"अंगारे" कहानी -5
फिर यह हंगामा
सज्जाद ज़हीर
मज़हब दरअसल बड़ी चीज़
है। तकलीफ़ में, मुसीबत में, नाकामी के मौक़े पर, जब हमारी अक़्ल काम नहीं करती और हमारे होश गायब होते हैं, जब हम एक ज़ख़्मी जानवर
की तरह चारों तरफ़ डरी हुई लाचार नज़रें दौड़ाते हैं, उस वक़्त वो कौन सी ताक़त है जो हमारे डूबते हुए दिल
को सहारा देती है ? मज़हब ! और मज़हब की जड़ ईमान है । डर और ईमान।
मज़हब की परिभाषा शब्दों में नहीं की जा सकती। उसे हम अक़्ल के ज़ोर से नहीं समझ सकते।
ये एक अंदरूनी कैफ़ीयत है...
“क्या कहा? अंदरूनी कैफ़ीयत ?”
“ये कोई हँसने की बात नहीं, मज़हब एक आसमानी रौशनी है जिसकी किरणों में हम कायनात का जलवा
देखते हैं। ये एक अंदरूनी...”
“ख़ुदा के वास्ते कुछ और बातें कीजीए, आपको इस वक़्त मेरी अंदरूनी कैफ़ियत का अंदाज़ा नहीं
मालूम होता। मेरे पेट में तेज़ दर्द हो रहा है इस वक़्त मुझे आसमानी रौशनी की ज़रूरत बिल्कुल
नहीं। मुझे जुलाब...”
एक-बार रात को मैं नॉवेल पढ़ने में मगन था कि चुपके से कोई मेरे कमरे में आया और
मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने जो आँख उठाई तो क्या देखा कि मियाँ इब्लीस[1] खड़े हैं।
मैंने कहा, “इब्लीस साहिब ! इस वक़्त आख़िर आपका मतलब मेरे यहाँ आने से क्या है, में एक बहुत दिलचस्प
नॉवेल पढ़ने में व्यस्त हूँ, ख़्वाह-मख़ाह आप फिर चाहते हैं कि मैं किताब बंद कर के आपसे
मज़हबी बहस शुरू करूँ। मेरे ख़याल से नॉवेल पढ़ना मज़हबी बातों में सर खपाने से बेहतर है।
आपने जो मेरे दिल में बेचैनी करने की कोशिश की है मैं बिलकुल भी उसका शिकार नहीं होना
चाहता।”
मेरे इस कहने पर वो इब्लीस जैसा शख़्स मुड़ा और कमरे के बाहर जाने लगा। इस तरह
एक फ़रिश्ते के साथ बर्ताव करने पर मेरा दिल मुझे कुछ-कुछ डांट फटकार करने लगा ही था
कि वो शख़्स अचानक से मेरी तरफ़ पल्टा और अफ़सोस भरी आवाज़ में मुझसे कहा, “मैं इब्लीस नहीं
जिब्राईल[2] हूँ। मैं तुम पर इस का आरोप नहीं
रखना चाहता कि तुमने मुझे इब्लीस कहा। इब्लीस भी आख़िर मेरे ही जैसा ऐसा एक फ़रिश्ता
है। तुम तो क्या तुमसे बड़े लोगों ने अक्सर मुझे इब्लीस समझ कर घर से निकाल दिया। पैगम्बरों[3] तक से ये ग़लती हो चुकी है। बात
ये है कि मैं अच्छाई का फ़रिश्ता हूँ। मेरी सूरत से पाकी टपकती है। अगर इब्लीस की तरह
मैं हसीन होता तो शायद लोग मुझसे इस तरह का बर्ताव न करते। और भला आप ये कैसे समझे
कि मैं आपसे मज़हबी बहस करना चाहता हूँ ? मुझे बहस से कोई मतलब नहीं। हर बहस चूँकि वो
अक़्ल और दलील पर बनी होती है शैतानी चीज़ है। मज़हब की जड़ ईमान है अगर तुम्हारी जड़ मज़बूत
है तो फिर ख़ुदा ख़ुद मज़हबी बहस में तुम्हारा साथ देता है और जब ख़ुदा की मदद
शामिल हो तो फिर अक़्ल से क्या वास्ता ? मज़हब दरअसल बड़ी अच्छी चीज़ है...”
अक़्ल और ईमान, आसमान और ज़मीं, इन्सान और फ़रिश्ता, ख़ुदा और शैतान, मैं क्या सोच रहा हूँ ? सूखी हुई बंज़र ज़मीन बरसात में बारिश से ताज़ा हो जाती है और उसमें से अनोखी तरह की ख़ुशगवार,सोंधी ख़ुशबू आने लगती है। अकाल में लोग भूके मरते हैं। बूढ़े, बच्चे, जवान, औरत, मर्द आँखों में हलक़े पड़े हुए, चेहरे पीले, हड्डियां, पसलियाँ झुर्री पड़ी हुई खाल को चीर कर मालूम होता है बाहर निकली पड़ रही हैं। भूक की तकलीफ़, हैज़ा की बीमारी, उल्टी, दस्त, मक्खियाँ, मौत कोई लाशों को गाड़ने या जलाने वाला नहीं, लाशें सड़ती हैं और उनमें से अजीब तरह की बदबू आने लगती है।
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सज्जाद ज़हीर |
एक अमीर के यहाँ एक विदेशी कुत्ता पला था। उसका नाम था शेरा। उसके लिए रोज़ की
ख़ुराक तय थी और वो आम तौर से घर के आँगन के अंदर ही रहा करता था। कभी -कभी बाज़ारी कुतियों
के पीछे अलबत्ता भागता था। जब वो बड़ा हुआ तब उसकी ये आ’दत भी बढ़ी। मुहल्ले में और जो दुबले, पतले, बाज़ारी कुत्ते थे वो
जब शेरा को आता देखते तो अपनी कुतियों को छोड़कर भाग जाते और दूर से खड़े हो कर शेरा
पर भौंकते। शेरा कुतियों के साथ रहता और उन कुत्तों की तरफ़ देखा भी न करता। थोड़े दिनों
के बाद अचानक ऐसा हुआ कि बड़ा भारी शेरा से लगभग दुगने शरीर का बाज़ारी कुत्ता उस मुहल्ले
में कहीं से आ गया और वो शेरा से लड़ने पर तैयार हो गया। दो एक बार शेरा से और उससे
झड़प भी हुई। ऐसे मौक़ा पर कुतियाँ तो सब भाग जातीं और सारे बाज़ारी कुत्ते अपने गिरोह
के नेता के साथ मिलकर शेरा पर हमला करते। धीरे-धीरे शेरा का अपने घर से बाहर निकलना
ही न सिर्फ बंद हो गया बल्कि बाज़ारी कुत्तों का गिरोह उल्टे शेरा पर हमला करने के लिए
उसके आँगन के अंदर आने लगा। जब इस प्रकार का हमला होता तो घर में कुत्तों के भूँकने
की वजह से कान पड़ी आवाज़ न सुनाई देती। नौकर वग़ैरा जो क़रीब होते वो शेरा को छुड़ाने के
लिए लपकते और बड़ी बुरी मुश्किलों से शेरा को उस के दुश्मनों से बचाते। शेरा कई- कई
बार ज़ख़्मी हुआ और अब घर के अंदर छुपा बैठा रहता। बाज़ारी कुत्तों की पूरी जीत हो गई।
एक दिन सवेरे शेरा अपने घर के आँगन में फिर रहा था कि बाहर वाले कुत्तों के गिरोह ने
बड़े कुत्ते की अगुवाई में उस पर हमला किया। घर में सब सो रहे थे। मगर गुल और शोर इतना
हुआ कि लोग जाग उठे। रईस साहिब जिनका कुत्ता था अंदर से बाहर निकल पड़े और इस हंगामे
को देखकर अपनी बंदूक़ उठा लाए। इन्होंने बड़े बाज़ारी कुत्ते पर निशाना लगा कर फ़ायर किया
और उस का वहीं ख़ात्मा कर दिया, बाक़ी कुत्ते भाग गए। शेरा ज़ख़्मी हुआ अपने मालिक के क़दमों पर
आकर लोटने लगा। कमीने, ज़लील बाज़ारी कुत्तों की कमर टूट गई। शरीफ़, ख़ानदानी, विलायती कुत्ता सलामत रह गया और फिर इस तरह से मज़े
करने लगा।
इन्सानियत किसे कहते हैं ?
गोमती हज़ारों बरस से यूँ ही बहती चली जा रही है। बाढ़ आती हैं, आस-पास की आबादी को
मिटा कर नदी फिर उसी तरह से धीरे-धीरे बहने लगती है। नदी के किनारे एक जगह एक छोटा
सा मंदिर है। उस मंदिर की नीव मालूम होता है बालू पर थी। बालू को नदी के धारे ने काट
दिया। मंदिर का एक हिस्सा झुक गया। अब मंदिर तिरछा हो गया। मगर अभी तक टिका हुआ
है। थोड़े दिन बाद बिल्कुल गिर जाएगा। थोड़े दिन तक खण्डहर का निशान रहेगा। उसके बाद
मंदिर जहाँ पहले था वहाँ से नदी बहने लगेगी।
आज त्योहार है, नहान का दिन है। सुब्ह-सवेरे से नदी के किनारे के मंदिरों और घाटों पर भीड़ है।
लोग मंत्र पढ़ते हैं और डुबकियाँ लेते जाते हैं। नदी का पानी मैला मा’लूम होता है। लहरों पर गेंदे और
गुलाब के फूलों की पंखुड़ियाँ ऊपर नीचे होती हुई बहती चली जा रही हैं। कहीं- कहीं किनारों
पर जा कर बहुत सी फूल पत्तियाँ, छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े, पिए हुए सिगरेट, औरतों के कपड़ों से गिरी हुई सुनहरी चमकियाँ, मरी हुई मछली और इसी
तरह की और चीज़ें इकट्ठे हो कर रुक गई हैं।
गोमती नदी, शेरा कुत्ता, मुर्दा मछली, आसमान पर बहते हुए बादल और ज़मीन पर सड़ती हुई लाशें, उन पर ख़ुदा अपनी रहमत का साया किए हुए है।
कल्लू मेहतर के जवान लड़के को साँप ने डस लिया। बरसात का मौसम था, वो आँगन में ज़मीन पर
सो रहा था। सुबह होते हुए, उस की बाईं कुहनी के पास साँप ने काटा। उसको ख़बर तक नहीं हुई।
पाँच बजे सुबह को वो उठा, हाथ पर उसने निशान देखे, कुछ तकलीफ़ महसूस की। अपनी माँ को उसने ये निशान
दिखाए और ये सोच करके कि किसी कीड़े-मकोड़े के काटने का निशान है, वो झाड़ू देने में लीन
हो गया। कल्लू मेहतर और उसके सारे बीवी-बच्चे एक घर में नौकर थे। उनकी पंद्रह रुपया
महीना तनख़्वाह थी, रहने के लिए नौकरों की एक कोठरी थी जिसमें कल्लू, उस की बीवी, उसकी दो लड़कियाँ और उसका लड़का, सब के सब रहते थे।
पंद्रह रुपया महीना, एक कोठरी और कभी-कभी बचा हुआ जूठा खाना और फटे-पुराने कपड़े, कल्लू को जिन साहिब
के यहाँ ये सब कुछ मिलता था वो उनको ख़ुदा से कम नहीं समझता था। कल्लू का लड़का दस-पंद्रह
मिनट से ज़्यादा काम न कर सका, उसका सर घूमने लगा और उसके बदन भर में सरसराहाट महसूस होने लगी।
छः बजते-बजते वो पलंग पर गिर कर एड़ीयाँ रगड़ने लगा। उसके मुँह से झाग निकलने लगे, उसकी आँखें पथरा गईं।
ज़हर उसके रगों और ख़ून में घुल चुका था और मौत ने उसे अपने बेदर्द शिकंजे में जकड़ लिया।
उसके माँ-बाप ने रोना शुरू किया। सारे घर में ख़बर फेल गई कि कल्लू के लड़के को साँप
ने डस लिया।सब ने दवा व ईलाज की राय दी। कल्लू के मालिक के लड़के बहुत ज़्यादा हमदर्द
और रहम दिल थे। वो ख़ुद कल्लू की कोठरी तक आए और कल्लू के लड़के को ख़ुद उन्होंने अपने
हाथ से छुआ और दवा पिलाई, मगर कल्लू की अँधेरी कोठरी इतनी ज़्यादा गंदी थी और उसमें इतनी
बदबू थी कि उसने से चार- पाँच मिनट भी न ठहरा गया। रहम दिली और हमदर्दी की आख़िर एक
हद होती है। वो वापस आए अच्छी तरह नहाए, कपड़े बदल कर रूमाल में इतर लगा कर सूँघा तब जाकर उनकी तबीअत
ठीक हुई।
रहा कल्लू का लड़का वो बदनसीब एक बजे के क़रीब मर गया। उस कोठरी से रोने-पीटने की
आवाज़ रात तक आती रही, जिसकी वजह से सारे घर में उदासी छा गई। अंतिम संस्कार के लिए कल्लू ने दस रुपये
पेशगी लिये। रात को आठ-नौ बजे के क़रीब कल्लू के लड़के की लाश उठ गई।
हामिद साहिब अपनी रिश्ते की बहन सुल्ताना पर आशिक़ थे। हामिद साहिब ने सुल्ताना
बेगम को सिर्फ दूर से देखा है। एक दो शब्दों के सिवा कभी आपस में उन से देर तक बातें
नहीं हुईं। मगर इश्क़ की बिजली के लिए शब्दों की गुफ़्तगु की, जान-पहचान की क्या
ज़रूरत ? हामिद साहब दिल ही दिल में जला करते, झूम-झूम कर शे’र पढ़ते, और कभी-कभी जब इश्क़ की अत्यधिक भावना होती तो ग़ज़ल
लिख डालते और रात को नदी के किनारे जाकर चुप बैठते और ठंडी साँसें भरते। सिर्फ उनके
दो गहरे दोस्त हामिद के इश्क़ का राज़ जानते थे। इस तरह अपने दिल की आग छुपाने पर वो
हामिद की तारीफ़ किया करते थे।
शरीफ़ों का तरीका यही है-
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा
करना
शेवा ए इश्क़ नहीं हुस्न को रुस्वा करना !
हामिद हफ़्ते में एक बार से ज़्यादा शायद ही अपने चचा के घर जाते रहे हों। मगर
जाने के एक दिन पहले से उनकी बेचैनी की हद न रहती। शायर ने ठीक कहा है:-
वादा ए वस्ल चूँ शवद नज़दीक
आतिश ए शौक़ तेज़ तर गर्दद [4]
उनके दोस्त जब हामिद की ये हालत देखते तो मुस्कुराते और यह का शे’र पढ़ते-
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब
कि लगाए न
लगे और बुझाए न
बने
हामिद साहिब शर्माते, हँसते, रुठते होते, घबराते, दिल पर हाथ रखते और अपने दोस्तों से गुज़ारिश करते कि उन्हें
छेड़ें नहीं।
सुल्ताना बेगम शरीफ़ज़ादी ठहरीं। इश्क़ या मुहब्बत के अल्फ़ाज़, इज़्ज़तदार बहू-बेटीयों
की ज़बान तक आना ठीक नहीं हैं। उन्होंने अपने हामिद भाई से आँख मिलाकर शायद ही कभी बात
की हो मगर जब वो हामिद भाई को अपने सामने घबराते और झेंपते देखतीं तो दिल ही दिल में
सोचतीं कि शायद इश्क़ इसी चीज़ का नाम तो नहीं ! हामिद बेचारे को पाक मुहब्बत थी इसलिए
अगर कभी सुल्ताना बेगम और वो कमरे में चंद मिनट के लिए अकेले रह भी जाते तो सिवाए इसके
कि वो डरते-डरते बहुत दबी हुई एक ठंडी सांस लें और किसी ‘नाजायज़’ तरीक़े से इज़हार ए इश्क़ न करते, एक वक़्त तक इश्क़ का सिलसिला यूँ
ही जारी रहा।
जब हामिद साहिब की नौकरी हो गई तो उनके दिल में शादी का ख़्याल आया। उनके माँ-बाप
को भी इस की फ़िक्र हुई। सुल्ताना बेगम की माँ भी अपनी बच्ची के लिए वर की तलाश में
थीं। हामिद साहिब ने बड़ी मुश्किल से अपनी माँ को इस बात से आगाह करवा दिया कि वो सुल्ताना
बेगम से शादी करना चाहते हैं।
शादी का पैग़ाम भेजा गया। मगर सुल्ताना बेगम की माँ को हामिद मियाँ की माँ की सूरत
से नफ़रत थी। हमेशा से उन दो औरतों में झगड़ा और दुश्मनी थी हामिद मियाँ की माँ अगर
अच्छे से अच्छा कपड़ा और ज़ेवर भी पहने होतीं तब भी सुल्ताना बेगम की माँ, उन पर कोई न कोई तंज़
ज़रूर कसतीं, और उनके लिबास में कुछ ना कुछ ऐब ज़रूर निकालतीं। अगर एक के पास कोई ज़ेवर होता, जो दूसरे के पास न
होता तो दूसरी बेगम ज़रूर अगली मुलाक़ात के मौक़े’ पर उससे बेहतर उसी तरह का ज़ेवर पहने होतीं। एक
घर से निकाले हुए नोकर को दूसरे घर में ज़रूर
जगह मिलती।
हामिद मियाँ के घर से जब शादी का पैग़ाम आया तो सुल्ताना बेगम की माँ ने हँस कर
बात टाल दी। उन्होंने कोई साफ़ जवाब नहीं दिया। वो चारों तरफ़ नज़र दौड़ा रही थीं और चाहती
थीं कि पहले सुल्ताना बेगम के लिए कोई वर ढूंढ लें उसके बाद हामिद मियाँ के रिश्ते
को साफ़-साफ़ इंकार कर दें। हामिद मियाँ की माँ इन चालों को ख़ूब समझती थीं, उनके ग़ुस्सा की कोई
हद न थी। जब ख़ानदान में अच्छा ख़ासा, सही होनहार, कमाता-खाता, नेक लड़का मौजूद हो तो सुल्ताना की घर से बाहर शादी करने का क्या
मतलब ?
मगर हामिद का इश्क़ सच्चा था, उन्होंने अपनी माँ से कहा कि वो कोशिश किए जाएँ। यूँ ही एक वक़्त
गुज़र गया। कुछ ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि सुल्ताना बेगम की माँ को अपनी लड़की के लिए
इस बीच में कोई अच्छा वर भी नहीं मिला। सुल्ताना बेगम की उम्र उन्नीस बरस की हो गई।
उनकी माँ अब ज़्यादा इंतिज़ार न कर सकीं, आख़िरकार वो राज़ी हो गईं।
हामिद मियाँ की सुल्ताना बेगम से शादी हो गई। उनकी शादी हुए दो बरस से कुछ ज़्यादा
हो गए। आशिक़ की मुराद पूरी हुई। ख़ुदा के मेहरबानी से घर में दो बच्चे भी हैं।
एक ग़रीब औरत एक अँधेरी कोठरी में एक टूटी हुई झिलंगी चारपाई पर पड़ी कराह रही है।
दर्द की तकलीफ़ इतनी है कि सांस नहीं ली जाती। रात का वक़्त है और सर्दी का मौसम। औरत
के बच्चा होने वाला है।
एक अँधेरी रात में एक ग़रीब औरत, सबसे छुप कर चुपके से अपने ग़रीब आशिक़ से मिलने गई। जब उस औरत
को मौक़ा मिलता वो उस मर्द से मिलने जाती।
इश्क़ की लज़्ज़त, मौत की तकलीफ़। ये पहाड़ जिनकी चोटियाँ नीले आसमान से जा कर टकराती हैं क्यों खड़े
हैं ? समुंदर की लहरें।
घड़ी की टिक-टिक और पानी की एक-एक बूँद के टपकने की आवाज़ और ख़ामोश, और दिल की धड़कन, मुहब्बत की एक घड़ी, रगों में ख़ून के दौड़ने
की आवाज़ सुनाई देती है। आँखें बातें करती हैं और सुनती हैं। सूअर, पाजी, उल्लू, हरामज़ादा... गालियाँ
और सख़्त तेज़-धूप, जो ख़ाल को मालूम होता है झुलसा कर हड्डी तक पिघला देगी। एक ज़मींदार और उनका किसान, जिसके पास लगान देने
के रुपये नहीं। लड़के ने माँ को दूसरा ख़त भेजा है जिसमें उनसे ज़िद के साथ रुपये मांगे
हैं, वकालत के इम्तिहान
की फ़ीस चार दिन के अंदर जानी ज़रूर है। माँ अपने लड़के की शिक्षा के लिए किसान से रुपये
वसूल कर रही है।
चारों तरफ़ साँप रेंग रहे हैं। काले-काले, लंबे फन उठा-उठा कर झूम रहे हैं। उनको कौन मारे
? किस चीज़ से मारें ?
बरसात में बादल की गरज और पहाड़ों की तन्हाई में एक झरने के बहने की आवाज़, लहलहाते हुए हरे-भरे
खेत और बंदूक़ के फ़ायर की तड़ाकेदार आवाज़, उसके बाद एक ज़ख़्मी सारस की दर्दनाक क़ायँ, क़ायँ।
[1] शैतान। यहूदी, ईसाई और मुस्लिम मतानुसार इब्लीस भी पहले एक
फ़रिश्ता हुआ करता था, लेकिन ईश्वर का आदेश न मानने पर शैतान बना दिया गया।
[2] एक फ़रिश्ते का नाम।
[3] ईशदूत
[4] फारसी भाषा की एक कहवत जिसका अर्थ है – “मिलन का वादा जितना
करीब आता है, लालसा की आग उतनी ही तेज़ होने लगी है”
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