुद्धि के द्वारा धन कमाते हैं । इसके विपरीत दूसरे वर्ग की आय निश्चित होती है । प्रथम वर्ग के लोग अविष्कारक, उद्योगपति एवं कुशल
व्यवसाय होते हैं । किन्तु इस वर्ग के लोग अपने हितों और रक्षा के लिए शक्ति एवं
चालाकी का प्रयोग करते हैं । भ्रष्ट तरीके
अपनाते हैं । इस कारण उनका पतन हो जाता है , और उनका स्थान दूसरे वर्ग के इसे लोग ले
लेते हैं जो ईमानदार होते हैं । इस वर्ग में परिवर्तन के साथ-साथ समाज की अर्थ
व्यवस्था में भी परिवर्तन आता है ।
आदर्शवादी
क्षेत्र - आदर्शवादी क्षेत्र में भी दो प्रकार के व्यक्ति
पाए जाते हैं – विशवासवादी एवं अविश्वासी । कभी समाज में विश्वासवादियों का
प्रभुत्व होता है , किन्तु जब वे रुढ़िवादी हो जाते हैं तो उनका पतन हो जाता है, और
उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते हैं ।
समालोचना- पैरेटो ने अपने चक्रीय सिद्धांत को व्यवस्थित एवं
बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है । फिर भी पैरेटो उन कारणों को स्पष्ट
करने में असमर्थ रहे हैं जो वर्गों की स्थिति को परिवर्तन करते हैं ।
सोरोकिन का सिद्धांत (Theory of Sorokin) –
सोरोकिन ने अपनी
पुस्तक “Social and Cultural Dynamics” में सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक
गतिशीलता का सिद्धांत प्रस्तुत किया । सोरोकिन ने कार्ल मार्क्स, वेबलिन एवं
पैरेटो अदि के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांतों की आलोचना की ।
सोरोकिन का मत है कि सामाजिक
परिवर्तन उतार-चढाओ के रूप में घडी के पंदुलम की भांति एक स्थिति से दूसरी स्थिति
के बीच होता रहता है । सोरोकिन में मुख्य रूप से तीन संस्कृतियों
का उल्लेख किया है ।
1-
चेतनात्मक संस्कृति (Sensate Culture)
2-
भावनात्मक संस्कृति (Ideational Culture)
3-
आदर्शात्मक संस्कृति (Ideal Culture)
1-चेतनात्मक संस्कृति- चत्नात्मक संस्कृति को ‘भौतिक संस्कृति’ भी कहते हैं । इस संस्कृति का सम्बन्ध
मानव कि चेतना और इन्द्रियों से होता है, अर्थात- इस संस्कृति का ज्ञान हम देख कर,
छू कर, अथवा सूंघ कर कर सकते हैं । ऐसी संस्कृति में मानव इन्द्रिक आवश्यकताओं के
पूर्ति पर अधिक बल दिया जाता है । इसमें
सभी भौतिक वस्तुओं, पदार्थ का समेष होता है । मानव एवं सामूहिक पक्ष भी चेतनात्मक
संस्कृति के रंग में रगे होते हैं । इस संस्कृति को खाओ-पियो-मौज करो
संस्कृति भी कहा जाता है ।
2-
भावनात्मक संस्कृति- भावनात्मक
संस्कृति चेतनात्मक संस्कृति के बिलकुल विपरीत होती है । इस संस्कृति का सम्बन्ध
इन्द्रियों के सुख के स्थान पर आध्यात्मिक उन्नति, मोक्ष तथा इश्वर प्राप्ति से है
। सभी वस्तुओं को इश्वर का फल माना जाता है तथा साहित्य, कला, दर्शन , विधि
इत्यादि में धर्म वा ईश्वर की प्रधानता तथा प्रमुखता पाई जाती है , प्रथाएं, परम्परों,
रीती-रिवाजों इत्यादि पर अधिक बल दिया जात है । जिस कारण से चेतनात्मक संस्कृति
में प्रौद्योगिकी व विज्ञान पिछड़ जाते हैं
।
3-आदर्शात्मक संस्कृति- आदर्शात्मक संस्कृति चेतनात्मक तथा भावनात्मक संस्कृति दोनों का मिश्रण होती है । इस संस्कृति में दोनों संस्कृतिओं की
विशेषताएं पाई जाती हैं । आदर्शात्मक संस्कृति में भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों
सुखों का संतुलन और सुख पाया जाता है । इस
संस्कृति में व्यक्तिगत लाभ और आध्यात्मिक व मानवीय मूल्यों का महत्व होता है । इस लिए सोरोकिन इस संस्कृति को उत्तम तथा
आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं ।
सोरोकिन का मानना है कि प्रत्येक समाज उक्त दोनों संस्कृति के धुरियों के बीच
घूमता है । अर्थात- चेतनात्मक से भावनात्मक की ओर तथा भावनात्मक से चेतनात्मक की
ओर आता-जाता रहता है । एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाने के दौरान मध्य में एक
स्थिति एसी भी होती है जिसमे चेतनात्मक तथा भावनात्मक संस्कृति का मिश्रण होता है ।
जिसको सोरोकिन आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं । जिस कारण से सामाजिक
परिवर्तन होता है ।
समालोचना- सोरोकिन ने अपने सिद्धांत को
वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादित किया फिर भी सेरोकिन के सिद्धांत की आलोचना हुई है –
1-
संस्कृति को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचने में दीर्घ समय लगता है जिस
कारन से सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति को प्रकट करना कठिन है ।
2-
सेरोकिन के अनुसार समाज एक परकार की संस्कृति से दुसरे प्रकार की संस्कृति में
परिवर्तन होता है । जबकि सेरोकिन की इस बात को एतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पूर्ण
सिद्ध करना संभव नहीं है ।
3-
सेरोकिन का मत है कि परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से उत्पान होता है ।
जबकि सेरोकिन संस्कृति के कारकों को वौज्ञानिक रूप से स्पष्ट करने असमर्थ रहे हैं ।
[i] लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी,परिवर्तन और विकास का
समाजशास्त्र, लक्ष्मी पब्लिकेशन नई दिल्ली,2012 पृष्ठ-39
[ii] लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी,परिवर्तन और विकास का समाजशास्त्र,
लक्ष्मी पब्लिकेशन नई दिल्ली,2012 पृष्ठ-44
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