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Thursday, 19 June

Khilafat o Mulukiyat 3-4/ ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत 3-4

 

किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत

लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी

देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद

 

   अध्याय -3

  भाग-4

खिलाफत-ए-राशिदा और उसकी खुसूसियात

 

5-     कानून की बालातरी

यह खुल्फ़ा अपनी जात को भी कानून से बालातर नहीं रखते थे बल्कि कानून की निगाह में अपने आप को और मम्लकत के आम शहरी (मुसलमान हों या जिम्मी )को मुसावी करार देते थे काजियों को अगरचह रईस-ए- मम्लकत होने की हैसियत से वोही मुक़र्रर करते थे, मगर एक शख्स काजी हो जाने के बाद खुद उनके खिलाफ फैसला देने में भी वैसा ही आज़ाद था जैसा किसी आम शहरी के मामले में एक मर्तबा हजरत उमर (रजि०) और हजरत उ`बी बिन कअब (रजि०) का एक मामले में इख्तिलाफ हो गया, और दोनों ने हजरत ज़ैद बिन साबित (रजि०) को हकम बनाया फिरकीन ज़ैद (रजि०) के पास हाज़िर हुए ज़ैद (रजि०) ने उठ कर हजरत उमर (रजि०) को अपनी जगह बिठाना चाहा मगर हजरत उमर (रजि०) हज़रत उबी (रजि०) के साथ बैठेफिर हजरत उबी (रजि०) ने अपना दावा पैश किया और हजरत उमर (रजि०) ने दावे से इंकार किया कायदे के मुताबिक़ हजरत ज़ैद (रजि०) को हजरत उमर (रजि०) से क़सम लेनी चाहिए थी, मगर उन्होंने उनसे कसम लेने में तअम्मुल किया हजरत उमर (रजि०) ने खुद कसम खाई , और इस मजलिस के खात्मे पर कहा “ज़ैद क़ाज़ी होने के काबिल नहीं हो सकते जब तक कह उमर (रजि०) और एक आम मुस्लमान उन के नज़दीक बराबर न हो[1]

ऐसा ही मामला हजरत अली (रजि०) का एक इसाई के साथ पैश आया जिसको उन्होंने कूफा के बाज़ार में अपनी गुमशुदा जिरह बेचते हुए देखा था उन्होंने अमीरुल मोमिनीन होने की हैसियत से अपनी ज़िरह उससे छीन नहीं ली, बल्कि काजी के पास इस्तिगासा किया और क्यूँकि वो कोई शहादत पैश न कर सके इस लिए काजी ने उनके खिलाफ फैसला दे दिया [2] 

इब्ने खल्क़ान की रिवायत है कह एक मुक़दमे में हजरत अली (रजि०) और जिम्मी फिरकीन की हैसियत से क़ाज़ी शरीह की अदालत में हाज़िर हुए काजी ने उठ कर हज़रत अली का इस्तिकबाल किया इस पर उन्होंने फ़रमाया “ यह तुम्हारी पहली बे-इंसाफी है[3]

 

6-     अस्बियतों से पाक हुकूमत

इस्लाम के इब्तिदाई दौर की एक और ख़ुसूसियात यह थी कह उस ज़माने में ठीक ठीक इस्लाम के उसूल और उसकी रूह के मुताबिक़ क़बाइली,नस्ली और वतनी अस्बियतों से बालातर होकर तमाम लोगों के  दरमियान यकसां सुलूक किया गया

 रसूल अल्लाह (स०) की वफात के बाद अरब की कबाइली अस्बियतें एक तूफ़ान की तरह उठ खड़ी  हुई थीं मदयान-ए-नबूवत के ज़हूर और इर्तिदाद की तहरीक में यही आइल सब से ज्यादा मुअस्सिर था। मुसैलिमा के एक पैरोकार का कौल था हक़ “ मैं जानता हूँ कह मुसैलिमा झूठा है , मगर रबीआ का झूठा मुज़िर के सच्चे से अच्छा है[4] एक दूसरे मुददई नबूवत तलीह के हिमायत में बनी गुत्फान के एक सरदार ने कहा था “ खुदा की कसम ! अपने हलीफ क़बीलों के एक नबी की पैरवी करना कुरैश के नबी की पैरवी से मुझ को ज्यादा महबूब है[5] खुद मदीने में जब हजरत अबुबकर (रजि०) के हाथ पर बैत हुई तो हजरत साद (रजि०) बिन उबैदा ने क़बाइली अस्बियत की बिना पर उन की खिलाफत तस्लीम करने से इज्तिनाब किया था इसी तरह हजरत अबु सुफियान (रजि०) को भी अस्बियत ही की बिना पर उन की खिलाफत नागवार हुई थी और उन्होंने हजरत अली (रजि०) से जाकर कहा था “ कुरैश के सबसे छोटे कबीले का आदमी कैसे खलीफ़ा बन गया, तुम उठने के लिए तैयार हो तो मैं वादी को सवारों और पियादों से भर दूँ मगर हज़रत अली (रजि०) ने यह जवाब देकर उनका मुंह बंद कर दिया कह “ तुम्हारी ये बात इस्लाम और अहल-ए-इस्लाम की दुश्मनी पर दलालत करती है मैं हरगिज़ नहीं चाहता कह तुम कोई सवार और पियादे लाओ मुसलमान सब एक दुसरे के खैर ख्वाह और आपस में मुहब्बत करने वाले होते हैं ख्वाह उनके दयार और इज्साम एक दुसरे से कितने ही दूर हों, अलबत्ता मुनाफिकीन एक दुसरे की काट करने वाले होते  हैं हम अबुबकर (रजि०) को उस मंसब का अहल समझते हैं अगर वो अहल न होते तो हम लोग भी उन्हें इस मंसब पर मामूर न होने देते[6]  

इस माहौल में जब अबु बकर (रजि०) और उनके बाद हजरत उमर (रजि०) ने बेलाग और गैर मुतअस्सबाना तरीके से न सिर्फ तमाम अरब काबिइल, बल्कि  गैर अरब नौं मुसलमानों के साथ भी मुंसिफाना किया, और खुद अपने खानदान और कबीले के साथ इम्तियाज़ी सुलूक करने से कतई मुज़तनब रहे तो सारी अस्बियतें दब गईं और मुसलमानों में वो बैनल-अक्वामी रूह उभर आई जिस का इस्लाम तकाज़ा करता था हजरत अबु बकर (रजि०) ने अपने ज़माने खिलाफत में अपने कबीले के किसी शख्स को हुकूमत का कोई ओहदा न दिया हजरत उमर(रजि०) ने अपनी पूरे दौरे हुकूमत में अपने कबीले के सिर्फ एक साहब को जिनका नाम नौमान बिन अदी था बसरा के करीब मईसान नामी एक छोटे से इलाके का तहसीलदार मुक़र्रर किया और उस ओहदे से भी उनको थोड़ी ही मुद्दत बाद मअजूल कर दिया [7] इस लिहाज़ से इन दोनों खुल्फा का तर्ज़े अमल दर हकीकत मिसाली था

हजरत उमर (रजि०) को अपने आखरी ज़माने में इस बात का खतरा महसूस हुआ कह कहीं उन के बाद अरब के क़बाइली अस्बियतें (जो इस्लामी तहरीक के ज़बरदस्त इंकलाबी असर के बवजूद अभी बिलकुल ख़त्म नहीं हो गईं थी ) फिर न जाग उठें और उनके नतीजे में इस्लाम के अन्दर फितने बरपा हों चुनांचह एक मर्तबा अपने इम्कानी जाँनशीनों के मुताल्लिक गुफ्तगू करते हुए उन्होंने हजरत अब्दुल्लाह (रजि०) बिन अब्बास (रजि०) से हजरत उस्मान (रजि०) के मुताल्लिक कहा “अगर मैं इन को अपना जाँनशीन तजवीज़ करूँ तो वह बनी आबि मुईत (बनि उमय्या) को  लोगों की गर्दनों पर मुसल्लत कर देंगे और वो लोगों में नाफरमानियाँ करेंगे खुदा की कसम अगर मैंने ऐसा किया तो उस्मान यही करेंगे, और अगर उस्मान ने यह किया तो लोग ज़रूर मुसीबतों का इर्तिकाब करेंगे और अवाम शोरिश बरपा कर के उस्मान को क़त्ल कर देगी[8] इसी चीज का ख्याल उनको अपनी वफात के वक़्त भी था चुनांचह आखरी वक़्त में उन्होंने हज़रत अली (रजि०), हजरत उस्मान (रजि०), हजरत साद बिन अबि वकास (रजि०) को बुला कर हर एक से कहा “ अगर मेरे बाद तुम खलीफा हो तो अपने कबीले के लोगों को अवाम की गर्दनों पर सवार न करना[9] मजीद बरआं छ: आदमियों की इन्तिखाबी शूरा के लिए उन्होंने जो हिदायत छोडीं उन में दुसरी बातों के साथ एक बात यह भी शामिल थी कह मुन्तखिब खलीफ़ा इस अम्र का पाबंद रहे कह वो अपने कबीले के साथ कोई इम्तियाज़ी बर्ताव न करेगा [10]  मगर बदकिस्मती से खलीफा सालिस हजरत उस्मान (रजि०) इस मामले में मयार-ए-मतलूब कायम न रख सके उनके औहद में बनि उमय्या को कसरत से बड़े बड़े औहदे और बैतुल माल से अतिया दिए गए और दूसरे कबीले इसे तल्खी के साथ महसूस करने लगे [11] उन के नज़दीक यह सुलह रहमी का तकाजा था, चुनांचह वो कहते थे “ उमर (रजि०) खुदा की खातिर अपने अकरबा को महरूम करते थे और मैं खुदा की खातिर अपने अकरबा को देता हूँ [12]  एक मौके पर उन्हो ने फ़रमाया “अबु बकर (रजि०) व उमर (रजि०) बैतुल माल के मामले में इस बात को पसंद करते थे कह खुद  भी  खस्ता  हाल  रहें  और  अपने  अकरबा को भी उसी हालत में  रखें मगर में इस में सुलह रहमी करना पसंद करता हूँ [13] इस का नतीजा आखिर कार वोही हुआ जिसका हजरत उमर (रजि०) को अंदेशा था उनके खिलाफ शोरिश बरपा हुई और सिर्फ यही नहीं कह वो खुद शहीद हुए बल्कि काबईलियत की दबी हुई चिंगारियां फिर से सुलग उठीं जिन का शोला खिलाफत-ए-राश्दा के निज़ाम ही को फूंक कर रहा

 

जारी है ...... अध्याय-3 भाग- 5



[1] बहिकी, अल सुननुल कुबरा, जि०10, सफ०136, दायरतुल मारूफ, हैदराबाद, तबाए अव्वल 1355

[2] हवाला मजकूर

[3] वाफ्यातुल अयान, जि०2, सफ०168 मक्ताब्तुल नुहफ़िया अल मिस्रिया, काहिरा 1948 ई०

[4] अल तबरी, जि०2, सफ० 508

[5]  अल तबरी जि०2, सफ० 487

[6] कन्जुल अमाल, जि०5,ह० 2374 | अल तबरी, जि०2, सफ० 449| इब्ने अब्दुल बर्र, अल इस्तिआब, जि०2,सफ० 689

[7] हजरत नौमान बिन आदी (रजि०) इब्तिदाई मुसलामानों मे से थे | इन का इस्लाम खुद हजरत उमर (रजि०) से भी कदीम था | हिजरत हश्बा के मौके पर जो लोग मक्का छोड़ कर हश्बा चले गए थे उन में यह और इनके वालिद हजरत अदि (रजि०) शामिल थे | हजरत उमर (रजि०) ने जब उनको मईसान का तहसीलदार मुक़र्रर कर के भेजा तो उन की बीवी उनके साथ ना गईं | वहां उन्होंने अपनी बीवी के फ़िराक में कुछ अशआर कहे जिन में शराब का सिर्फ मजमून बाँधा गया था | इस पर हजरत उमर (रजि०) ने उन्हें मअजूल कर दिया और फैसला किया कह आइन्दा उन्हें कोई ओहदा नहीं दिया जाएगा | ( अबने अब्दुल बर्रा अल इस्तियाब, जि०1, सफ० 296 दायरतुल मारूफ, हैदराबाद 1336 हि० | मुआज्ज़मुल बुल्दान, याकूत हमवी, जि० 5,सफ०242-243 , दारे सादिर , बैरूत 1957 हि० ) एक और साहब हजरत कुदामा बिन मज़ऊन को हज़रत उअमर (रजि०) के बहनोई थे, उन्हें बहरीन का आमिल मुक़र्र किया था यह मुहज़रीन हब्शा और असहाबे बदर में से थे | मगर जब उनके खिलाफ शराब नौशी की शहादत कायम हुई तो हजरत उमर (रजि०) ने उनको मअजूल कर दिया और उन पर हद जारी की (अल इस्तियाब, जि०2,सफ० 534- अल इसाबा (इब्ने हज़र, जि०3, सफ०219-220)   

[8] इब्ने अब्दुल बर्र, अल इस्तियब, जि०2, सफ०467 | बअज लोग इस जगह यह सवाल उठाते हैं कह हजरत उमर (रजि०) को इल्हाम हुआ था जिस की बिना पर उन्होंने क़सम खा कर वो बात कही जो बाद में ज्यूँ की ट्यून पैश आ गई | इस का जवाब यह है कह एक साहिबे बसीरत आदमी बसाऔकात हालात को देख कर जब उन्हें मंतकी तरीके से तरतीब देता है तो उसे आइन्दा रुनुमा होने वाले नताइज़ दो और दो चार की तरह नज़र आने लगते हैं और वो इल्हाम के बीगैर अपनी बीसीरत की ही बिना पर सही पैशनगौई कर सकता है | हजरत उमर (रजि०) यह जानते थे कह अरब में क़बाइली अस्बियत के ज़रासीम कितने गहरे उतरे हुए हैं, और उन्हें यह भी मालूम था कह 25-30 साल की तबलीगे इस्लाम ने अभी इन ज़रासीम को पूरी तरह कलआ मकआ नहीं किया है | इस बिना पर वो यकीन रखते थे कह अगर उन की और हजरत अबुबकर (रजि०) की पालिसी में ज़र्रा बराबर भी तगय्यूर किया गया और उनके जाँनशीन ने अपने कबीले के आदमियों को बड़े बड़े ओहदे देने शुरू कर दिए तो क़बाइल अस्बियतें फिर किसी के दबाये ना दब सकेंगी और वो लाज्मनखुनी इन्कलाब पर मुन्तज़ होंगी | ( इस रिवायत को शाह वाली अल्लाह साहब ने भी अज़लतुलखिफा में नक़ल किया है | मुलाहिजा हो मक्सरे अव्वल, सफ० 324 )

[9] अल तबरी, जि० 3, सफ० 264 | तबकात इब्ने साद, जि०3, सफ० 340-344 

[10] फ़तहुल बारी, जि०7, सफ० 49-50 | अल रियाज़ अल नजीरा फी मनाकुबुल अशरा लम हबुद्दीन अल तबरी, जि०2, सफ०76, मतबा हनीनिया, मिस्र 1327 हि० | इब्ने खल्दून, तकलमाए जिल्द दौम, सफ० 125 अल मत्बतुलकुबरा, मिस्र 1284 हि०

[11] तबकात इब्ने साद, जि०3, सफ० 64|  जि० 5, सफ० 36 

[12] अल तबरी, जि०3, सफ० 291

[13] कन्जुल अमाल, जि० 5, सफ० 2324 | तबकात इब्ने साद जि०3, सफ० 64   

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