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Kaifi Azami/ कैफ़ी आज़मी

 


कैफ़ी आज़मी


- फ़रीद अहमद

 

 सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी कैफ़ी आज़मीकी पैदाइश उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के गाँव मिजवां के ज़मीदार खानदान में हुआ था | आपकी पैदाइश की तरीख में इख्तेलाफ पाया जाता है | मशहूर मुसन्निफ़ मालिकराम ने अपने तजकरे मेंकैफ़ी आज़मी की पैदाइश 14/जनवरी/1924 ई० लिखी है जबकि नन्दकिशोर करम’ 14/जनवरी/1914 ई० तहरीर करते हैं | इसके अलवा सुल्तानुल मदारिस लखनऊके तस्तावेजों में कैफ़ी आज़मीकी तरीख पैदाइश 15/अगस्त/1918 ई० दर्ज है |

          कैफ़ी आज़मीअपनी तरीख पैदाइश के मुताल्लिक कहते हैं कि

कब पैदा हुआ .......................................... याद नहीं

कब मरुंगा ................................................. मालूम नहीं

अपने बारे में यकीन के साथ सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि महकूम हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिन्दुसान में बूढा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूँगा |”

          कैफ़ी आज़मी की वालिदा का नाम सय्यदा हफीज उन निसाउर्फ़ कनीज़ फातिमा था | वालिद का नाम फतह हुसैनथा जो कि एक तालीम याफ्ता और मज़हबी तबियत के इंसान थे | ज़मीदारी विरासत में मिली थी लेकिन ज़मींदारी से लगाव न होने के सबब आप लखनऊ आ गये और यहाँ मुलाज़मत इख्तियार कर ली |

          कैफ़ी आज़मीकी इब्तेदाई उर्दू, फारसी की तालीम मदरसे में हुई | वालिद मोहतरम ने दीनी तालीम के लिए सुल्तानुल मदारिस लखनऊमें दाखिला करा दिया लेकिन कैफ़ी आज़मीअंग्रेजी तालीम हासिल करना चाहते थे | इस लिए आपने आपने दीनयात की तालीम के साथ साथ लखनऊ यूनिवर्सिटी से प्राइवेट दाखिले के तहत फारसी व अरबी में माहिर’,’कामिलआलिमकी सनद हासिल कर लीं | लखनऊ यूनिवर्सिटी के अलावा आपने इलाहबाद यूनिवर्सिटी से उर्दू व फारसी में आला काबिलमुंशी कामिलके इम्तेहानात में कामयाबी हासिल की | लेकिन अपनी मसरूफियत के सबब कैफ़ी आज़मीबाकाइदा अंग्रेजी कॉलेज में दाखिला न ले पाए | इस सिलसिले में कैफ़ी आज़मीखुद कहते हैं कि

                   सोचा था कि इम्तेहान पास कर के किसी कॉलेज में बराहे रास्त F.A. में दाखिला लूँगा और अंग्रेजी पढूंगा, लेकिन जब तक सियासत और शयरी का जूनून बहुत तरक्की कर चुका था | आगे तालीम हासिल करने के लिए जिस नज़्म व जब्त की जरूरत थी मेरा लाअबालीपन्न उसे झेल न सका और तालीम अधूरी रह गई|”(कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)

          कैफ़ी आज़मीशुमार तरक्कीपसंद तहरीक के मशहूर व मारूफ शायरों में होता है | दरअस्ल जब कैफ़ी आज़मीका दाखिला सुल्तानुल मदारिस में हुआ तो वहां तरक्कीपसंद अफराद की आमद व रफत रहती थी जिसके सबब आपकी की मुलाक़ात अली सरदार जाफ़री, सद्दाद ज़हीर, अली अब्बास हुसैनी, सय्यद एहतेशाम हुसैन व दिगर तरक्कीपसंद मुस्न्नाफीन से हुई | ‘कैफ़ी आज़मीने तरक्कीपसंद मुसंनिफीन अंजुमन की रुकियत कुबूल कर ली | तरक्कीपसंद मुस्न्नाफीन से वाबस्ता होने के बाद कैफ़ी आज़मीने बेहद जोशीलीं, जज्बाती, बागयानी व पुर एहसास रूमानी नज़्में लिखीं


एक दो ही नहीं छब्बीस दिए

एक इक कर के जलाए मैं ने

एक दिया नाम का आज़ादी के

उस ने जलते हुए होंटों से कहा

चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो

हाथ फैलाने की आज़ादी है

इक दिया नाम का ख़ुश-हाली के

उस के जलते ही ये मालूम हुआ

कितनी बद-हाली है

पेट ख़ाली है मिरा जेब मिरी ख़ाली है ...

 

इक दिया नाम का यक-जेहती के

रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची

क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा

माँ के आँचल में हैं जितने पैवंद

सब को इक साथ उधड़ते देखा

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा

तेल महँगा भी है मिलता भी नहीं

क्यूँ दिए इतने जला रक्खे हैं

अपने घर में झरोका मुंडेर

ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं

आया ग़ुस्से का इक ऐसा झोंका

बुझ गए सारे दिए

हाँ मगर एक दिया नाम है जिस का उम्मीद

झिलमिलाता ही चला जाता है   

(चरागाँ )


 

चीर के साल में दो बार ज़मीं का सीना

दफ़्न हो जाता हूँ

गुदगुदाते हैं जो सूरज के सुनहरे नाख़ुन

फिर निकल आता हूँ

अब निकलता हूँ तो इतना कि बटोरे जो कोई दामन में

दामन फट जाए

घर के जिस कोने में ले जा के कोई रख दे मुझे

भूक वहाँ से हट जाए

फिर मुझे पीसते हैं, गूँधते हैं, सेंकते हैं

गूँधने सेंकने में शक्ल बदल जाती है

और हो जाती है मुश्किल पहचान

फिर भी रहता हूँ किसान

वही ख़स्ता, बद-हाल

क़र्ज़ के पंजा--ख़ूनीं में निढाल

इस दरांती के तुफ़ैल

कुछ है माज़ी से ग़नीमत मिरा हाल

हाल से होगा हसीं इस्तिक़बाल

उठते सूरज को ज़रा देखो तो

हो गया सारा उफ़ुक़ लालों-लाल

(किसान )

मिरे बेटे मिरी आँखें मिरे 'अद उन को दे देना

जिन्हों ने रेत में सर गाड़ रक्खे हैं

और ऐसे मुतमइन हैं जैसे उन को

कोई देखता है और कोई देख सकता है

मगर ये वक़्त की जासूस नज़रें

जो पीछा करती हैं सब का ज़मीरों के अँधेरे तक

अंधेरा नूर पर रहता है ग़ालिब बस सवेरे तक

सवेरा होने वाला है

 

मिरे बेटे उन्हें थोड़ी सी ख़ुद्दारी भी दे देना

जो हाकिम क़र्ज़ ले के इस को अपनी जीत कहते हैं

जहाँ रखते हैं सोना रेहन ख़ुद भी रेहन रहते हैं

और इस को भी वो अपनी जीत कहते हैं

शरीक--जुर्म हैं ये सुन के जो ख़ामोश रहते हैं

क़ुसूर अपना ये क्या कम है कि हम सब उन को सहते हैं

 

मिरे बेटे मिरे 'अद उन को मेरा दिल भी दे देना

कि जो शर रखते हैं सीने में अपने दिल नहीं रखते

है उन की आस्तीं में वो भी जो क़ातिल नहीं रखते

जो चलते हैं उन्हीं रस्तों पे जो मंज़िल नहीं रखते

ये मजनूँ अपनी नज़रों में कोई महमिल नहीं रखते

ये अपने पास कुछ भी फ़ख़्र के क़ाबिल नहीं रखते

तरस खा कर जिन्हें जनता ने कुर्सी पर बिठाया है

वो ख़ुद से तो उट्ठेंगे उन्हें तुम ही उठा देना

घटाई है जिन्हों ने इतनी क़ीमत अपने सिक्के की

ये ज़िम्मा है तुम्हारा उन की क़ीमत तुम घटा देना

जो वो फैलाएँ दामन ये वसिय्यत याद कर लेना

उन्हें हर चीज़ दे देना पर उन को वोट मत देना

(वसिय्यत)

नुक़ूश--हसरत मिटा के उठना, ख़ुशी का परचम उड़ा के उठना

मिला के सर बैठना मुबारक तराना--फ़त्ह गा के उठना

ये गुफ़्तुगू गुफ़्तुगू नहीं है बिगड़ने बनने का मरहला है

धड़क रहा है फ़ज़ा का सीना कि ज़िंदगी का मुआमला है

ख़िज़ाँ रहे या बहार आए तुम्हारे हाथों में फ़ैसला है

चैन बे-ताब बिजलियों को मुतमइन कारवान--शबनम

कभी शगूफ़ों के गर्म तेवर कभी गुलों का मिज़ाज बरहम

शगूफ़ा गुल के इस तसादुम में गुल्सिताँ बन गया जहन्नम

सजा लें सब अपनी अपनी जन्नत अब ऐसे ख़ाके बना के उठना

ख़ज़ाना--रंग--नूर तारीक रहगुज़ारों में लुट रहा है

उरूस--गुल का ग़ुरूर--इस्मत सियाहकारों में लुट रहा है

तमाम सरमाया--लताफ़त ज़लील ख़ारों में लुट रहा है

घुटी घुटी हैं नुमू की साँसें छुटी छुटी नब्ज़--गुलिस्ताँ है

हैं गुरसना फूल, तिश्ना ग़ुंचे, रुख़ों पे ज़र्दी लबों पे जाँ है

असीर हैं हम-सफ़ीर जब से ख़िज़ाँ चमन में रवाँ-दवाँ है

इस इंतिशार--चमन की सौगंद बाब--ज़िंदाँ हिला के उठना

हयात--गीती की आज बदली हुई निगाहें हैं इंक़िलाबी

उफ़ुक़ से किरनें उतर रही हैं बिखेरती नूर--कामयाबी

नई सहर चाहती है ख़्वाबों की बज़्म में इज़्न--बारयाबी

ये तीरगी का हुजूम कब तक ये यास का अज़दहाम कब तक

निफ़ाक़ ग़फ़लत की आड़ ले कर जियेगा मुर्दा निज़ाम कब तक

रहेंगे हिन्दी असीर कब तक रहेगा भारत ग़ुलाम कब तक

गले का तौक़ रहे क़दम पर कुछ इस तरह तिलमिला के उठना

(नये ख़ाके)

 

ये किस तरह याद रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो

कि जैसे सच-मुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो

ये जिस्म--नाज़ुक, ये नर्म बाहें, हसीन गर्दन, सिडौल बाज़ू

शगुफ़्ता चेहरा, सलोनी रंगत, घनेरा जूड़ा, सियाह गेसू

नशीली आँखें, रसीली चितवन, दराज़ पलकें, महीन अबरू

तमाम शोख़ी, तमाम बिजली, तमाम मस्ती, तमाम जादू

हज़ारों जादू जगा रही हो

ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो

 

 

गुलाबी लब, मुस्कुराते आरिज़, जबीं कुशादा, बुलंद क़ामत

निगाह में बिजलियों की झिल-मिल, अदाओं में शबनमी लताफ़त

धड़कता सीना, महकती साँसें, नवा में रस, अँखड़ियों में अमृत

हमा हलावत, हमा मलाहत, हमा तरन्नुम, हमा नज़ाकत

लचक लचक गुनगुना रही हो

ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो

तो क्या मुझे तुम जला ही लोगी गले से अपने लगा ही लोगी

जो फूल जूड़े से गिर पड़ा है तड़प के उस को उठा ही लोगी

भड़कते शोलों, कड़कती बिजली से मेरा ख़िर्मन बचा ही लोगी

घनेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव में मुस्कुरा के मुझ को छुपा ही लोगी

कि आज तक आज़मा रही हो

ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो

नहीं मोहब्बत की कोई क़ीमत जो कोई क़ीमत अदा करोगी

वफ़ा की फ़ुर्सत देगी दुनिया हज़ार अज़्म--वफ़ा करोगी

मुझे बहलने दो रंज--ग़म से सहारे कब तक दिया करोगी

जुनूँ को इतना गुदगुदाओ, पकड़ लूँ दामन तो क्या करोगी

क़रीब बढ़ती ही रही हो

ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो

                                                                   (तसव्वुर)

 

राम बन-बास से जब लौट के घर में आए

याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए

रक़्स--दीवानगी आँगन में जो देखा होगा

छे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा

इतने दीवाने कहाँ से मिरे घर में आए

जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशाँ

प्यार की काहकशाँ लेती थी अंगड़ाई जहाँ

मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र में आए

धर्म क्या उन का था, क्या ज़ात थी, ये जानता कौन

घर जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन

घर जलाने को मिरा लोग जो घर में आए

शाकाहारी थे मेरे दोस्त तुम्हारे ख़ंजर

तुम ने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर

है मिरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आए

पाँव सरजू में अभी राम ने धोए भी थे

कि नज़र आए वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे

पाँव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे

राम ये कहते हुए अपने द्वारे से उठे

राजधानी की फ़ज़ा आई नहीं रास मुझे

छे दिसम्बर को मिला दूसरा बन-बास मुझे

(दूसरा बन बास)

1943 ई० में कैफ़ी आज़मीमुम्बई चले गए यहाँ उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टीसे वाबस्ता रहे और गरीबों, मजदूरों, मजलूमों, मजबूरों के साथ रहने लगे उनकी दुःख तकलीफ को समझते उनके हक की आवाज़ को बुलंद करते हैं और पार्टी का काम को भी अंजाम देते हैं | लेकिन मुंबई में कैफ़ी आज़मीकी माली हालात बेहद नाज़ुक और खस्ता हो चले थे | ‘कैफ़ी आज़मीने फिल्मी गीत लिखना शुरू किया जिसके मुताल्लिक शोकात खानम कहती हैं

फिर अहिस्ता आहिस्ता कैफ़ी को फिल्मों में काम मिलने लगा और वो बच्ची (शाबाना आज़मी) की फीस और और घर का बोझ उठाने के काबिल हो गए मगर पार्टी का काम उन्होंने नहीं छोड़ा |” (मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)

          कैफ़ी आज़मीने फिल्मों के लिए कई सौ गीत लिखे , एक के बाद एक फिल्मों के लिए गीत लिखने का सिलसिला जारी रहा और बहुत वक़्त में ही कैफ़ी आज़मीफ़िल्मी दुनिया के मारूफ नग्मा निगार की हैसियत से मशहूर हो गए |

          सुबोध लाल’ ‘कैफ़ी आज़मीके फ़िल्मी गीतों का तजकिरा करते हुए लिखते हैं कि

          कैफ़ी की फ़िल्मी या गैर फ़िल्मी शायरी किसी दर्ज़ाबंदी की मोहताज़ नहीं हैं| लिहाजा यह कहा जाए कि उनकी फ़िल्मी शायरी में बाग्याना अदा, शेलेन्द्र की नग्मगीं, मजरूह का तगज्जुल, गुलज़ार की तजुर्बा पसंदी सभी शामिल हैं और साथ ही साथ उनका अपना खुसूसी रंग | तो ये शायद कुछ लफ़्ज़ों में उनके फ़िल्मी शायरी के फन को बाँधने की एक नीम कामयाब कोशिश ही कही जा सकती है |” (कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)

          कैफ़ी आज़मीके कुछ मशहूर गीत

1-    वक़्त ने क्या किया हसीं सितम (कागज़ के फूल- 1959)

2-   जाने क्या धोंद्ती रहती हैं ये आँखे मेरी (शोला और शबनम-1962)

3-   अब तुम्हारे वहले वतन साथियों (हकीकत-1964)

4-   कुछ दिल ने कहा, कुछ भी नहीं ( अनुपमा-1966)

5-   ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं (हीर रांझा- 1970)

6-   मीलों न तुम तो हम घबराये, मिलो तो आँख चुराएं (हीर रांझा-1970)

7-    तुम जो मिल गए हो (हँसते अखम- 1973)

8-   दुरी न रहे कोई आज इतने करीब आजाओ (कर्तव्य- 1979)

9-   झुकी झुकी सी नज़र (अर्थ- 1982)

10-  जलता है बदन (रज़िया सुल्ताना- 1983)

कैफ़ी आज़मीने अपना हाथ जगन्नाथ, छोटी बहु, टूटे खिलोने, नैना, एक अलग मौसम, दीदारे यार ,

लक्ष्मी, डाक घर, संकल्प जैसी फिल्मों के अलावा कई फिल्मों के लिए गीत लिखे | फिल्म हीर-रांझा1970 ई० में आई फिल्म 'हीर रांझा' में कैफ़ी आज़मीने कमाल ही कर दिया, उन्होंने पूरी फ़िल्म शायरी में लिखी। हिंदी फिल्म की तारिख में ऐसा कभी नहीं देखा गया |

            कैफ़ी आज़मीकी शादी 23/मई/1947 ई० को शोकात खानमसे हुई | शादी के बारे में खुद शोकात खानमलिखती हैं कि

                   निकाह में ये मुश्किल थी कह लड़का शिया और लड़की सुन्नी, निकाह के लिए दोनों काजियों की ज़रुरत थी, जिनका बुलाना मुश्किल था | जब काजी ने पूछा लकड़े का मज़हबतो बन्ने भाई मुस्कुरा कर बोले हनफी मज़हबबस निकाह हो गया | चारो तरफ से मुबारकबाद की आवाजें आने लगीं और दिलचस्प मुशायरा शुरू हो गया | जोश, मजाज़, सरदार जाफ़री, साहिर लुधयानवी, सिकंदर अली वज्द सब ने अपनी अपनी खुबसूरत ग़ज़लें सुनाईं और शादी की महफ़िल कामयाब हुई | उसी जामने में कैफ़ी की नज्मों का नया मज़्मूआ आखरी शब्छाप रहा था, सरदार जाफ़री ने शादी के तोहफ़े के टूर पर एक कापी बहुत ही खुबसूरत जिल्द में जल्दी छपवाकर लड़की को पेश किया | अन्दर सरदार जाफ़री ने लिखा था मोती के नाममेरा घरेलु नाम |

                                      ज़िन्दगी ज़हद मैं है सब्र के काबू मैं नहीं

                                      नब्ज़ हस्ती का लहू कांपते आसूं में नहीं

 

                                      उड़ने खिलने में है निकहत खमे गैसू मैं नहीं

                                      जन्नत एक और है जो मर्द के पहलू मैं नहीं

 

                                      उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे

                                      उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

                   और दुसरे सफ़ह पर लिखा था

                   शीनके नाम

                   मैं तन्हा अपने फन को आखिर शब् तक ला चूका हूँ तुम आजाओ तो सहर हो जाए |”

 (मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)

 

           कैफ़ी आज़मीके पहली बच्चे की पैदाइश 1949 ई० में हुई लेकिन बिमारी का इलाज़ न होने  सबब उसका इन्तेकाल हो गया | बच्चे की मौत और अपनी कैफियत को बयान करती हुई शोकात खानम लिखती हैं-

                             कैफ़ी रात दिन काम कर रहे थे हमारे पास एक पैसा भी नहीं था इतनी खुद्दार हूँ कि अपने माँ-बाप से कभी एक पैसा नहीं मांगा | फिर उन्ही दिनों मेरा बच्चा बीमार हो गया, मैं उसका होम्योपैथिक इलाज कराती रही जिससे कोई फायदा नहीं हुआ और बच्चा तेरह दिन की बिमारी के बाद चल बसा, टाइफाइड निमोनिया हो गया था | मेरी दुनिया में अँधेरा छा गया |..... बच्चे की याद मेरे दिल से नहीं जाती थी हर वक़्त रोती रहती थीं, उसका एक छोटा सा कुर्ता अपने पास रखती,उसे आँखों पर रख लेती | बस स्टाप पर अगर किसी औरत की गोद में एक साल का बच्चा देख लेती तो अपना बच्चा याद आ जाता और पैरों में इतनी सकत ना रहती कि कड़ी रह सकूँ |”                                (मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)

          18/सितम्बर/1950 ई० को कैफ़ी आज़मी और शोकात खानम के यहाँ दुसरे बच्चे की विलादत हुई जिसको आज फ़िल्मी दुनिया में शाबाना आज़मीके नाम से जाना जाता है |

          कैफ़ी आज़मीकी कलाम व शायरी की कई किताबें शाए हुईं

1-    झंकार  (1943 ई०)

2-   आखिर शब् (1947 ई०)

3-   साहिर लुधयानवी (1948 ई०)

4-   आवारा सज्दे (1973 ई०)

5-   मेरी आवाज़ सुनो (फ़िल्मी गीत -1974 ई०)

6-   इब्लीस की मजलिस शूरा (1977 ई०)

7-    सरमाया (कुल इन्तिखाब)

 कैफ़ी आज़मीने मसनवी , कई फ़िल्मी कहानियां, डरामें व दीगर मज़ामीन भी तहरीर किये जो कि मुख्तलिफ मैगजीन व रिसालों , अख़बारों, में शाए होते रहे |

          कैफ़ी आज़मी को उनकी सलाहियत व खिदमात के पेशे नज़र मरकज़ी हुकूमत व  रियासती हुकूमतों, समाजी व अदबी तंजीमों ने तमाम एजाजों व इनाम से नवाज़ा है

1-    पदमश्री       (फ़िल्मी व अदबी खिदमात के लिए )

2-   फिल्म फेयर अवार्ड    (बेहतरीन मंज़रनामे के लिए )

3-   फिल्म फेयर अवार्ड     (बेहतरीन डाइलॉग के लिए )

4-   फिल्म फिर अवार्ड      (बेहतरीन कहानी के लिए)

5-   प्रेसिडेंट अवार्ड  (बेहतरीन कहानीकार )

6-   नेशनल इन्ट्रीगेशन प्रेसिडेंट अवार्ड  (फिल्म सात हिन्दुस्तानी गीत के लिए )

7-    सोवियत लीडर नेहरु अवार्ड

8-   लोटस अवार्ड

9-   महाराष्ट्र उर्दू एकेडमी का खुसूसी इनाम (आवारा सज्दे के लिए )

10- उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी का अदबी इनाम (आवारा सज्दे के लिए )

11-  महाराष्ट्र सरकार का गौरव अवार्ड (अदबी खिदमात के लिए)

12- हिंदी-उर्दू साहित्य अवार्ड तंजीम उत्तर प्रदेश का इनाम

13- हुकमत उत्तर प्रदेश का इनाम (अदबी और समाजी खिदमात के लिए)

14- महाराष्ट्र सरकार का ज्ञानेश्वर अवार्ड

15- कुल हिन्द मीर ताकि मीर अवार्ड

16- दिल्ली उर्दू एकेडमी का मिलेनियम अवार्ड

17-  आपकी कायनात देहली (महानामा) की तरफ से लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड

 9/फ़रवरी/1973 ई० को कैफ़ी आज़मीपर फालिज का असर हुआ जिसके सबब आपके एक हाथ ने काम करना बंद कर दिया था  तकरीबन्न 2 साल तक आप बेहद कमज़ोर  और परेशान रहे | शोकत आज़मी तहरीर करती हैं कि

           कभी कभी बहुत दुःख भरे लहजे में कहते थे हैं मैं अपना दूसरा हाथ कभी भी इस्तेमाल न कर सकूँगा, मैं बच्चों की तरह समझाने लगती हूँ, एक रात जब आप सो कर उठेंगे तो हैरान रह जायेंगे क्यूंकि आपका दूसरा हाथ काम करने लगेगा और फिज्योथैरेपी से जान न छुड़ाओ उसे रोज़ करते रहो |” (मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)

धीरे धीरे फालिज का असर कम होता गया और कैफ़ी आज़मी’ 1978ई० में अपने गाँव मिजवाचले गए और अपने गाँव में काश्तकारी व बगात में मसरूफ रहने लगे | बगात के सिलसिले में आप लखनऊ गए और वापसी के वक़्त लखनऊ स्टेशन की सीढ़ियों से फिसल कर ज़ख़्मी हो गए और पैर की हड्डी बुरी तरह टूट गई | एक तवील वक़्त तककैफ़ी आज़मीबिस्तर पर ही रहे चलने फिरने से माजूर हो गए थे | रफ्ता रफ्ता सेहत में तवानाई और ताक़त आती गई लेकिन कैफ़ी आज़मीअब अमूमन खामोश रहने लगे और आपका बायाँ हाथ ने काम करना बिलकुल बंद कर दिया था |

          2002 ई० में कैफ़ी आज़मीकी तबियत बेहद खराब हो जाती है, मुंबई के लोक हस्पताल में आपको इलाज़ के लिए दाखिल किया गया कुछ माह इलाज़ चलता रहा लेकिन आपके सेहत में कोई इजाफा न हुआ और 10/मई/2002 ई० को हिन्दुस्तान के अज़ीम तरक्कीपसंद शायर ने दुनिया को अलविदा कह दिया |

कैफ़ी आज़मीके इन्तेकाल की खबर सुनकर हिन्दुस्तान के सदर के०आर०नारायणव वज़ीरे आज़म हिन्दुस्तान अटल बिहारी बाजपाईव दिगर सियासी, समाजी रहनुमाओं और अदीब व शायरों ने ग़म का इज़हार किया |

 

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