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Angare: Story-4/ अंगारे: कहानी-4

 

 



 "अंगारे" कहानी -4

दुलारी

सज्जाद ज़हीर


हालाँकि बचपन से वो इस घर में रही और पली, मगर सोलवहीं सत्रहवीं बरस में थी कि आख़िरकार लौंडी[1] भाग गई। उसके माँ-बाप का पता नहीं था। उसकी सारी दुनिया यही घर था और उसके घर वाले। शेख़ नाज़िम अली साहब ख़ुशहाल आदमी थे, घराने में माशा अल्लाह कई बेटे और बेटियाँ भी थीं। बेगम साहिबा भी जीती जागती थीं और औरतों में उनका पूरा राज था। दुलारी ख़ास उनकी लौंडी थी। घर में नौकरानियाँ और काम वालियाँ आतीं। महीने दो महीने , साल दो साल काम करतीं उसके बाद ज़रा सी बात पर झगड़ कर नौकरी छोड़ देतीं और चली जातीं मगर दुलारी के लिए हमेशा एक ही ठिकाना था। उससे घर वाले काफ़ी मेहरबानी से पेश आते। ऊंचे दर्जे के लोग हमेशा अपने से नीचे तबक़े वालों का ख़्याल रखते हैं। दुलारी को खाने और कपड़े की शिकायत न थी। दूसरी नौकरानियों के मुक़ाबले में उस की हालत अच्छी ही थी। मगर बावजूद इसके कभी- कभी जब किसी कामवाली से झगड़ा होता तो वो ये तंज़ हमेशा सुनती मैं तेरी तरह कोई लौंडी थोड़ी हूँ। इसका दुलारी के पास कोई जवाब न होता।

       उसका बचपन बे-फ़िक्री में गुज़रा। उसका रुत्बा घर की बीबियों से तो क्या नौकरानियों से भी कम था। वो पैदा ही उस दर्जे में हुई थी। ये तो सब ख़ुदा का किया धरा है, वही जिसे चाहता है इज़्ज़त देता है जिसे चाहता है ज़लील करता है, इसका रोना किया ? दुलारी को अपनी नीचता की कोई शिकायत न थी। मगर जब उस की उम्र का वो ज़माना आया जब लड़कपन  ख़त्म और जवानी शुरू होती है और दिल की गहरी और अँधेरी बेचैनियाँ ज़िंदगी को कभी कड़वी और कभी मीठी बनाती हैं तो वो अक्सर उदास सी रहने लगी। लेकिन ये एक आंतरिक स्थिति थी जिसका उसे न तो कारण पता था न दवा। छोटी साहबज़ादी हसीना बेगम और दुलारी दोनों क़रीब क़रीब हमजोली थीं और साथ खेलतीं। मगर जैसे जैसे उनकी उम्र बढ़ती थी वैसे वैसे दोनों के बीच दूरियाँ ज़्यादा होती जाती। साहबज़ादी क्यों कि शरीफ़ थीं उनका वक़्त पढ़ने लिखने, सीने पिरोने, में बीतने लगा। दुलारी कमरों की ख़ाक साफ़ करती, झूटे बर्तन धोती, घड़ों में पानी भर्ती। वो ख़ूबसूरत थी। बड़ा चेहरा, लंबे- लंबे हाथ पैर, भरा जिस्म, मगर आम तौर से उस के कपड़े मैले कुचैले होते और उसके बदन से बू आती। त्योहार के दिनों ज़रूर वो अपने रखे हुए कपड़े निकाल कर पहनती और शृंगार करती, या अगर कभी इक्का-दुक्का उसे बेगम साहिबा या साहबज़ादियों के साथ कहीं जाना होता तब भी उसे साफ़ कपड़े पहनना होते।

       शब-ए-बरात[2] थी। दुलारी गुड़िया बनी थी। औरतों के आँगन में आतिशबाज़ी छूट रही थी। सब घर वाले नौकर-चाकर खड़े तमाशा देखते। बच्चे हल्ला मचा रहे थे। बड़े साहबज़ादे काज़िम भी मौजूद थे जिनकी उम्र बीस-इक्कीस बरस की थी। ये अपनी कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म ही करने वाले थे। बेगम साहिबा उन्हें बहुत चाहती थीं मगर ये हमेशा घरवालों से नाराज़ रहते और उन्हें संकीर्ण और जाहिल समझते। जब छुट्टीयों में घर आते तो उनको बहस ही करते गुज़र जातीं, ये अक्सर पुरानी रस्मों के ख़िलाफ़ थे मगर नाराज़गी ज़ाहिर करके सब कुछ बर्दाश्त कर लेते। इससे ज़्यादा कुछ करने के लिए तैयार नहीं थे।

       उन्हें प्यास लगी, और उन्होंने अपनी माँ के कंधे पर सर रखकर कहा, “अम्मी जान प्यास लगी है।” बेगम साहिबा ने मुहब्बत भरे लहजे में जवाब दिया, “बेटा शर्बत पियो, में अभी बनवाती हूँ”, और ये कह कर दुलारी को पुकार कर कहा कि शर्बत तैयार करे। काज़िम बोले, “जी नहीं अम्मी जान, उसे तमाशा देखने दीजिए, मैं ख़ुद अंदर जा कर पानी पी लूँगा।” मगर दुलारी हुक्म मिलते ही अंदर की तरफ़ चल दी थी। काज़िम भी पीछे- पीछे दौड़े। दुलारी एक तंग अँधेरी कोठरी में शर्बत की बोतल निकाल रही थी। काज़िम भी वहीं पहुँच कर रुके। दुलारी ने मुड़ कर पूछा, “आपके लिए कौनसा शर्बत तैयार करूँ ?” मगर उसे कोई जवाब न मिला। काज़िम ने दुलारी को आँख भर के देखा, दुलारी का सारा जिस्म थरथराने लगा और उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने एक बोतल उठा ली और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। काज़िम ने बढ़कर उसके हाथ से

बोतल लेकर अलग रख दी और उसे गले से लगा लिया। लड़की ने आँखें बंद कर लीं और अपने तन-मन को उसकी गोद में दे दिया।

       दो हस्तियों ने, जिनकी वैचारिक ज़िंदगी में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ था, अचानक ये महसूस किया कि वो उम्मीदों के किनारे पर आ गए। दरअसल वो तिनकों की तरह काली शक्तियों के समुंदर में बहे चले जा रहे थे।

       एक साल गुज़र गया। काज़िम की शादी ठहरी गई। शादी के दिन आ गए। चार- पाँच दिन में घर में दुल्हन आ जाएगी। घर में मेहमानों का हुजूम है। एक जश्न है काम बहुत हैं। दुलारी एक दिन रात को ग़ायब हो गई, बहुत छानबीन हुई, पुलिस को ख़बर दी गई, मगर कहीं पता न चला। एक नौकर पर सबका शक था, लोग कहते थे कि उसी की मदद से दुलारी भागी और वही उसे छुपाए हुए है। वो नौकर निकाल दिया गया। हक़ीक़त में दुलारी उसी के पास निकली मगर उसने वापस जाने से साफ़ इंकार कर दिया।

       तीन- चार महीने बाद शेख़ नाज़िम अली साहिब के एक बुड्ढे नौकर ने दुलारी को शहर की ग़रीब रंडीयों के मुहल्ले में देखा। बुढ्ढा बेचारा बचपन से दुलारी को जानता था। वो उसके पास गया और घंटों तक दुलारी को समझाया कि वापस चले, वो राज़ी हो गई। बूढ्ढा समझता था कि उसे इनाम मिलेगा और ये लड़की मुसीबत से बचेगी।

       दुलारी की वापसी ने सारे घर में खलबली डाल दी। वो गर्दन झुकाए सर से पैर तक एक सफ़ेद चादर ओढ़े, परेशान सूरत, अंदर दाख़िल हुई और दालान के कोने में जाकर ज़मीन पर बैठ गई। पहले तो नौकरानियाँ आईं। वो दूर से खड़े हो कर उसे देखतीं और अफ़सोस करके चली जातीं। इतने में नाज़िम अली साहिब ज़नाने[3] में तशरीफ़ लाए। उन्हें जब मालूम हुआ कि दुलारी वापस आ गई है, तो वो बाहर निकले, जहाँ दुलारी बैठी थी। वो काम-काजी आदमी थे, घर के मामलों में बहुत कम हिस्सा लेते थे, उन्हें भला इन ज़रा- ज़रा सी बातों की कहाँ फ़ुर्सत थी। दुलारी को दूर से पुकार कर कहा, “बेवक़ूफ़, अब ऐसी हरकत न करना।” और ये कह कर अपने काम पर चले गए।

       इसके बाद छोटी साहबज़ादी, दबे क़दम, अंदर से आईं और दुलारी के पास पहुंचीं, मगर बहुत क़रीब नहीं, उस वक़्त वहाँ और कोई न था। वो दुलारी के साथ की खेली हुई थी, दुलारी के भागने का उन्हें बहुत अफ़सोस था। शरीफ़, पाक-बाज़, इज्ज़तदार हसीना बेगम को उस ग़रीब बेचारी पर बहुत तरस आ रहा था मगर उनकी समझ में न आता था कि कोई लड़की कैसे ऐसे घर का सहारा छोड़कर जहाँ उस की सारी ज़िंदगी बसर हुई हो बाहर क़दम तक रख सकती है, और फिर परिणाम क्या हुआ ? इज़्ज़त बेचना, ग़रीबी, ज़िल्लत, ये सच्च है कि वो लौंडी थी, मगर भागने से उसकी हालत बेहतर कैसे हुई ?

       दुलारी गर्दन झुकाए बैठी थी। हसीना बेगम ने ख़्याल किया कि वो अपने किए पर शर्मिंदा है। इस घर से भागना, जिसमें वो पली, एहसान फ़रामोशी थी, मगर इसकी उसे काफ़ी सज़ा मिल गई, ख़ुदा भी गुनहगारों की तौबा क़बूल कर लेता है। हालाँकि उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गई मगर एक लौंडी के लिए ये इतनी अहम चीज़ नहीं जितनी एक शरीफ़ ज़ादी के लिए। किसी नौकर से इसकी शादी कर दी जाएगी। सब फिर से ठीक हो जाएगा। इन्होंने आहिस्ता से नरम लहजे में कहा, “दुलारी ये तूने क्या किया ?” दुलारी ने गर्दन उठाई, डबडबाई आँखों से एक लम्हा के लिए अपने बचपन की हमजोली को देखा और फिर उसी तरह से सर झुका लिया।

सज्जाद ज़हीर
       हसीना बेगम वापस जा रही थीं कि ख़ुद बेगम साहिबा आ गईं। उनके चेहरे पर जीत की मुस्कुराहट थी, वो दुलारी के बिलकुल पास आकर खड़ी हो गईं। दुलारी उसी तरह चुप, गर्दन झुकाए बैठी रही। बेगम साहिबा ने उसे डाँटना शुरू किया, “बे-हया! आख़िर जहाँ से गई थी वहीं वापस आई ना, मगर मुँह काला कर के सारा ज़माना तुझ पर थू-थू करता है। बुरे काम का यही अंजाम है...” मगर बावजूद इन सब बातों के बेगम साहिबा उसके लौट आने से ख़ुश थीं। जब से दुलारी भागी थी घर का काम इतनी अच्छी तरह नहीं होता था।

       इस लानत का तमाशा देखने, सब घर वाले बेगम साहिबा और दुलारी के चारों तरफ़ जमा हो गए थे। एक गंदी, नाचीज़ हस्ती को इस तरह ज़लील देखकर सब के सब अपनी बड़ाई और बेहतरी महसूस कर रहे थे। मुर्दा खोर गिद्ध भला कब समझते हैं कि जिस लाचार जिस्म पर वो अपनी नुकीली ठोंगें मारते हैं, बे-जान होने के बावजूद भी उनके ऐसे ज़िंदों से बेहतर है।

       अचानक बग़ल के कमरे से काज़िम अपनी ख़ूबसूरत दुल्हन के साथ निकले और अपनी माँ की तरफ़ बढ़े। उन्होंने दुलारी पर नज़र नहीं डाली। उनके चेहरे से ग़ुस्सा था। उन्होंने अपनी अम्मी से तीख़े अंदाज़ में कहा, “अम्मी.........

ख़ुदा के लिए इस बदनसीब को अकेला छोड़ दीजिए, वो बहुत सज़ा पा चुकी है आप देखती नहीं कि इसकी हालत क्या हो रही है !”

लड़की इस आवाज़ के सुनने की ताब न ला सकी। उसकी आँखों के सामने वो मंजर आ गए जब वो और काज़िम रातों की तन्हाई में एक होते थे, जब उसके कान प्यार के लफ़्ज़ सुनने के आदी थे। काज़िम की शादी उसके सीने में खंज़र की तरह चुभती थी। उस चुभन, उसी बेदिली ने उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया, और अब ये हालत है कि वो भी यूँ बातें करने लगे ! इस अंदरूनी उलझन ने दुलारी को इस वक़्त औरत की इज़्ज़त व एहसास का बुत बना दिया। वो उठ खड़ी हुई और उसने सारे गिरोह पर एक ऐसी नज़र डाली कि एक- एक कर के सबने हटना शुरू किया। मगर ये एक ज़ख़्मी, पर कटी चिड़िया की उड़ान की आख़िरी कोशिश थी। उस दिन, रात को वो फिर ग़ायब हो गई।



[1] दासी,सेवा करने वाली लड़की।

[2] हिजरी कैलेण्डर के शाबान महीने की 14 तरीख़ की रात, जिसमें मुसलमान रात भर नमाज़ पढ़ते हैं इबादत करते हैं।

[3] महिलाओं के लिए चिन्हित किया गया स्थान। वह स्थान जहाँ मर्दों के बिना अनुमति प्रवेश निषेध होता है।

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