सामाजिक परिवर्तन
के कारक
-फ़रीद अहमद
1. जैवकीय कारक (Biological Factors)
2. प्रौद्योगिक कारक (Technological Factors)
3. आर्थिक कारक (Economic Factors)
4. सांस्कृतिक कारक (Cultural
Factors)
1.जैवकीय कारक (Biological Factors) -
सामाजिक परिवर्तन में जैवकीय कारकों का बड़ा
महत्व है । जैवकीय कारकों का सामाजिक
परिवर्तन में प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव
पड़ता है । मानव समाज में ये जैवकीय कारक जनसंख्या के गुण दोषों के रूप में दिखाई
पड़ते है । जनसंख्या के गुण दोष जन्मदर, मृत्युदर, जनसंख्या में स्त्री
पुरुष का अनुपात, जनंसख्या में अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्तियों का अनुपात, जनसंख्या में प्रौढ़ों और वृद्धों की
संख्या, बालक बालिकाओं की संख्या, प्रति माता शिशुओं
की संख्या, विधुर और विधवाओं, तलाकशुदा की संख्या इत्यादि अनेक तत्वों से मालूम पड़ते है ।
सामाजिक परिवर्तन के “जैवकीय कारको” में मुख्य
रूप से अत्याधिक जनसंख्या के पर प्रभाव निम्नलिखित बन्दुओं से ज्ञात किये जा सकता
है –
(a)
निम्न जीवन स्तर- अत्याधिक जनसंख्या
के कारण जीवन स्तर नीचे गिरने लगता है ।
नगरीकरण तथा नगरों की जनसंख्या में बढ़ोतरी तीव्र गति से देखी जा सकती हैं , जिस
कारण खाद्यान की कीमतों में बढ़त , मिलावटी खाद्य पदार्थों का चलन , आवासीय भूमि की
कमी मुख्य है । महानगरों में अत्याधिक जनसंख्या के कारण कई परिवार एक कमरे में
रहने को मजबूर हैं । अत्याधिक जनसंख्या
के कारण गन्दी बस्तियां बढती जा रही हैं , जहाँ पर अपराध तथा अपराधिक प्रवृत्ति
बढती है व स्वास्थ तथा नैतिक चरित्र का
निम्न स्तर देखा जा सकता है ।
(b)
परिवार विघटन – अत्याधिक जनसंख्या
के कारण परिवार विघटन की समस्या तेजी से बढती जा रही है । परिवार के सदस्यों में
असंगठन तथा असंतोष पाया जाता है । परिवार के समस्त सदस्यों की आवश्यकताओं की
पूर्ति नहीं हो पाती है तथा तनाव उत्पन्न होते हैं , जिस कारण से परिवार में विघटन
होने लगता है ।
(c)
व्यक्तिगत विघटन- अत्याधिक जनसंख्या से निर्धनता , समाज का निम्न स्तर , स्वास्थ
सम्बंधित समस्याएं तथा मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती है जिससे निराशा
और हताशा बढ़ती हैं । खाद्य पदार्थों तथा वस्तुओं के अधिक मूल्यों व आय के ना बढ़ने
से व्यक्ति में तनाव व मानसिक रूप से बीमार हो जाने की स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं
। जिस के फलस्वरूप व्यक्ति का विघटन होने लगता है ।
(d)
वैवाहिक विघटन- अत्याधिक जनसंख्या से
रहन–सहन की व्यवस्था असामान्य होने लगती
हैं , परिवारिक सम्बन्ध में करुणा भाव उत्पन्न होने लगते हैं, आर्थिक समस्याएं
उत्पन्न हो जाती हैं जिस कारण से विवाह
में देरी होती है तथा कुछ तो विवाह करते ही नहीं हैं । वैचाहिक जीवन
यापन करने वाले व्यक्तियों में बढती जनसंख्या के कारण अपने परिवार के लिए उचित
आवासीय, खाद्य , शैक्षिक व्यवस्था पूर्ण ना करने के कारण पति-पत्नी के संबंधों में
दुष्ट प्रभाव पढता है । जिसके फलस्वरूप वैवाहिक जीवन में विघटन के स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
(e)
कृषि भूमि का विभाजन- अत्याधिक जनसंख्या के कारण
भूमि बंटवारा होने लगता है जिसके अंतर्गत
कृषि योग्य भूमि का भी बंटवारा होता है । परिवार के सदस्यों की अधिकता से कृषि योग्य भूमि छोटे छोटे टुकड़ों
में बट जाती हैं जिससे भूमि उपज में गिरावट आ जाती है तथा उत्पन्न खाद्यान से
परिवार का गुज़ारा नहीं हो पता है । जिस कारण से खेती की दशा अत्याधिक खराब हो जाती
है तथा कृषक का जीवन स्तर भी निम्न हो जाता है ।
(f)
सामाजिक विघटन- अत्याधिक जनसंख्या
बढ़ने से समुदायक भावना का ह्वास होने लगता है । पारिवारिक विघटन से परिवार
छिन्न-भिन्न हो जाते हैं । वैवाहिक विघटन से पति-पत्नी के सम्बन्ध टूट जाते हैं
तथा व्यक्तिगत विघटन से चिनातायें , अपराध व असामाजिक कार्यों में बढ़ोतरी होने
लगती है
जिस कारण से समाज में विघटन होने लगते हैं ।
2. प्रौद्योगिक कारक (Technological
Factors)
सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिक कारकों का
अत्याधिक प्रभाव पड़ता है । प्रौद्योगिकी के सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में ‘कार्ल
मार्क्स’ कहते हैं - ”प्रौद्योगिकी प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार करने का प्रकार
और उत्पादन की उस प्रक्रिया को प्रकट करती है जिससे वह अपना पालन करता है और इस
प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के बनने का प्रकार तथा उनसे उत्पन्न होने वाले मानसिक
प्रत्ययों के प्रकार को व्यक्त करती है ।
(a)
नगरीकरण- औद्योगीकरण और नये नये उन्नत कल- कारखानों के
स्थापित होने से नगरीकरण की प्रक्रिया का तीव्र गति से उदय हुआ । कारखानों में काम
करने वाले श्रमिक अत्याधिक रूप से ग्राम वा गाँव से आते थे जिस कारण से कारखानों
में काम करने वाले श्रमिकों ने अपने रहन-
सहन की व्यवस्था कारखानों के आस-पास ही स्थापित की । समय-समय पर रहन-सहन और जीवन
की आवश्यकतानुसार दुकाने, बाज़ार, स्वास्थ और शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएं अस्पताल,
मेडिकल, स्कूल , कॉलेज इत्यादि स्थापित होते गए । तथा धीरे-धीरे और लोग आते गए और
नगर बसते गए । जहाँ जितने बड़े कारखाने स्थापित हुए वहां उतने ही बड़े बड़े नगरों का
उदय हुआ ।
(b)
नवीन विचारधारायें तथा
आन्दोलन- औद्योगीकरण के कारण पूरे विश्व में नई-नई- विचारधाराओं का उदय हुआ तथा अनेक
सामाजिक और श्रमिक आन्दोलन हुए । भारत में साम्यवाद आन्दोलन तथा समाजवाद की
विचारधारा अधिकतर औद्यौगिक नगरों में ही अधिक देखने को मिलता है । कई प्रकार के
सामाजिक , श्रमिक तथा व्यापारिक संघ व संगठन आस्तित्व में औद्योगीकरण के कारण ही आये हैं ।
(c)
सन्देशवहन साधनों का विकास- औद्योगीकरण के कारण अनेक व्यापारों का विकास हुआ
। दूर दूर से व्यापार और व्यापारिक उद्देश्य से वार्ता-लाप करने के लिए सुगम, सुलभ
तथा तेजी से संदेशों के आदान-प्रदान करने की आवशयकता हुई,जिस कारण से
‘डाक’,’तार’,’दूरभाष’,रेडियों,’टेलिविज़न तथा समाचार पत्रों का विकास हुआ । जिससे
विभिन्न संस्कृति और विभिन्न विचारों का आदान- प्रदान भी हुआ ।
(d)
आवागमन के साधनों का विकास- औद्योगीकरण की
आवश्यकता स्वरूप सन्देशवहन के साधनों के
विकास के साथ साथ आवगमन के साधनों का भी विकास हुआ । व्यापार तथा व्यापारिक
उद्देशों की पूर्ति के लिए रेल, जहाज,
मोटरयान तथा वायुयान के अविष्कारों से उत्पादकों
को एक स्थान से दुसरे स्थान तक
आवगमन में सुविधा हुई तह साथ ही साथ विभिन्न देश, प्रदेश तथा प्रान्तों के
लोगों में परस्पर मिलना स्थापित हुआ ।
(e)
कृषि की नवीन विधियों का
विकास- औद्योगीकरण के कारण कृषि के नवीन तकनीक और उपकरणों का विकास हुआ , जिससे कृषि
उत्पादन में आश्चर्जनक बढ़ोतरी हुई । परम्परागत हल के स्थान पर ट्रेक्टर की सहायता
से खेती की जाने लगी । नये नये रसायन , खाद, बीजों के माध्यम से विभिन्न प्रकार की
खेतियों का उत्पादन किया जाने लगा । सिचाई व्यवस्था , फसल कटाई , रुपाई, निराई,
गुड़ाई इत्यादि कार्यों के लिए उपयुक्त यंत्रों की सहायता से कम परिश्रम में अधिक उत्पादन किया जाने लगा ।
(f)
स्त्रियों की स्थिति में
सुधार- औद्योगीकरण के कारण मशीनों का विकास
लगभग हर क्षेत्र में हुआ । घरेलों तथा महिला
उपयोगी यंत्रों, मशीनों के विकास से स्त्रियों के घरेलु कार्य सरलता तथा
सुगमता से होने से स्त्रियों को सामाजिक तथा व्यावसायिक कार्यों के लिए पर्याप्त
समय मिलने लगा , जिस कारण स्त्रियों सामाजिक, आर्थिक तथा व्यावसायिक रूप से
पुरुषों के साथ सामान रूप से कार्य करने में सक्षम हुई हैं ।
3. आर्थिक कारक (Economic Factors)
उत्पादन
प्रणाली से जीवन के समस्त पहलुओं पर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़े हैं । मानव सभ्यता
के आदि काल में जब मनुष्य के पास कृषि करने के लिए उपयुक्त यन्त्र और भिन्न-भिन्न वस्तुयें बनाने हेतु
मशीनें, उपकरण नहीं थे, तब मनुष्य अपने हाथों से ही समस्त कार्य किरता था। तथा समय
समय पर आवश्यकता अनुसार नई-नई वस्तुओं और उपकरणों को स्वयं ही उत्पन्न करता था ।
प्रारम्भ में मनुष्य के द्वारा पेड़,लड़की,पत्ते इत्यादि प्राकृतिक वस्तुओं को
इकट्ठा कर के अपने रहने के लिए घर मकान का निर्माण करता था । या पहाड़ों में में प्राकृतिक रूप से बनी
गुफाओं में अपनी आवश्यकता अनुसार परिवर्तन कर रहता था । खाद्य पदार्थ के लिए जंगल
में जाकर जानवरों का शिकार करता तथा अपने शरीर पर कपड़ों के रूप में जानवरों की
खाल, पेड़ के पत्तों, छालों इत्यादि से स्वयं कपड़े निर्मित कर पहनता था , स्त्री और
पुरुष सामान रूप से जीवन यापन करते थे तथा सामान रूप से कार्य करते थे । स्त्री-
परुष दोनों की स्थिति में अधिक अंतर नहीं था । इस स्थिति में कोई सामाजिक या
राजनैतिक संगठन नहीं थे और ना ही आचरण सम्बंधित विशेष नियम । परिणाम स्वरूप शक्तिशाली व्यक्ति ही कमजोर पर शासन करते थे ।
मध्यकाल में जब मनुष्य ने आविष्कार सुरूप खेती करना प्रारम्भ किया खाद्य
पदार्थ तथा अन्य वस्तुओं उत्पन्न करने लगा तो वह समूह बनाकर रहने लगा । समूह के
आस्तिव में आने के बाद कुछ सामाजिक वा समुदायक नियम-कानून बनाए गए । स्त्री की
स्थिति में अत्याधिक अंतर आने लगा, शारीरिक रूप से कमज़ोर कमज़ोर समझ कर स्त्री
पुरुष के अधीन हो गई जिस कारन से स्त्री की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आज़ादी सीमित
हो गई ।
आधुनिक युग में मशीनों ने उत्पादन की प्रणाली तथा उत्पादन के क्षेत्र में क्रान्ति उत्पन्न कर दी है । अत्याधिक
शक्तिशाली मशीने और उपकरणों से उत्पादन के
क्षेत्र में मनुष्य से अधिक मशीनों का महत्व बढ़ गया । बड़े-बड़े कारखाने स्थापित
किये गए , मशीनों और कारखानों पर अपना अधिकार रखने वाले व्यक्तियों तथा पूंजीपति
राजनितिक अधिकार स्थापित करने लगे ।
अतः उत्पादन प्रणाली की
दृष्टिगत देखा जाये तो ज्ञात होता है कि उत्पादन के नवीन तकनीकि प्रणालियों से
उत्पादन के कार्य से मानवीय तत्व निकल गया है तथा उसके स्थान पर यांत्रिक हो गया
है । जहाँ एक ओर कलात्मकता का स्तर सूक्ष्म
हुआ है वही दूसरी ओर उत्पादन में कुशलता प्राप्त हुई है । परिवर्तन सामाजिक
परिवर्तन का एक मुख्य करक है।
4. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors)
संस्कृति कृषि, शिल्प,समाज तथा मानसिक तत्वों की उपज होती है । लोगों के जीवन
जीनव का ढंग होती है । संस्कृति एक समूह का मूलधन होती है । संस्कृति एक मानवीय घटना
है तथा व्यक्ति संस्कृति की प्रतिछाया है । संस्कृति मूल्यों, भावात्मक लगाओं और
बौद्धिक अभियानों का क्षेत्र है । ये मूल्य सामाजिक परिवर्तन को भी प्रभावित करते
हैं ।
संस्कृति की परिभाषा ‘मैकाइवर तथा पेज’ के अनुसार- “संस्कृति
हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य,मनोरंजन और आनंद में पाये जाने वाले रहन-सहन एवं विचार के तरीकों
में हमारी प्रकृति की अभिवृत्ति है ।”[i]
संस्कृति को परिभाषित करते हुए
‘मजूमदार और मदन’ कहते हैं- “लोगों के जीवन जीने का ढंग ही संस्कृति है ।”
‘रेड्फिल्ड’ संस्कृति को परिभाषित करते
हुए कहते हैं कि “संस्कृति कला और उपकरनों से ज़ाहिर परम्परागत ज्ञान का वह संगठित
रूप है , जो परम्परा के द्वारा संगठित होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है
।”[ii]
संस्कृति को समाजशास्त्रीयों द्वारा मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया
गया है – 1 भौतिक संस्कृति 2
अभौतिक संस्कृति।
1-भौतिक संस्कृति – भौतिक संस्कृति के अंतर्गत मानव द्वारा निर्मित उन
समस्त भौतिक और मूर्त वस्तुओं को सम्मलित किया जाता है जिन्हें हम देख सकते हैं ,
छू सकते हैं और इन्द्रियों द्वारा जिनको हम स्पर्श कर सकते हैं । जैसे- कार, जहाज
, बर्तन , घर मकान, इत्यादि ।
2- अभौतिक संस्कृति – अभौतिक संस्कृति के अंतर्गत वो समस्त सामाजिक
तत्व सम्मलित किये जाते हैं जो अमूर्त हों
, जिनका का कोई आकर,रंग-रूप , माप-तौल नहीं होता है , इन्द्रियों द्वारा उनको
स्पर्श भी नहीं किया जा सकता हो बल्कि
महसूस कर सकते हैं । जैसे – प्रथा , विचार, धर्म, इत्यादि ।
क्लार्क विज्लर’ निम्न संस्कृति के सार्वभौमिक तत्वों को माना है-
1-
बोली
2-
पार्थिक उपकरण (भोजन,
आवागमन के साधन.
हथियार, आभूषण इत्यादि )
3-
कलाए
4-
धार्मिक रीति-रिवाज़, अंधविशवास
5-
पौराणिक और वैज्ञानिक ज्ञान
6-
विवाह, खेल-कूद , सामाजिक संस्थायें, सामाजिक नियंत्रण
7-
संपत्ति. मूल्य,विनिमय तथा व्यापार
8-
सरकार और विधि
9-
युद्ध
उपरोक्त संस्कृति के सार्वभौमिक तत्व समस्त संस्कृतियों में पाए जाते है
परन्तु इनके स्वरूप भिन्न-भिन्न समाज में
भिन्न-भिन्न पाए जाते हैं ।
संस्कृति का प्रोद्यौगिकी से अत्याधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है । संस्कृति और
प्रोद्यौगिकी परस्पर एक दुसरे को प्रभावित करते हैं । “मैकाइवर” कहते हैं
कि मनुष्य जिन उपकारों का प्रयोग करता है, केवल उनके लाभदायक होने से ही संतोष
नहीं करता है , बल्कि वह लाभप्रदता में सौन्दर्य भी देखना चाहता है । इस प्रकार
प्रोद्यौगिकी परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन को जन्म देते हैं ।[iii]
नित नये नये अविष्कारों से पूर्व की अपेक्षा वर्तमान में अनेकों अनेक
प्रोद्यौगिकी परिवर्तन हुए हैं । जीवन यापन के सुलभ तथा सरल संसाधनों का प्रयोग
किया जा रहा है । रेडिओ, टेलीविजन ,
सिनिमाघरों , इन्टरनेट द्वारा आज घर बैठे- बैठे सम्पूर्ण संसार से संपर्क स्थापित किया
जा सकता है । एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलता व तीव्रता से विचारों तथा संदेशों
का आदान-प्रदान किया जा सकता है । समस्त संसार की अलग अलग संस्कृतियों, विचार धाराओं
को आपमें-सामने से पढ़ा, समझा और देखा जा
सकता है । विश्व के समाचार, साहित्य , संगीत से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है ।
जिस कारण से संस्कृति में नित नये नये परिवर्तन हो रहे हैं । मानव अपनी संस्कृति
के अतिरिक्त अन्य सस्कृति को को अपनी आवश्यकता अनुसार ग्रहण कर रहा है । यही
सांस्कृतिक परिवर्तन है ।
‘डासन तथा गेटिस’ कहते हैं-
“संस्कृति में सामाजिक परिवर्तन की दिशा निश्चित करने और उसे गति प्रदान करने तथा
उन सीमाओं को निश्चित करने की प्रवृत्ति होती है जिनके प्रे सामाजिक परिवर्तन नहीं
किया जा सकता ।”
‘मैक्सवेबर’ ने सांस्कृतिक कारक को
सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारक बताया है । उन्होंने धर्मों और आर्थिक व्यवस्थाओं
के तुलनात्मक अध्ययन से सिद्ध किया कि “सामाजिक परिवर्तन संस्कृति में
परिवर्तन होने के साथ होते हैं ।”
[i] एस के ओझा,यू जी सी नेट/जे आर एफ समाजशास्त्र, अरिहंत
पब्लिकेशन, मेरठ,पृष्ठ-29
[ii] रामनाथ शर्मा,राजेन्द्र कुमार शर्मा,सामाजिक परिवर्तन और
सामाजिक नियंत्रण ,अटलांटिक पब्लिकेशन नई दिल्ली,2003, पृष्ठ-42
[iii] रामनाथ शर्मा,राजेन्द्र कुमार शर्मा,सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक नियंत्रण ,अटलांटिक पब्लिकेशन नई दिल्ली,2003, पृष्ठ-47
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