सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी “कैफ़ी आज़मी” की पैदाइश उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के गाँव मिजवां के एक ज़मीदार खानदान में हुई । आपकी पैदाइश की तरीख विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। मशहूर लेखक मालिक राम ने अपने तजकरे में ‘कैफ़ी आज़मी’ की पैदाइश 14 जनवरी 1924 ई० लिखी है। जबकि नन्दकिशोर ‘करम’ 14.जनवरी.1914 ई० लिखते हैं। इसके अलवा ‘सुल्तानुल मदारिस लखनऊ’ के तस्तावेजों में ‘कैफ़ी आज़मी’ की पैदाइश 15/अगस्त/1918 ई० दर्ज है।
‘कैफ़ी आज़मी’ अपनी तरीख पैदाइश के मुताल्लिक कहते हैं कि –
“कब पैदा हुआ .......................................... याद नहीं”
“कब मरुंगा ...............................................मालूम नहीं”
अपने बारे में यकीन के साथ सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि ग़ुलाम हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूँगा।”
‘कैफ़ी आज़मी’ की माता का नाम ‘सय्यदा हफीज उन निसा’ उर्फ़ कनीज़ फ़ातिमा था। आपके पिता का नाम ‘फतह हुसैन’था, जो कि एक बुद्धिजीवी और मज़हबी तबियत के इंसान थे। ज़मीदारी विरासत में मिली थी। लेकिन ज़मींदारी से लगाव न होने के कारण आप लखनऊ आ गये और यहाँ मुलाज़मत शुरू कर ली ।
‘कैफ़ी आज़मी’ की उर्दू, फ़ारसी की तालीम मदरसे में हुई। पिता ने दीनी तालीम के लिए ‘सुल्तानुल मदारिस लखनऊ’ में दाखिला करा दिया। लेकिन ‘कैफ़ी आज़मी’ अंग्रेजी तालीम हासिल करना चाहते थे । इस लिए आपने अपनी दीनयात की तालीम के साथ साथ लखनऊ यूनिवर्सिटी से प्राइवेट दाखिले के तहत फारसी व अरबी में ‘माहिर’,’कामिल’ व ‘आलिम’ की सनद हासिल कर लीं। लखनऊ यूनिवर्सिटी के अलावा आपने इलाहबाद यूनिवर्सिटी से उर्दू व फारसी में ‘आला काबिल’ व ‘मुंशी कामिल’ के इम्तिहान में कामयाबी हासिल की। लेकिन अपनी मसरूफियत के सबब ‘कैफ़ी आज़मी’ बाकाइदा अंग्रेजी कॉलेज में दाखिला न ले पाए। इस सिलसिले में ‘कैफ़ी आज़मी’ खुद कहते हैं कि –
“सोचा था कि इम्तिहान पास कर के किसी कॉलेज में से F.A. में दाखिला लूँगा और अंग्रेजी पढूंगा, लेकिन जब तक सियासत और शयरी का जूनून बहुत तरक्की कर चुका था। आगे तालीम हासिल करने के लिए जिन चीज़ों की जरूरत थी मेरी बेफिक़री उसे झेल न सकी, और तालीम अधूरी रह गई।”(कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)
‘कैफ़ी आज़मी’ शुमार तरक्कीपसंद तहरीक के मशहूर व मारूफ शायरों में होता है । दरअस्ल जब ‘कैफ़ी आज़मी’ का दाखिला सुल्तानुल मदारिस में हुआ तो वहाँ तरक्कीपसंद लोगों की आमद व रफत रहती थी जिसके सबब आपकी की मुलाक़ात अली सरदार जाफ़री, सज्जाद ज़हीर, अली अब्बास हुसैनी, सय्यद एहतेशाम हुसैन व अन्य तरक्कीपसंद लेखकों से हुई। ‘कैफ़ी आज़मी’ ने तरक्कीपसंद मुसंनिफीन अंजुमन की सदस्यता कुबूल कर ली। तरक्कीपसंद मुस्न्नाफीन से जुड़ने के बाद ‘कैफ़ी आज़मी’ ने ‘चरागाँ’, ‘किसान’, ‘वसीयत’, ‘नये ख़ाके’, ‘तसव्वुर’. ‘दूसरा वनवास’ जैसी बेहद जोशीलीं, जज्बाती, बागयानी व पुर-एहसास रूमानी नज़्में लिखीं।
1943 ई० में ‘कैफ़ी आज़मी’ मुम्बई चले गए। यहाँ उन्होंने ‘कम्युनिस्ट पार्टी’ से जुड़कर गरीबों, मजदूरों, मजलूमों, मजबूरों के साथ रहने लगे। उनकी दुःख तकलीफ को समझते उनके हक की आवाज़ को बुलंद करते रहे। और पार्टी का काम को भी अंजाम देते थे। लेकिन मुंबई में ‘कैफ़ी आज़मी’ की आर्थिक स्थिति बेहद नाज़ुक और खस्ता हो चुकी थी । ‘कैफ़ी आज़मी’ ने फिल्मी गीत लिखना शुरू किया ‘शोकात खानम कहती हैं –
“फिर अहिस्ता-आहिस्ता कैफ़ी को फिल्मों में काम मिलने लगा और वो बच्ची (शाबाना आज़मी) की फीस और और घर का बोझ उठाने के काबिल हो गए मगर पार्टी का काम उन्होंने नहीं छोड़ा ।”
(मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)
‘कैफ़ी आज़मी’ ने फिल्मों के लिए कई सौ गीत लिखे। एक के बाद एक फिल्मों के लिए गीत लिखने का सिलसिला जारी रहा और बहुत कम वक़्त में ही ‘कैफ़ी आज़मी’ फ़िल्मी दुनिया के मारूफ नग्मा निगार की हैसियत से मशहूर हो गए।‘सुबोध लाल’ ‘कैफ़ी आज़मी’ के फ़िल्मी गीतों का तजकिरा करते हुए लिखते हैं कि –
“कैफ़ी की फ़िल्मी या गैर फ़िल्मी शायरी किसी दर्ज़ाबंदी की मोहताज़ नहीं हैं। लिहाजा यह कहा जाए कि उनकी फ़िल्मी शायरी में बाग्याना अदा, शेलेन्द्र की नग्मगीं, मजरूह का तगज्जुल, गुलज़ार की तजुर्बा पसंदी सभी शामिल हैं और साथ ही साथ उनका अपना खुसूसी रंग। तो ये शायद कुछ लफ़्ज़ों में उनके फ़िल्मी शायरी के फन को बाँधने की एक नीम कामयाब कोशिश ही कही जा सकती है ।” (कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)
‘कैफ़ी आज़मी’ के कुछ मशहूर गीत –वक़्त ने क्या किया हसीं सितम (कागज़ के फूल- 1959), जाने क्या धोंद्ती रहती हैं ये आँखे मेरी (शोला और शबनम-1962), अब तुम्हारे वहले वतन साथियों (हकीकत-1964), कुछ दिल ने कहा, कुछ भी नहीं ( अनुपमा-1966), ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं (हीर रांझा- 1970), मीलों न तुम तो हम घबराये, मिलो तो आँख चुराएं (हीर रांझा-1970), तुम जो मिल गए हो (हँसते अखम- 1973), दुरी न रहे कोई आज इतने करीब आजाओ (कर्तव्य- 1979), झुकी झुकी सी नज़र (अर्थ- 1982), जलता है बदन (रज़िया सुल्ताना- 1983)
‘कैफ़ी आज़मी’ ने अपना हाथ जगन्नाथ, छोटी बहु, टूटे खिलोने, नैना, एक अलग मौसम, दीदारे यार , लक्ष्मी, डाक घर, संकल्प जैसी फिल्मों के अलावा कई फिल्मों के लिए गीत लिखे । फिल्म ‘हीर-रांझा’ 1970 ई० में आई फिल्म 'हीर रांझा' में ‘कैफ़ी आज़मी’ ने कमाल ही कर दिया, उन्होंने पूरी फ़िल्म शायरी में लिखी। हिंदी फिल्म के इतिहास में ऐसा कभी नहीं देखा गया ।
‘कैफ़ी आज़मी’ की शादी 23.मई. 1947 ई० को ‘शौक़त खानम’ से हुई। शादी के बारे में खुद ‘शोकात खानम’ लिखती हैं –
“निकाह में ये मुश्किल थी कह लड़का शिया और लड़की सुन्नी। निकाह के लिए दोनों काजियों की ज़रुरत थी, जिनका बुलाना मुश्किल था। जब काजी ने पूछा ‘लकड़े का मज़हब’ तो बन्ने भाई मुस्कुरा कर बोले ‘हनफी मज़हब’ बस निकाह हो गया । चारो तरफ से मुबारकबाद की आवाजें आने लगीं और दिलचस्प मुशायरा शुरू हो गया। जोश, मजाज़, सरदार जाफ़री, साहिर लुधयानवी, सिकंदर अली वज्द सब ने अपनी अपनी खुबसूरत ग़ज़लें सुनाईं और शादी की महफ़िल कामयाब हुई। उसी जामने में कैफ़ी की नज्मों का नया मज़्मूआ ‘आखरी शब्’ छाप रहा था, सरदार जाफ़री ने शादी के तोहफ़े के तौर पर एक कापी बहुत ही खुबसूरत जिल्द में जल्दी छपवाकर लड़की को पेश किया। अन्दर सरदार जाफ़री ने लिखा था ‘मोती के नाम’ मेरा घरेलु नाम । ।और दुसरे सफ़ह पर लिखा था –
‘शीन’ के नाम , मैं तन्हा अपने फन को आखिर शब् तक ला चूका हूँ तुम आजाओ तो सहर हो जाए ।”
(मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)
‘कैफ़ी आज़मी’ के पहली बच्चे की पैदाइश 1949 ई० में हुई लेकिन बिमारी का इलाज़ न होने के कारण उसका इन्तेकाल हो गया ।बच्चे की मौत और अपनी कैफियत को बयान करती हुई शौक़त खानम लिखती हैं-
“ कैफ़ी रात दिन काम कर रहे थे। हमारे पास एक पैसा भी नहीं था। इतनी खुद्दार हूँ कि अपने माँ-बाप से कभी एक पैसा नहीं मांगा। फिर उन्ही दिनों मेरा बच्चा बीमार हो गया, मैं उसका होम्योपैथिक इलाज कराती रही, जिससे कोई फायदा नहीं हुआ। और बच्चा तेरह दिन की बिमारी के बाद चल बसा। टाइफाइड निमोनिया हो गया था । मेरी दुनिया में अँधेरा छा गया ।..... बच्चे की याद मेरे दिल से नहीं जाती थी हर वक़्त रोती रहती थीं, उसका एक छोटा सा कुर्ता अपने पास रखती, उसे आँखों पर रख लेती। बस स्टाप पर अगर किसी औरत की गोद में एक साल का बच्चा देख लेती तो अपना बच्चा याद आ जाता और पैरों में इतनी ताक़त ना रहती कि खड़ीड़ी रह सकूँ ।” (मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)
18.सितम्बर.1950 ई० को कैफ़ी आज़मी और शोकात खानम के यहाँ दूसरे बच्चे की पैदाइश हुई। जिसको आज फ़िल्मी दुनिया में ‘शाबाना आज़मी’ के नाम से जाना जाता है ।
‘कैफ़ी आज़मी’ की कलाम व शायरी की कई किताबें प्रकाशित हुईं– झंकार (1943 ई०), आखिर शब् (1947 ई०), साहिर लुधयानवी (1948 ई०), आवारा सज्दे (1973 ई०), मेरी आवाज़ सुनो (फ़िल्मी गीत -1974 ई०), इब्लीस की मजलिस शूरा (1977 ई०), सरमाया (कुल इन्तिखाब)।
‘कैफ़ी आज़मी’ ने मसनवी , कई फ़िल्मी कहानियां, ड्रामें व अन्यर लेख भी लिखे, जो कि विभिन्न मैगजीन व रिसालों, अख़बारों, में प्रकाशित होते रहे।
‘कैफ़ी आज़मी’ को उनकी सलाहियत व खिदमात के पेशे नज़र भारत सरकार व राज्य सरकारों तथा समाजी व साहित्यिक तंजीमों ने तमाम एजाजों व इनाम से नवाज़ा है –
पदमश्री (फ़िल्मी व अदबी खिदमात के लिए), फिल्म फेयर अवार्ड (बेहतरीन मंज़रनामे के लिए), फिल्म फेयर अवार्ड (बेहतरीन डाइलॉग के लिए), फिल्म फिर अवार्ड (बेहतरीन कहानी के लिए), प्रेसिडेंट अवार्ड (बेहतरीन कहानीकार), नेशनल इन्ट्रीगेशन प्रेसिडेंट अवार्ड (फिल्म सात हिन्दुस्तानी गीत के लिए), सोवियत लीडर नेहरु अवार्ड, लोटस अवार्ड , महाराष्ट्र उर्दू एकेडमी का खुसूसी इनाम (आवारा सज्दे के लिए) , उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी का अदबी इनाम (आवारा सज्दे के लिए), महाराष्ट्र सरकार का गौरव अवार्ड (अदबी खिदमात के लिए), हिंदी-उर्दू साहित्य अवार्ड तंजीम उत्तर प्रदेश का इनाम , उत्तर प्रदेश सरकार का इनाम (अदबी और समाजी खिदमात के लिए), महाराष्ट्र सरकार का ज्ञानेश्वर अवार्ड , कुल हिन्द मीर ताकि मीर अवार्ड , दिल्ली उर्दू अकादमी का मिलेनियम अवार्ड, आपकी कायनात देहली (महानामा) की तरफ से लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा गया।
9.फ़रवरी 1973 ई० को ‘कैफ़ी आज़मी’ पर फालिज का असर हुआ। जिस के कारण आपके एक हाथ ने काम करना बंद कर दिया, लगभग 2 साल तक आप बेहद कमज़ोर और परेशान रहे। शोकत आज़मी तहरीर करती हैं कि –
“कभी कभी बहुत दुःख भरे लहजे में कहते थे हैं मैं अपना दूसरा हाथ कभी भी इस्तिमाल न कर सकूँगा, मैं बच्चों की तरह समझाने लगती हूँ, एक रात जब आप सो कर उठेंगे तो हैरान रह जायेंगे क्यूंकि आपका दूसरा हाथ काम करने लगेगा और फिज्योथैरेपी से जान न छुड़ाओ उसे रोज़ करते रहो ।” (मेरे हमसफ़र, कैफ़ी आज़मी: अक्स और जिहतें)
धीरे धीरे फालिज का असर कम होता गया और ‘कैफ़ी आज़मी’ 1978ई० में अपने गाँव ‘मिजवा’ चले गए और अपने गाँव में काश्तकारी व बगात में मसरूफ रहने लगे । बगात के सिलसिले में आप लखनऊ गए और वापसी के वक़्त लखनऊ स्टेशन की सीढ़ियों से फिसल कर ज़ख़्मी हो गए और पैर की हड्डी बुरी तरह टूट गई। एक लम्बे वक़्त तक ‘कैफ़ी आज़मी’ बिस्तर पर ही रहे, चलने फिरने से माजूर हो गए थे। रफ्ता-रफ्ता सेहत में सुधार और ताक़त आती गई, लेकिन ‘कैफ़ी आज़मी’ अब अमूमन खामोश रहने लगे और आपका बायाँ हाथ ने काम करना बिलकुल बंद कर दिया था।
2002 ई० में ‘कैफ़ी आज़मी’ की तबियत बेहद खराब हो जाती है, मुंबई के लोक हस्पताल में आपको इलाज़ के लिए दाखिल किया गया कुछ माह इलाज़ चलता रहा लेकिन आपके सेहत में कोई इजाफा न हुआ और 10.मई.2002 ई० को हिन्दुस्तान के अज़ीम तरक्कीपसंद शायर ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
‘कैफ़ी आज़मी’ के इंतिकाल की खबर सुनकर हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति ‘के०आर०नारायण’ व प्रधानमंत्री ‘अटल बिहारी बाजपाई’ व अन्य सियासी, समाजी रहनुमाओं और अदीब व शायरों ने ग़म का इज़हार किया।
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