प्लेग और क्वारंटीन !
उर्दू कहानी – राजिंदर सिंह बेदी
हिंदी अनुवाद- फ़रीद अहमद
हिमालय के पांव में लेटे हुए मैदानों पर फैल कर हर चीज
को धुंधला बना देने वाले कोहरे की तरह ‘प्लेग’ के भय ने चारों ओर अपना प्रभुत्त्व
स्थापित कर लिया था । शहर का बच्चा-बच्चा उसका नाम सुनकर कांप जाता था ।
‘प्लेग’ तो भयजनक था ही, मगर ‘क्वारंटीन’ उससे भी अधिक
भयजनक था । लोग ‘प्लेग’ से उतने व्याकुल नहीं थे जितने ‘क्वारंटीन’ से, और यही
कारण था कि स्वास्थ्य सुरक्षा विभाग ने नागरिकों को चूहों से बचने
के अनुदेश के लिए जो मानव आकार के विज्ञापन छपवाकर द्वारों, सड़कों
तथा मार्गों पर लगाया था, उस पर “न चूहा न
प्लेग” के शीर्षक में बढ़ोतरी करते हुए “न प्लेग न
चूहा, न क्वारंटीन” लिखा था ।
‘क्वारंटीन’
से संबंधित लोगों का भय सही था । एक चिकित्सक की भूमिका से मेरा सुझाव अत्यंत
प्रमाणित है और मैं दावे से कहता हूं कि
जितनी मृत्यु शहर में ‘क्वारंटीन’ से
हुईं , उतनी ‘प्लेग’ से न हुईं । यद्यपि ‘क्वारंटीन’ कोई रोग नहीं, अपितु वह
उस बड़े क्षेत्र का नाम है जिसमें हवा में फैली हुई महामारी के दिनों में
रोगियों को स्वस्थ लोगों से कानूनन पृथक करके ला डालते हैं ,
ताकि रोग बढ़ने न पाए ।
यद्यपि ‘क्वारंटीन’
में चिकित्सकों तथा परिचारिकाओं की व्यवस्था थी , फिर भी रोगियों
की बड़ी संख्या में वहां आ जाने से प्रत्येक रोगी पर अलग-अलग ध्यान
नहीं दिया जा सकता था । उनके अपने
सम्बन्धियों के आसपास न होने से मैं ने बहुत से रोगियों को हताश होते
देखा । कई तो अपने आस-पास के लोगों को एक के बाद एक मरते देखकर मरने से
पहले ही मर गए। कई बार तो ऐसा हुआ कि कोई साधारण बीमार व्यक्ति वहां के
वातावरण में ही फैले जीवाणुओं से मर गया । और मृतकों की अत्यधिक
संख्या के कारण उनके अंतिम क्रिया-क्रम
भी ‘क्वारंटीन’ के
विशेष प्रकार के नियमों से संपन्न की जाती , अर्थात सैकड़ों
लाशों को मुर्दा कुत्तों की लाशों की तरह घसीट कर एक बड़े ढेर के रूप में इकठ्ठा किया जाता
व किसी भी धार्मिक रीति रिवाज़ के बिना पेट्रोल डालकर जला दिया जाता ।
शाम के समय उससे धधकते हुए आग के शोलों को देखकर अन्य रोगी यही विचार
करते कि समस्त संसार जल रहा है ।
‘क्वारंटीन’
इसलिए भी अधिक मौतों का कारण बनी कि रोगी के लक्षण प्रकट होते ही रोगी के संबंधी उसे छुपाने लगते, ताकि कहीं
रोगी को बलपूर्वक ‘क्वारंटीन’
में न ले जाएं । क्यूंकि प्रत्येक चिकित्सक को आदेशित किया गया था कि रोगी की सूचना
पाते ही शीघ्र सूचित करें, इसलिए लोग चिकित्सकों से इलाज भी न
कराते और किसी घर के महामारी के चपेट में होने का सिर्फ उसी समय
पता चलता, जब ह्रदय विदारक चीत्कार सहित एक मृतक देह उस घर से निकलती ।
उन दिनों मैं ‘क्वारंटीन’
में एक चिकित्सक के रूप में कार्यरत था । ‘प्लेग’ का भय मेरे ह्रदय
व मस्तिक पर छाया हुआ था । शाम को घर आने पर मैं एक समय तक ‘कारबोलिक
साबुन’ से हाथ धोता रहता और जीवाणु-नाशक घोल से गलाला करता या पेट को जला
देने वाली गर्म कॉफी या ब्रांडी पी लेता । यद्यपि उससे मुझे नींद उड़ने और
आंखों के चुंधियाने की समस्या उत्पन्न हो गई । कई बार रोग के भय से मैं ने
मतली करवाने वाली दवाइयां खाकर अपनी मनोस्थिति को सही किया । जब अधिक गर्म
कॉफी या ब्रांडी पीने से पेट में उबाल उत्पन्न होता तो भाप के गोले उठ-उठकर
मस्तिक को जाते, तो मैं प्राय: किसी बेहौश हुए व्यक्ति के सामान तरह-तरह
के संदेह से ग्रस्त हो जाता । गले में जरा भी खराश होती तो मैं समझता कि
‘प्लेग’ के लक्षण प्रकट होने वाले हैं …. उफ ! मैं भी इस जानलेवा रोग से
ग्रस्त हो जाऊंगा….प्लेग ! और फिर…. ‘क्वारंटीन’ !
उन्हीं दिनों में नया-ईसाई बना विलियम भागू स्वच्छक जो मेरी
गली में सफाई किया करता था, मेरे पास आया
और बोला: “बाबू जी, गजब हो गया, आज एम्बुलेंस
इसी क्षेत्र से बीस और एक रोगी ले गई है.”
“इक्कीस ? एम्बुलेंस
में….?” आश्चर्य व्यक्त करते हुए मैंने ये शब्द बोले ।
“जी, हां… पूरे बीस
और एक… कोनटीन (‘क्वारंटीन’)
ले जाएंगे… आहह्ह ! वो नि:स्सहाय कभी वापस न आएंगे ?”
पूछने पर मुझे ज्ञात हुआ कि भागू रात के तीन बजे उठता
है । आध पाव शराब चढ़ा लेता है । और आदेशानुसार कमेटी की गलियों में और
नालियों में चूना फैलाना प्रारम्भ कर देता है । ताकि
जीवाणु फैलने न पाएं. भागू ने मुझे बताया कि उसके तीन बजे उठने का यह भी
आशय है कि बाजार में पड़ी हुई लाशों को इकठ्ठा करे और उस क्षेत्र में जहां
वह कार्य करता है, उन लोगों के छोटे-मोटे काम-काज करे जो रोग के भय से बाहर नहीं
निकलते। भागू तो इस रोग से जरा भी भयभीत ना था । उसका विचार था अगर
मृत्यु आई हो तो चाहे वह कहीं भी चला जाए बच नहीं सकता ।
उन दिनों जब कोई किसी के पास नहीं फटकता था, भागू सिर
और मुंह पर मुंडासा बांधे बड़ी लगन से लोगों की सेवा में जुटा हुआ
था । यद्यपि उस का ज्ञान अत्यंत सीमित था, परन्तु अनुभव
से वह एक वक्ता की तरह लोगों को रोग से बचने के उपाय बताता । साफ़-सफाई, चूना बिखेरने
और घर से बाहर न निकलने के अनुदेश देता। एक दिन मैं ने उसे लोगों को अत्यधिक
मदिरा सेवन का सुझाव देते हुए भी देखा । उस दिन जब वह मेरे पास आया तो मैं ने पूछा: “भागू
तुम्हें प्लेग से भय भी नहीं लगता ?”
“नहीं बाबू जी… बिन आई, बाल भी
बीका नहीं होगा. आप इत्ते बड़े चिकित्सक ठहरे, हजारों आपके
हाथ से ठीक हुए हैं. मगर जब मेरी आई होगी तो आपकी दवा-दारु भी कुछ असर न
करेगी….हां बाबू जी….आप बुरा न मानें. मैं ठीक और साफ-साफ
कह रहा हूं.” और वार्तालाप की दिशा परिवर्तित करते हुए बोला “कुछ
कोनटीन (क्वारंटीन)
की कहिए बाबू जी….कोनटीन (क्वारंटीन) की।”
“वहां ‘क्वारंटीन’ में हजारों रोगी आ गए
हैं । हम जहां तक संभव हो उनका उपचार करते हैं । मगर कहां तक, और मेरे
साथ कार्य करने वाले स्वयं भी अधिक समय उनके बीच रहने से
अव्यवस्थित हैं । भय से उनके गले और होंठ सूखे रहते हैं । फिर तुम्हारी
जैसे कोई रोगी के मुंह के साथ मुंह नहीं लगा लगाता, न कोई तुम्हारी तरह इतनी
जान मारता है….भागू ! भगवान तुम्हारा भला करे, जो तुम
मानवजाति की इतनी सेवा करते हो ।”
भागू ने गर्दन झुका दी और मुंडासे के एक पल्लू को मुंह
पर से हटाकर मदिरा के ताप से लाल चेहरे को दिखाते हुए बोला “बाबू जी, मैं किस
योग्य हूं, मुझसे किसी का भला हो जाए, मेरा यह व्यर्थ
शरीर किसी के काम आ जाए, इससे ज्यादा सौभाग्य
और क्या हो सकता है । बाबू जी, बड़े पादरी लाबे (रेवरेंड मोंत ल, आबे) जो
हमारे क्षेत्र में प्राय: प्रचार के लिए आया करते हैं, कहते हैं, ईश्वर
येसु-मसीह यही सिखाता है कि रोगी की सहायता में अपनी जान तक लड़ा दो….मैं समझता
हूं….”
मैं ने भागू के सहस की सराहना करना चाही, मगर
भावनाओं से बोझिल ठहर गया । उसकी आस्था और सार्थक जीवन को देखकर मेरे ह्रदय
में एक तरह की ईर्ष्या पैदा हुई । मैं ने निर्णय किया कि आज ‘क्वारंटीन’ में पूरी जतन से कार्य करके बहुत
से रोगियों को जीवित रखने का प्रयत्न करुंगा । उनको आराम पहुंचाने में अपनी
जान तक लड़ा दूंगा । लेकिन कहने और करने में बहुत अंतर होता है । ‘क्वारंटीन’ में पहुंचकर जब मैं ने
रोगियों की भयानक स्तिथि देखी और उनके मुंह से निकलने वाली सड़ी हुई गंध मेरी नाक
में पहुंची, तो मेरी आत्माकांप उठी और भागू के जैसे
कार्य करने का साहस न कर सका ।डॉ० राजिंदर सिंह बेदी
फिर भी उस दिन भागू को साथ लेकर मैं ने ‘क्वारंटीन’ में अत्यधिक कार्य
किया । जो कार्य रोगी के अधिक निकट रह कर हो सकता था, वह मैं ने
भागू से कराया और उसने बिना झिझक किया….स्वयं मैं
रोगियों से दूर-दूर ही रहता, इसलिए कि मैं मृत्य से बहुत
डरता था और उससे भी अधिक ‘क्वारंटीन’
से ।
मगर क्या भागू मृत्यु और ‘क्वारंटीन’, दोनों से
ऊपर था ?
उस दिन ‘क्वारंटीन’
में लगभग चार सौ रोगी आये और लगभग ढाई सौ अकाल के मुख में समा गए ।
यह भागू की बहादुरी का ही परिणाम था कि मैं ने बहुत से
रोगियों को निरोग किया । वह रेखाचित्र जो रोगियों के स्वस्थ में सुधार
की नवीन जानकारी के लिए मुख्य चिकित्सा अधिकारी
के कक्ष में टंगा हुआ था, उस में मेरी देख-भाल में रखे रोगियों के औसत
स्वास्थ की रेखा ऊंची चढ़ी हुई दिखाई देती थी । मैं प्रतिदिन किसी न किसी
बहाने से उस कक्ष में चला जाता और उस रेखा को शत प्रतिशत की ओर ऊपर ही ऊपर बढ़ते
देखकर दिल में प्रसन्नता का अनुभव करता ।
एक दिन मैं ने ब्रांडी का अधिक सेवन कर लिया था । मेरा
ह्रदय धक-धक करने लगा, नाड़ी घोड़े की तरह गति करने लगी और मैं एक पागल
के जैसा इधर-उधर भागने लगा। मुझे स्वयं संदेह होने लगा कि ‘प्लेग’ के
जीवाणु ने मुझ पर अपना प्रभाव कर ही दिया है और शीघ्र ही गिल्टियां मेरे गले
या रानों में निकल आएंगी । मैं एक दम चकित व व्याकुल हो गया । उस
दिन मैं ने ‘क्वारंटीन’
से भाग जाना चाहा । जितनी देर भी मैं वहां ठहरा, भय से
कांपता रहा । उस दिन मुझे भागू से मिलने का मात्र दो बार संयोग हुआ ।
दोपहर के समय मैं ने उसे एक रोगी से लिपटे हुए देखा ।
वह बड़े प्यार से उसके हाथों को थपक रहा था । रोगी में जितनी भी शक्ति
थी उसे इकठ्ठा करते हुए उसने कहा
“भाई, अल्लाह ही मालिक है, इस स्थान पर तो खुदा दुश्मन को भी न लाए, मेरी दो
लड़कियां….”
भागू ने उसकी बात को काटते हुए कहा: “ईश्वर
येसु-मसीह का कृतज्ञता करो भाई….तुम तो अच्छे दिखाई देते हो.”
“हां, भाई, कृपा है
ऊपर वाले की…पहले से कुछ अच्छा ही हूं. अगर मैं ‘क्वारंटीन’….”
अभी यह शब्द उसके मुंह में ही थे कि उसकी नाड़ी खिंच
गईं, उसके मुंह से कफ जारी हुआ, आंखें पथरा गईं, कई झटके आए और वह रोगी, जो एक
क्षण पहले सबको और खासकर अपने आपको अच्छा दिखाई दे रहा था, सदेव के
लिए शांत हो गया । भागू उसकी मौत पर अदृश्य खून के आंसू बहाने लगा और कौन
उसकी मौत पर आंसू बहाता कोई उसका वहां होता तो अपने मार्मिक
विलाप की दहाड़ से धरती और आकाश को फाड़कर रख देता, एक भागू ही था जो
सबका सम्बन्धी था । सबके लिए उसके ह्रदय में पीड़ा थी । वह सबके वास्ते रोता और कुढ़ता था….एक दिन उसने अपने
प्रभु येसु-मसीह के समक्ष बड़ी विनम्रता से अपने आपको समस्त मानवजाति के
पाप के प्रायश्चित के के रूप में प्रस्तुत किया ।
उसी दिन शाम के समय भागू मेरे पास दौड़ा-दौड़ा आया ।
सांस फूली हुई थी और वह पीड़ायुक्त स्वर से कराह रहा था बोला “बाबू जी….यह ‘क्वारंटीन’ तो नरक है, नरक,
पादरी लाबे इसी तरह के नरक का चित्रण करता था….”
मैं ने कहा: “हां भाई, यह नर्क
से भी बढ़कर है….मैं तो यहां से भाग निकलने का उपाय
सोच रहा हूं….मेरी मनोदशा अत्यंत हीन है । ”
“बाबू जी इससे
अधिक और क्या बात हो सकती है…आज एक रोगी जो रोग के भय से बेहोश हो गया था, उसे मृत
समझकर किसी ने लाशों के ढेर में जा डाला । जब पेट्रोल छिड़का गया और आग ने
सबको अपनी लपेट में ले लिया, तो मैं ने उसे शोलों
में हाथ पांव मरते देखा । मैं ने कूद कर उसे उठा लिया, बाबू जी! वह बहुत
बुरी तरह झुलसा गया था….उसे बचाते हुए मेरा दायां बाजू बिलकुल जल गया
है.”
मैं ने भागू का बांह देखा,उस पर पीली-पीली चर्बी नजर आ
रही थी. मैं उसे देखते हुए काँप उठा । मैं ने पूछा “क्या वह
आदमी बच गया है, फिर….?”“बाबू जी… वह कोई सभी व्यक्ति था, जिसकी सज्जनता
से दुनिया कोई लाभ न उठा सकी, इतनी पीड़ा व कष्ट की स्तिथि में उसने
अपना झुलसा हुआ चेहरा ऊपर उठाया और अपनी दुर्बल सी दृष्टि से मेरी आँखों में देखते
हुए मेरा आभार व्यक्त किया । ”
“और बाबू जी”, भागू ने अपनी बात को निरंतर रखते हुए कहा, “इसके कुछ देर बाद वह
इतना तड़पा, इतना तड़पा कि आज तक मैं ने किसी रोगी को इस तरह जान तोड़ते
नहीं देखा होगा…इसके बाद वह मर गया । उसे बचा कर मैं ने उसे और भी दुःख सहने
के लिए जीवित रखा और फिर वह बचा भी नहीं , अब इन ही जले हुए बाँहों से मैं
पुनः उसे उसी ढेर में फेंक आया हूं….।”
उसके बाद भागू कुछ बोल न सका, पीड़ा की टीसों के मध्य
उसने रुकते-रुकते कहा “आप जानते हैं….वह किस रोग से
मारा ? प्लेग से नहीं….कोनटीन(क्वारंटीन) से….कोनटीन(क्वारंटीन) से !”
यद्यपि इस नर्क जैसा वातावरण जो कभी समाप्त न होने
जैसा था और प्रकोप-ग्रस्त व्यक्तियों की आकाश को
चीर देने वाली चीत्कार रात भर कानों में आती रहतीं । माँओं की आह व
रुदान, बहनों का विलाप, पत्नियों का
शोक और बच्चों की चीख-पुकार से शहर के उस वातावरण में जिसमें
अर्ध-रात्रि के समय उल्लू भी बोलने से
हिचकिचाते थे, एक भयंकर दृश्य उत्पन्न हो जाता था । जब स्वस्थ
व्यक्तियों के सीनों पर मनों बोझ रहता था, तो उन
व्यक्तियों की स्तिथि क्या होगी जो घरों पर रोग ग्रस्त पड़े थे और जिन्हें किसी
पीलिया-ग्रस्त की तरह द्वारों और दीवारों से निराशा की पीली
झलक सताती थी और फिर ‘क्वारंटीन’
के रोगी , जिन्हें निराशा की सीमा पार कर
यमराज साक्षात् दिखाई दे रहा था, वह जीवन से यूं चिमटे हुए थे, जैसे किसी
तूफान में कोई किसी वृक्ष की चोटी से चिमटा हुआ हो, और पानी की
तेज लहरें ऊपर चढ़ती हुईं उस चोटी को भी डुबो देना चाहती हैं ।
मैं उस दिन रोग के के संदेह के कारण से ‘क्वारंटीन’ भी न गया । किसी
आवश्यक कार्य का बहाना कर दिया । यद्यपि मुझे दृढ़ मस्तिक व्यथा होती रही….क्यूंकि
यह अत्यधिक संभव था कि मेरी सहायत से किसी रोगी को लाभ पहुंच जाता । मगर उस भय ने जो मेरे
ह्रदय व मस्तिक पर छाया हुआ था, मेरे पैर को अपनी जंजीर से जकड़ रखा ।शाम को समय
मुझे सूचना मिली कि आज शाम ‘क्वारंटीन’
में पांच सौ के लगभग और नए रोगी पहुंचे हैं ।
मैं अभी-अभी पेट को जला देने वाली गर्म कॉफी पीकर सोने
ही वाला था कि दरवाजे पर भागू की पुकार आई । सेवक ने दरवाजा खोला तो
भागू हांपता हुआ अंदर आया । बोला “बाबू जी….मेरी पत्नी रोग
ग्रस्त हो गई….उसके गले में गिल्टियां निकल आई हैं….भगवान के
लिए उसे बचाओ….उसकी छाती पर डेढ़ साल का बच्चा दूध पीता है, वह भी मर
जाएगा ।”
सहानुभूति के विपरीत मैं ने क्रोधित
होकर कहा “इससे पहले क्यों न आ सके….क्या रोग
अभी-अभी आरम्भ हुआ है ?”
“सुबह साधारण
ज्वर था…जब मैं कोनटीन (क्वारंटीन) गया….”
“अच्छा…वह घर में
अस्वस्थ थी, और फिर भी तुम ‘क्वारंटीन’
गए ?”
“जी बाबू जी….” भागू ने कांपते हुए कहा. वह बिलकुल साधारण सी अस्वस्थ थी. मैं ने
समझा कि शायद दूध चढ़ गया है….इसके सिवा और कोई पीड़ा नहीं….और फिर मेरे दोनों
भाई घर पर ही थे….और सैकड़ों रोगी कोनटीन (क्वारंटीन) में असहाय….”
“तुम तो अपनी
सीमा से अधिक कृपालुता,दयालुता से जीवाणु को घर ले ही आए न, मैं न
तुमसे कहता था कि रोगियों के इतना निकट मत रहा करो…देखो मैं आज इसी कारण
से वहां नहीं गया । इसमें सब तुम्हारा दोष है, अब मैं क्या कर सकता हूं, तुम
जैसे साहसी व्यक्ति को अपने साहस का स्वाद चखना ही चाहिए, जहां शहर में
सैकड़ों रोगी पड़े हैं….”
भागू ने प्रार्थना के हाव-भाव में निवेदन करते हुए कहा, “मगर ईश्वर येसु-मसीह….”
“चलो हटो…बड़े आए
कहीं के….तुमने जान बूझकर आग में हाथ डाला, अब इसका दण्ड मैं
भुगतूं ? बलिदान ऐसे थोड़े ही होता है ? मैं इतनी रात
गए तुम्हारी कुछ सहायता नहीं कर सकता….”
“मगर पादरी लाबे….”
“चलो…जाओ…पादरी ल, आबे के
कुछ होते….”
भागू सिर झुकाए वहां से चला गया । उसके आधे घंटे के
बाद जब मेरा क्रोध शांत हुआ तो मैं अपनी चेष्टा पर लज्जित हुआ , मैं इतना समझदार
कहां का था जो बाद में लज्जावान होता। निसंदेह, मेरे लिए
यही सबसे बड़ा दण्ड था कि अपने स्वाभिमान को कुचलकर भागू से अपने व्यवहार के लिए
क्षमा मांगते हुए उसकी पत्नी का इलाज पूरी लगन से करूं । मैं ने जल्दी-जल्दी
कपड़े पहने और दौड़ा-दौड़ा भागू के घर पहुंचा….वहां
पहुंचने पर मैं ने देखा कि भागू के दोनों छोटे भाई अपनी भावज को चारपाई पर
लिटाए हुए बाहर निकाल रहे थे….
मैं ने भागू को संबोधित करते हुए पूछा, “इसे कहां ले जा रहे हो ?”
भागू ने धीरे से उत्तर दिया, “कोनटीन (क्वारंटीन) में….”
“तो क्या अब
तुम्हारी समझ में ‘क्वारंटीन’
नर्क नहीं…भागू…?”
“आपने जो आने से
मना कर दिया, बाबू जी…और मार्ग ही क्या था । मेरा विचार था, वहां
चिकित्सक की सहायता मिल जाएगी और एनी रोगियों के साथ इसका भी ध्यान रखूंगा ।”
“यहां रख दो
चारपाई…अभी तक तुम्हारे मस्तिक से अन्य रोगियों का विचार नहीं
गया…? मुर्ख….”
चारपाई अंदर रख दी गई और मेरे पास जो अचूक दवा थी, मैं ने
भागू की पत्नी को पिलाई और फिर अपने अदृश्य प्रतिद्वंदी से सामना
करने लगा । भागू की पत्नी ने आंखें खोल दीं ।
भागू ने एक कांपती हुई आवाज में कहा, “आपका उपकार समस्त आयु न भूलूंगा, बाबू जी.”
मैं ने कहा, “मुझे अपने पिछले आचरण पर अत्यंत खेद है
भागू….ईश्वर तुम्हें तुम्हारी सेवा का बदला
तुम्हारी पत्नी के ठीक हो जाने के रुप में दे.”
उसी समय मैं ने अपने छुपे हुए प्रतिद्वंदी को अपना
अंतिम हथियार प्रयोग करते देखा । भागू की पत्नी के होंठ फड़कने लगे,
नाड़ी जो कि मेरे हाथ में थी मद्धिम होकर कंधे की तरफ सरकने लगी । मेरे
छुपे प्रतिद्वंदी ने जिसकी साधारणत:विजय होती थी, एक पुनः मुझे
पराजित कर दिया, मैं ने संकोच से सिर झुकाते हुए कहा, “भागू ! अभागी भागू ! तुम्हें अपने बलिदान का यह विचित्र प्रतिकार मिला है….आह!”
भागू फूट-फूटकर रोने लगा ।
वह दृश्य कितना मर्मभेदी था, जबकि भागू ने
अपने बिलबिलाते हुए बच्चे को उसकी मां से अलग कर दिया और मुझे
अत्यंत विनम्रता के साथ लौटा दिया ।
मेरा विचार था कि अब भागू अपनी दुनिया को अंधकारमय
जानकार किसी का विचार न करेगा….परन्तु उससे अगले दिन मैं ने उसे पहले
से अधिक रोगियों की सेवा करते देखा । उसने सैकड़ों घरों के दीप बूझने
से बचा लिया….और अपने जीवन की जरा भी चिंता न
की । मैं भी भागू का अनुसरण करते हुए कटिबद्धता
से कार्य में जुट गया । ‘क्वारंटीन’ और चिकित्सालय के कार्य की सम्पति के
उपरांत में शहर के निर्धन वर्ग के व्यक्तियों के घर, जो कि नालों के
किनारे स्थित होने के कारण से, या गंदगी के कारण रोग के उत्पन्न होने
के स्थान थे, की ओर ध्यान दिया ।
अब वातावरण रोग के जीवाणु से स्वच्छ हो चुका था । शहर
को पूरी तरह धो डाला गया थ । चूहों का कहीं चिन्ह दिखाई न देता था ।
सारे शहर में मात्र एक-आध केस होता जिसकी ओर शीघ्र ध्यान दिए जाने
पर रोग के बढ़ने का भय शेष न रहा ।
शहर में व्यापार ने अपना सामान्य रुप ले लिया, स्कूल, कॉलिज और
कार्यलय खुलने लगे ।
एक बात जो मैं ने प्रबलता से अनुभव की, वह यह थी
कि बाजार में जाते समय चारों दिशाओं से उंगलियां मुझी पर उठतीं, लोग
उपकार दृष्टि से मेरी ओर देखते । समाचारपत्र में प्रशंसनीय वक्तव्यों के साथ
मेरा चित्र छापा । इस चारों ओर से प्रशंसा और साधुवाद की बौछार ने मेरे ह्रदय
में कुछ अभिमान सा उत्पन्न किया ।
अन्तः एक विशाल समारोह हुआ जिसमें शहर के बड़े-बड़े
धनि और चिकित्सक निमंत्रित किए गए , नगरपालिका से संबंधित मामलों के
मंत्री ने इसकी अध्यक्षता की । मैं अध्यक्ष महोदय के बगल में बिठाया
गया, क्योंकि वह कार्यक्रम वास्तव में
मेरे ही सम्मान में आयोजित किया गया था । हारों के बोझ से मेरी
गर्दन झुकी जाती थी और मेरा व्यक्तित्व अधिक प्रतिष्ठित प्रतीत होता था ।
गौरवान्वित दृष्टि से मैं कभी इधर देखता कभी उधर….”मानवजाति की
पूरी निष्ठा के साथ सेवा-धर्म निभाने के प्रतिफल में कमेटी, कृतज्ञता
की भावना से ओतप्रोत एक हजार रूपए की थैली बतौर एक छोटी सी राशि मुझे भेंट
कर रही थी ।”
जितने भी व्यक्ति उपस्थित थे, सब ने साधारणत:
मेरे सहयोगियों और विशेषकर मेरी प्रशंसा की और कहा कि पिछले प्रकोप में
जितने जीवन मेरे कठिन परिश्रम से बचे हैं, उनकी गिनती
संभव नहीं । मैं ने न दिन को दिन देखा, न रात को रात, अपने जीवन को
देश का प्राण और अपने धन को समाज की पूंजी समझा और रोग के गढ़ में पहुंच
कर मरते हुए रोगियों को स्वास्थ्य बूटी पिलायी !
मंत्री महोदय ने मेज के बाईं ओर खड़े हो कर एक पतली सी
छड़ी हाथ में ली और उपस्थित का ध्यान उस काली रेखा की ओर आकर्षित किया जो दीवार पर
टंगे रेखाचित्र में रोग के दिनों में निरोग की ओर प्रत्येक क्षण गिरते-पड़ते बढ़ी जा
रही थी । अंत में उन्होंने रेखाचित्र में वह दिन भी दिखाया जब मेरी देख-रेख
में चव्वन (54) रोगी रखे गए और वह सब के सब स्वस्थ हो गए । अर्थात परिणाम शत
प्रतिशत सफल रहा और वह काली रेखा अपने शीर्ष पर पहुंच गई ।
इसके बाद मंत्री जी ने अपने भाषण में मेरे सहस को बहुत
कुछ सराहा और कहा कि लोग यह जानकर अत्यधिक हर्षित होंगे कि बख्शी जी
अपनी सेवा के प्रतिफल में लेफ्टिनेंट कर्नल बनाए जा रहे हैं ।
कक्ष प्रशंसा और वाहवाह के स्वरों और भरपूर तालियों से
गूंज उठा ।
उन्हीं तालियों के शोर के मध्य मैं ने अभिमान से भरा
अपना सिर उठाया और अध्यक्ष महोदय और दूसरे गणमान्य व्यक्तियों का आभार
व्यक्त करते हुए एक लंबा-चौड़ा भाषण दिया, जिसमें और
बातों के अतिरिक्त मैं ने बताया कि हमारे ध्यान के केंद्र न केवल चिकित्सालय और
‘क्वारंटीन’ थे, बल्कि
निर्धन वर्ग के व्यक्तियों के घर भी । वह व्यक्ति अपने बचाव की
स्थिति में बिलकुल नहीं थे और वही अधिकतर इस जानलेवा रोग से ग्रस्त हुए । मैं और
मेरे सहयोगियों ने रोग के उपज के सही स्थान को खोज कर और अपना ध्यान
रोग को जड़ से उखाड़ फेंकने में लगा दिया । ‘क्वारंटीन’ और चिकित्सालय के काम
से छुट्टी के बाद हम ने रातें उन्हीं भयानक गढ़ों में व्यतीत कीं ।
उसी दिन समारोह के बाद जब मैं एक लेफ्टिनेंट कर्नल के
अपनी गौरवान्वित गर्दन को उठाए हुए, हारों से लदा-फंदा, व्यक्तियों
का तुच्छ उपहार, एक हजार एक रूपए की भेस में जेब में डाले हुए घर
पहुंचा, तो मुझे एक ओर से धीमी सी ध्वनि सुनाई दी ।
“बाबू जी…बहुत-बहुत
बधाई हो ।”
और भागू ने बधाई देते समय वही पुराना झाड़ू करीब ही के
गंदे कुंड के एक ढकने पर रख दिया और दोनों हाथों से मुंडासा खोल
दिया । मैं भौंचक्का सा खड़ा रह गया ।
“तुम हो…? भागू भाई !” मैं ने बड़ी कठिनाई से कहा….”दुनिया तुम्हें
नहीं जानती भागू , तो न जाने….मैं तो जानता हूं । तुम्हारा येसु तो
जानता है….पादरी ल के अद्वितीय शिष्य….तुझ पर इश्वर
की कृपा हो !”
उस समय मेरा गला सूख गया । भागू की मरती हुई पत्नी और
बच्चे का चित्रण मेरी आंखों में उभर आया । हारों के भार से मेरी गर्दन
टूटती हुई प्रतीत हुई और बटुए के बोझ से मेरी जेब फटने लगी और….इतना
सम्मान प्राप्त करने के के उपरांत भी स्वयं को व्यर्थ समझता हुआ इस सम्मान देने
वाली दुनिया का शोक विलाप करने लगा !
*समाप्त*
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