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Khilafat o Mulukiyat 2-2/ ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत 2-2

 


किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत

लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी

देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद

 

   अध्याय -2

  भाग-2 (अंतिम)

इस्लाम के उसूल-ए-हुक्मरानी

       6-      इताअत फिल मारूफ

छटा काइदा जिस पर यह रियासत काइम की गई थी, यह था कह हुकूमत की इताअत सिर्फ मारूफ में वाजिब है मआसियत में किसी को इताअत का हक नहीं पहुंचता दूसरे अल्फाज़ में इस इस काइदे का मतलब यह है कह हुकूमत और हुक्काम का सिर्फ वोही हुक्म उनके मतहतों और राईय्यत के लिए वाजिब इताअत है कानून के मुताबिक हो कानून के खिलाफ हुक्म देने का न उन्हें हक पहुँचता है और ना किसी को उसकी इताअत करनी चाहिए कुरआन मजीद में खुद रसूल अल्लाह (स०) की बैत को भी इताअत फिल मारूफ के साथ मशरूत किया गया है हालाँकि आप की तरफ से किसी मआसियत का हुक्म सादिर होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता –


  और यह कह वह किसी अम्र मारूफ में आपकी नाफ़रमानी न करेंगी

रसूल अल्लाह (स०) का इरशाद है –


 “ एक मुसलमान पर अपने अमीर की समआ और इताअत फ़र्ज़ है ख्वाह उसका हुक्म उसे पसंद हो या न पसंद, ता-वक्ति कि उसे मआसियत का हुक्म न दिया जाए और जब मआसियत का हुक्म दिया जाए तो फिर कोई समआ व इताअत नहीं[1]

      “ अल्लाह की नाफ़रमानी में कोई इताअत नहीं है इताअत सिर्फ मारूफ में है [2]

“यह मज़मून नबी (स०) के ब-कसरत इरशादात में मुख्तलिफ तरीकों से नकल हुआ है कहीं आप ने फ़रमाया ‘जो अल्लाह की नाफ़रमानी करे, उसके लिए कोई इताअत नहीं’ कहीं आप ने फ़रमाया ‘खालिक की नाफ़रमानी में किसी मखलूक के लिए इताअत नहीं’ कहीं फ़रमाया ‘हुक्काम में से जो कोई तुम्हें किसी मआसियत का हुक्म दे उस की इताअत न करो’[3]

हजरत अबु बकर (रजि०) अपने एक खुतबे में फरमाते हैं –


“जो शख्स मुहम्मद (स०) की उम्मत के मामलात में किसी मामले का ज़िम्मेदार बनाया गया और फिर उसने लोगों के दरमियान किताब अल्लाह के मुताबिक़ काम न किया उस पर अल्लाह की लानत[4]

इसी बिना पर खलीफा होने के बाद उन्होंने अपनी पहली तक़रीर में यह एलान कर दिया था कह –

“मेरी इताअत करो जब तक मैं अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करता हूँ, और जब मैं अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करूँ तो मेरी कोई इताअत तुम पर नहीं है[5]

हज़रत अली (रजि०) फरमाते हैं –


“ मुसलामानों के फरमा-रवां पर फ़र्ज़ है कह वो अल्लाह के नाजिल कर्दा कानून के मुताबिक़ फैसला करे और अमानत अदा करे फिर जब इस तरह काम कर रहा हो तो लोगों पर यह फ़र्ज़ है कह उसकी सुनें और मानें और जब उन्हें पुकारा जाए तो लब्बेक कहें[6]

एक मर्तबा हजरत अली (रजि०) ने अपने खुतबे में एलान फ़रमाया –


“ मैं अल्लाह की फरमाबरदारी करते हुए तुम को जो हुक्म दूँ उसकी इताअत तुम पर फ़र्ज़ है, ख्वाह वह हुक्म तुम को पसंद हो या नापसंद और जो हुक्म मैं तुम्हें अल्लाह की नाफ़रमानी करते हुए दूँ तो मआसियत में किसी के लिए इताअत नहीं इताअत सिर्फ मारूफ में है, इताअत सिर्फ मारूफ में है , इताअत सिर्फ मारूफ में है [7]

 

7-      इक्तिदार की तलब ओ हिर्स का ममनू होना

यह काइदा भी इस रियासत के कवाइद में से था कह हुकूमत के जिम्मेदाराना मनासिब के लिए अमूमन् और खिलाफत के लिए खुसूसन् वो लोग सबसे ज्यादा गैर मोज़ू हैं जो खुद अहद हासिल करने के तालिब हों और उसके लिए कोशिश करें

कुरआन मजीद में अल्लाह ताला का इरशाद है –


“ वो आखिरत का घर हम उन लोगों को देंगे जो ज़मीन में न अपनी बड़ाई के तालिब होते हैं और न फसाद  बरपा करना चाहते हैं

नबी (स०) का इरशाद है –


“बा-खुदा हम अपनी इस हुकूमत का मंसब किसी इसे शख्स को नहीं देते जो इसका तालिब हो या इसका हरीस हो[8]

“ तुम में से बढ़कर खाईन हमारे नज़दीक वो है जो उसे खुद तलब करे[9]

“हम अपनी हुकूमत में किसी इसे शख्स को आमिल नहीं बनाते जो इसकी ख्वाइश करे[10]

(अब्दुल रहमान बिन समूरह से हुज़ूर ने फ़रमाया) ऐ अब्दुल रहमान बिन समूरह अमारत की दरख्वास्त न करो, क्यूँकि अगर वो तुम्हें मांगे पर दी गई तो खुदा की तरफ से तुम को उसी के हवाले कर दिया जायेगा और अगर व तुम्हें बे-मांगे मिले तो खुदा की तरफ से तुम को उसका हक अदा करने में मदद की जाएगी[11]

8-      रियासत का मकसद-ए-वुजूद

इस रियासत में हुक्मरान और उसकी हुकूमत का अव्वलीन फ़रीज़ा यह करार दिया गया था कह इस्लामी निजाम-ए- ज़िंदगी को किसी रद्दो बदल के बगैर जूं का तूं कायम करे , और इस्लाम के मे`यार-ए- अखलाक़ के मुताबिक भलाइयों को फरोग दे  और बुराइयों को मिटाए कुरआन मजीद में इस रियासत का मकसदे वजूद यह बयान किया गया है कह –


“ यह वो लोग हैं जिन्हें हम ज़मीन में इक्तिदार बख्शें तो वो नमाज़ काइम करेंगे और ज़कात देंगे और नैकी का हुक्म देंगे और बदी से रोकेंगे

और यह ही कुरआन की रू से उम्मत-ए-मुस्लिमा का मकसद-ए-वुजूद भी है –


“ और इस तरह हमने तुम को एक बीच की उम्मत बना दिया ताकि तुम लोगों पर गवाह हो और रसूल तुम पर गवाह


“ तुम वो बेहतरीन उम्मत हो जिसे लोगों की इस्लाह व हिदायत के लिए निकाला गया है तुम नैकी का हुक्म देते हो और बदी से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान लाते हो

अलावा-बरीं जिसका काम मुहम्मद (स०) और आप से पहले के तमाम अंबिया मामूर थे वह कुरआन मजीद की रू से यह था कह “ दीन को काइम करो और उसमे मुतफर्रिक न हो जाओ” गैर मुस्लिम दुनिया के मुकाबले में आप (स०) की सारी ज़द ओ जहद  सिर्फ इस गरज के लिए थी कह  “दीन पूरा का पूरा सिर्फ अल्लाह के लिए हो जाए” और तमाम अंबियाँ की उम्मतों की तरह आप की उम्मत के लिए भी अल्लाह ताला का हुक्म ये था कह-  “वो यकसू होकर अल्लाह की बंदगी करें, अपने दीन को इसी के लिए ख़ास करते हैं” इस लिए आप (स०) की काइम कर्दा रियासत का अस्ल काम यही था कह दीन के पूरे निजाम को काइम करे, और उसके अंदर कोई ऐसी आमेज़िश न होने दे जो मुस्लिम मुआशरे में दो-रंगी पैदा करने वाली हो इस के आखरी नुक्ते के बारे में नबी (स०) ने अपने असहाब और जाँनशींनियों को सख्ती के साथ मुतनब्बे फरमा दिया कह –

      “ जो शख्स हमारे इस दीन में कोई ऐसी बात निकाले जो इस की जिंस से ना हो उस की बात मरदूद है[12]

“खबरदार निराली बातों से बचना, क्यूँकि हर निराली बात बिदअत है, और हर बात बिदअत गुमराही[13]

“जिस किसी ने बिदअत निकालने वाली की तौकीर की उसने इस्लाम ओ मुनहदम करने में मदद दी[14]

इस सिलसिले में आप (स०) का ये इरशाद भी हमें ये मिलता है कह तीन आदमी खुदा को सबसे ज्याद न पसंद हैं , और उन में से एक वो शख्स है जो “इस्लाम में जाहिल्यत का कोई तरीका चलाना चाहे[15]

 

9- अम्र-बिल-मा'रूफ़ व नहयी अनल-मुनकिर का हक और फ़र्ज़

इस रियासत के कवाद में से आखरी कवाइद जो इस को सही रास्ते पर काइम रखने का जामिन था यह था कह मुस्लिम मुआशरे के हर फर्द का न सिर्फ ये हक है बल्कि यह उसका फ़र्ज़ भी है कह कलमा-ए-हक कहे, नैकी और भलाई की हिमायत करे, और मुआशरे या मुमालिकत में जहाँ भी गलत और नारवा काम होते नज़र आयें उनको रोकने में अपनी इम्कानी हद तक पूरी कोशिश सर्फ़ कर दें कुरआन मजीद की हिदायत इस बाब में यह है –

“ नेकी और तक़वे में तआउन करो और गुनाह और ज़ियादती में तआउन न करो

ऐ लोगों ! जो ईमान लाए हो अल्लाह से डरो और दुरुस्त बात कहो 

“ ऐ लोगों ! जो ईमान लाए हो, इंसाफ पर कायम रहने वाले और अल्लाह के लिए गवाही देने वाले बनो, ख्वाह तुम्हारी गवाही खुद तुम्हारे अपने खिलाफ या तुम्हारे वालिदेन या करीबी रिश्तेदारों के खिलाफ पड़े

“ मुनाफ़िक़ मर्द और औरतें एक थेली के चट्टे-बट्टे हैं, वह बुराई का हुक्म देते और भलाई से रोकते हैं ..... और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक दूसरे के साथी हैं, वह भलाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं

कुरआन में एहल-ए-ईमान की इम्तियाज़ी सिफत यह बयान की गई है कह वह –

“ नेकी का हुक्म देने वाले, बदी से मना करने वाले और अल्लाह के हुदूद की हिफाज़त करने वाले हैं

नबी (स०) का इरशाद इस मामले में यह है –

“तुम में से जो शख्स कोई बुराई देखे उसे चाहिए कह उसको हाथ से बदल दे अगर ऐसा न कर सके तो ज़बान से रोके, अगर यह भी न कर सके तो दिल से (बुरा समझने और रोकने की ख्वाइश रखे ) और यह ईमान का जईफ तरीन दर्ज़ा है[16]

“ फिर उन के बाद ना-लाइक लोग उनकी जगह आयेंगे, कहेंगे वो बातें जो करेंगे नहीं और करेंगे वो काम जिका हुक्म नहीं दिया गया है पस जो उन के खिलाफ हाथ से जिहाद करे वो मोमिन है, और जो उनके खिलाफ ज़बान से जिहाद करे वो मोमिन है, और जो उन के खिलाफ दिल से जिहाद करे वो मोमिन है, और इससे कमतर ईमान का ज़र्रह बराबर भी कोई दर्ज़ा नहीं है[17] 

“सबसे अफज़ल जिहाद ज़ालिम हुक्मरान के सामने इन्साफ की (या हक) की बात कहना है[18]

“लोगों जब ज़ालिम को देखें और उस के साथ हाथ न पकड़ें तो बईद नहीं कह अल्लाह उन पर अज़ाब-ए- आम भेजेगा[19]

“ मेरे बाद कुछ लोग हुक्मरान होने वाले हैं जो उन के झूट में उन की ता`ईद करे और उन के ज़ुल्म में उन की मदद करे वो मुझ से नहीं और मैं उससे नहीं[20]

“ अनकरीब तुम पर इसे लोग हाकिम होंगे जिनके हाथ में तुम्हारी रोज़ी होगी वो तुमसे बात करेंगे तो झूट बोलेंगे और काम करेंगे तो बुरे काम करेंगे वो तुम से उस वक़्त तक राज़ी न होंगे जब तक तुम उनकी बुराइयों की तारीफ और उन के झूट की तस्दीक न करो पस तुम उनके सामने हक पेश करो जब तक वो उसे गवारा करें फिर जब वो उससे तज़ावुज़ करें, तो जो शख्स इस पर क़त्ल किया जाए वो शहीद है[21]

“ जिसने किसी हाकिम को राज़ी करने के लिए वो बात की जो उसके रब को नाराज कर दे वो अल्लह के दीन से निकल गया[22]

जारी है .................अध्याय-3, भाग-1



[1] बुखारी, किताबुल अहकाम, बाब 4, मुलिम, किताबुल अमारा, बाब 8 | अबु दाऊद, किताबुल जिहाद, बाब 95 | नसाई, किताबुल बिया, बाब 33 | इब्ने माज़ा,अबवाब अल जिहाद, बाब 40    

 [2] बुखारी, किताबुल अमारा, बाब 8| अबु दाऊद, किताबुल जिहाद, बाब 95 | नसाई किताबुल बिईया, बाब 33

[3] कन्जुल अमाल जि०6,अहादीस नं०293,294,295,296,299,301

[4] कंजल अमाल, जि०5,ह०5-25)

[5] कन्जुल अमाल, जि०5, हदीस 2282 | एक दूसरी रिवायत में हज़रात अबु बकर के अलफ़ाज़ यह हैं : ‘अगर मैं अल्लाह की नाफ़रमानी करूँ तो तुम मेरी नाफ़रमानी करो’ (कन्जुल अमाल, जि०5,हदीस 3330)

[6] कंजुल अमाल, जि०5,ह०3125)

[7] कंजुल अमाल, जि०5,ह०2587

[8] बुखारी, किताबुल अहकाम, बाब 7 | मुस्लिम, किताबुल अमारा, बाब 3

[9] अबु दाऊद, किताबुल अमारा,न बाब 2

[10] कन्जुल अमाल, जि०6,ह०206

[11] कन्जुल अमाल, जि०6,ह०69 | इस मुकाम पर किसी को यह शुबा ना होगा कह अगर यह इस्लाम का उसूल है तो फिर हज़रत युसूफ ने मिस्र के बादशाह से हुकूमत का मंसब क्यूँ माँगा था | दरअस्ल हज़रत युसूफ किसी मुसलमान मुल्क और इस्लामी हुकूमत में नहीं बलकह एक काफिर मुल्क और काफिर हुकोमत में थे | वहां एक खास नफ्सियाती मौके पर उन्होंने महसूस किया कह इस वक़्त अगर में बादशाह हुकूमत का बुलन्दतरीन मंसब तलब करूँ तो वो मुझे मिल सकता है और उस के ज़रिये से मैं इस मुल्क में खुदा का दीन फैलाने के लिए रास्ता निकाल सकता हूँ | लेकिन अगर में तलब-ऐ-इक्तेदार से बाज़ रहूँ तो इस काफिर कौम की हिदायत के लिए जो नादिर मौका मुझे मिल रहा हैं वो हाथ से निकल जायेंगा | यह एक खास सूरते हाल थी जिस पर इस्लाम का आम कायदा चस्पा नहीं होता |

[12] मश्कात, बाबुल एत्साम बअलकिताब व सुन्नाह

[13] मश्कात, बाबुल एत्साम बअलकिताब व सुन्नाह

[14] मश्कात, बाबुल एत्साम बअलकिताब व सुन्नाह

[15] मश्कात, बाबुल एत्साम बअलकिताब व सुन्नाह

 [16] मुस्लिम, किताबुल ईमान, बाब 20 |तिरमिज़ी,अब्वाबुल फितन,बाब 12 | अबु दाऊद, किताबुल मलाहुम, बाब 17 |इब्ने माज़ा, अब्वाबुल फितन, बाब 20

[17] मुस्लिम, किताबुल ईमान, बाब 20

[18] अबु दाऊद, किताबुल मलाहुम, बाब 17 | तिरमिज़ी, किताबुल फितन, बाब 12 |नसाई, किताबुल बाइया, बाब 36, | इब्ने माज़ा अब्वाबुल फितन, बाब 20

[19] अबु दाऊद, किताबुल मलाहुम, बाब 17| तिरमिज़ी, किताबुल फितन, बाब 12

[20] नसाई, किताबुल बाइया, बाब 34-35

[21] कन्जुल अमाल, जि०6, ह०297

[22] कन्जुल अमाल, जि०6, ह०309

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