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Angare Story 7/अंगारे कहानी -7

 


"अंगारे" कहानी -7

पर्दे के पीछे

रशीद जहाँ

हिंदी अनुवाद- फ़रीद अहमद

 


(एक कमरा है जिसमें सफेद फर्श बिछा है और कमरे के बीच में एक रज़ाई बिछी है। उस पर गाव तकिया से लगी एक बीबी बैठी है जो दुखी और थकी हुई मालूम होती है। उनके पास एक छोटी-सी सुराही कटोरे से ढँकी हुई, ताँबे की थाली में रखी हुई है। उनके सामने एक दूसरी बीबी बैठी हुई है जो चालीस के लगभग उम्र की हैं और छालियाँ काट रही हैं। एक तरफ उनकी पिटारी रखी है और दूसरी तरह उगलदान। कमरे में दो दरवाजे सामने हैं और बाकी जगहों में ताक और अलमारियाँ हैं जिनमें बर्तन और बर्तन ढकने के कपड़े लगे हैं। बीच में छत पर से पंखा टँगा है जिस पर गुलाबी झालर लगी है। कमरे के एक कोने में पलंग, उस पर पलंगपोश बिछौना पड़ा है, दूसरी तरफ एक और रज़ाई बिछी है, गाव तकिया लगा है और उगालदान रखा है।)

 

मोहम्‍मदी बेगम - ऐ है आपा, हमारा क्या है, इतनी गुजर गयी, जो बाकी है वह भी ख़ुदा किसी न किसी तरह गुजार देगा। मेरा दिल तो अब दुनिया से अब ऐसा उकता गया है कि अगर इन छोटे बच्‍चों का ख़याल न होता तो ख़ुदा की क़सम मैं तो ज़हर ही खा लेती।

आफ़ताब बेगम - दीवानी हुई हो ! अच्‍छा अभी तुम्‍हारी उम्र ही क्‍या है जो ज़हर खाने लगीं ! अब तो तुम्‍हारे बहार देखने के दिन आए हैं। बच्‍चे अब बड़े हो रहे हैं, अब चली हैं ज़हर खाने। मुझे देखो.......

मुहम्‍मदी बेगम - तुम्‍हें क्‍या देखूँ, कोई उम्र की बात है, कोई बूढ़े ही दुनिया से तंग आते हैं ? हमने तो जितनी ज़िन्‍दगी ही हवस बूढ़ों में देखी उतनी जवानों में न देखी। सारी दुनिया मरी जा रही है, पता नहीं हमारी मौत कहाँ जा कर सो रही है। बच्‍चे- वच्चे सब भूल जाते हैं और थोड़े ही दिन में सब ठीक.......

आफताब बेगम            - होश में आ लड़की होश में ! अभी तुम्‍हारी उम्र ही क्‍या है जो मरने की चिंता सवार है। मेरे से तो तुम दस बारह बरस छोटी हो। मेरे ब्‍याह की बातें हो रही थीं जिस बरस तुम पैदा हुई हो। उस साल मलका मरी थी, मुझे खूब अच्‍छी तरह याद है। अल्‍लाह माफ़ करे चाची अम्‍मा को कितनी खुश थीं। मेरे लिए तो बिटिया ही है। चाची अम्‍मा के ब्‍याह के तीस बरस बाद तुम पैदा हुई थीं। खाना, नाच-रंग और क्‍या-क्‍या गाने वालियाँ आयी हैं। और तो और, तुम्‍हारा ब्‍याह भी किस अरमानों से हुआ है। सारी दिल्‍ली वाह-वाह बोल गयी थी, तुम्‍हारे बराबर कौन ख़ुशक़िस्मत होगा ? मुझ दुखिया की ओर देखो, तुम्‍हारे तो अल्‍लाह रखे, मियाँ बच्‍चे घर सब ही कुछ है।

मुहम्‍मदी बेगम - हाँ ठीक है, मियाँ बच्‍चे घर सब ही कुछ है। जवानी ! कौन मुझे जवान कहेगा ? सत्तर बरस की बुढ़िया लगती हूँ। रोज़-रोज़ की बीमारी, रोज़- रोज़ के हकीम डाक्‍टर और हर साल बच्‍चे जनने! हाँ, मुझसे ज्‍यादा कौन ख़ुशकिस्मत होगा।  

                    (यह कह कर आँखों में आँसू भर आये, रूमाल से आँसू पोंछ कर और उगलदान में थूक कर फ़िर शुरू किया।)

                   अभी दो महीने की बात है। पिछला बच्‍चा गिरने से पहले की बात है कि डाक्‍टरनी को बुलाने का विचार हुआ। डाक्‍टर ग़ियास ने भी यही कहा कि गुप्त रोग की वजह से बुखार ना रहता हो ? बेहतर है कि डाक्‍टरनी अंदर से देख ले। लो उम्र की बात सुनो:- डाक्‍टरनी ने मुझसे मेरी उम्र पूछी। मैंने कहा, 32 साल ! कुछ इस तरह से मुस्‍कुरायी जैसे कि भरोसा न हुआ हो। मैंने कहा, “मिस साहब ! आप मुस्‍कुराती क्या हैं ? आप को पता हो कि 17 साल की उम्र में मेरी शादी हुई थी और जब से हर साल मेरे यहाँ बच्‍चा होता है। केवल एक तो जब मेरे मियाँ साल भर को विदेश गये थे और दूसरे जब मेरी उनकी लड़ाई हो गयी थी ! और जो यह दाँत आप देख रही हैं डाक्‍टर ग़ियास ने उखाड़ डाले। पायरिया वायरिया या न मालूम कौन बीमारी होती है वह थी ! सारी बात यह है कि हमारे मियाँ जो विदेश से आये तो उनको हमारे मुँह से बदबू आती थी”। ( वह बेचारी खूब हँसी।)

आफताब बेगम - तुम बातें ही ऐसी करती हो कि सुनने वाली हँसे न तो क्‍या करे।

मुहम्‍मदी बेगम - खैर उस बेचारी ने सीना देखा, पेट देखा, जब अंदर से देखा तो घबरा कर कहने लगी - बेगम साहिबा, आप को तो फिर दो महीने का गर्भ मालूम होता है। मेरा तो दिल सन्‍न से हो गया कि लो और आफत आ गयी।

                   (इतने में बच्‍चों के रोने की आवाज दूसरे कमरे से आयी और लोगों की चीख़ पुकार दूसरे कमरे में सुनाई दी। बेगम साहिबा गाव तकिया से उठ बैठीं और चीख कर कहा) अरे कमबख्‍तों न दो मिनट सोने का आराम न बात करने की मोहलत ! इतनी हरामजादियाँ भरी हैं फिर भी बच्‍चे शोर मचाते जाते हैं। अच्छा होगा, ऐ ख़ुदा तू मुझे मौत दे दे कि दुनिया के वबाल से छूटूं।

                   (कमरे का दरवाजा खुला, दो आया साफ कपड़े पाजामे, मख़मल के कुर्ते, दुपट्टे पहने दो बच्‍चों को रोता हुआ लेकर आयीं और कुछ बच्‍चे उनसे बड़े दरवाजे में खड़े दिखे।यह सब बच्चे, दुबले, पीले और कमज़ोर थे। दरवाज़े में से चबूतरा और सहन दिखाई देते है।)

एक आया -     बेगम साहिबा ! यह बड़े मुन्ने मियाँ नहीं मानते, जब कमरे में आते हैं बच्‍चों को सताते हैं खेलने नहीं देते। अब नन्‍ही बी की गुड़िया और छोटे मियाँ के गेंद ले कर भाग गये और सीधे मर्दाने[1] में चले गये कई बार.........

मुहम्‍मदी बेगम - (गुस्‍से से) कसाई है, निगोड़ा कसाई। घर में किसी को चैन नहीं लेने देता। आखिर किस बाप का बेटा है !

                   (बच्‍चे को गोद में लेकर प्‍यार किया, पिटारी से कुछ निकाल कर दोनों बच्चों को खाने को दिया और उसके बाद आया को वापस कर देती है।)

                   जाओ, ख़ुदा के लिए अब सिधारो ! सुबह से शाम तक चीख-पुकार ! (फिर ठहर कर) अरे दरवाज़े तो बन्‍द कर दो ! सुबह से कई बार कह चुकी हूँ, जब इधर से निकलेगी दरवाज़ा खुला छोड़ देंगी।

आफताब बेगम – बुआ ! तुम्‍हारे घर में माशा अल्लाह[2] हर समय तो यह मुवा डाक्‍टर खड़ा रहता है, फिर भी बच्‍चे देखो, दुबले, पीले, भूक के मारे लगते हैं।

मुहम्‍मदी बेगम – ऐ, अपने आप ही होंगे जिनको माँ का दूध नसीब न   हो ! आया जैसी मिलीं, रख ली गयीं। मोटी, पतली, मिल गईं, रख लीं गईं। मियाँ का हुक्‍म है कि जब ख़ुदा ने रुपया दिया है तो तुम क्‍यूँ दुख उठाओ। सारा मज़ा अपनी वासना का है कि जब बच्‍चा मेरे पास रहेगा तो ख़ुद को तकलीफ होगी। न रात देखें न दिन, बस हर समय बीवी चाहिए। और बीवी पर ही क्‍या है, इधर-उधर जाने में कौन से कम हैं।

आफताब बेगम - मुहम्‍मदी बेगम, तुम तो हर बात में बेचारे अपने मियाँ को ही दोषी ठहराती हो। आया रखे तो वो बुरा, न रखता तो वो बुरा होता। अल्‍लाह-अल्‍लाह करो।

मुहम्‍मदी बेगम - ऐ है आपा, तुम यहाँ नहीं थीं जब नसीर मरा है। चार महीने की जान। जो तकलीफ उस पर गुजरी है वह ख़ुदा दुश्‍मन पर भी न डाले। गैरों से न देखी जाती थी। उसकी आया थी तो काफी हट्टी-कट्टी! देखने में तन्‍दुरुस्‍त लेकिन गर्मी की बीमारी थी। अब इसकी किसे खबर थी। बच्‍चा बीमार पड़ा। यह बड़े-बड़े छाले बदन पर पड़ गये। और जब वो फूटे तो कच्‍चा-कच्‍चा  गोश्‍त निकल पड़ा। जोड़-जोड़ में पीप पड़ गई, तसले भर-भर के डाक्‍टर ग़ियास ने निकाली। मैं पर्दे के पीछे से देखती, मरुँ नहीं बल्कि शुक्र करूँ, जैसा था कि दो महीने इसी तरह सड़-सड़ कर बच्‍चा चला गया। इसके बाद तीन बच्‍चे हुए। कितना कहा मैं ख़ुद दूध पिलाऊँगी, लेकिन सुनता कौन है ?  धमकी यह है कि दूध पिलाऊँगी तो मैं दूसरी शादी कर लूँगा। मुझे हर समय औरत चाहिए। मैं इतना सब्र नहीं कर सकता कि तुम बच्‍चों के बेकार के काम करो।  और फिर तुम कहती हो -

आफताब बेगम - ऐ है, तो यह बात है ! मुझे क्‍या पता। ख़ुदा ऐसे मर्दों से भी बचाए, जानवर भी तो कुछ डरते हैं। यह तो जानवरों से भी बेकार हो गये। ऐसे मर्दों के पाले तो कोई न पड़े। ऐसी बातें पहले न थीं, अब जिस मर्द को सुनो कमबख्‍त यही आफत है। अब तुम्‍हारे बहनोई हैं, खैर अब तो बुढ़ापा है, कभी जवानी में भी ज़बरजस्ती नहीं की (मुस्‍कुरा कर) ख़ुदा की क़सम कई घंटो नाक रगड़वाती थी।

मुहम्‍मदी बेगम - (ठण्‍डी साँस लेकर) अपनी-अपनी क़िस्मत है। तुम्‍हारी इस बात पर याद आया कि वह डाक्‍टरनी वाली बात पूरी नहीं हुई। बात कहाँ की कहाँ जा पहुँची है। जब डाक्‍टरनी ने कहा मेरे दो महीने गर्भ है। तो बहुत हैरानी से मेरी तरफ देख कर कहने लगी - बेगम साहिबा ! आप तो कह रही थीं चार महीने से आप पलंग पे पड़ी हैं। रोज शाम को बुख़ार आता है और डाक्‍टर ग़ियास भी यही कह रहे थे कि रोज शाम को 100 या 101 पर बुख़ार हो जाता है। तो आपका मतलब है कि फ़िर आपके.......... मैंने कहा - ऐ मिस साहिब ! तुम भी भली हो, कमाती हो, खाती हो, मजे की नींद सोती हो। यहाँ तो मुर्दा स्वर्ग में जाए या नरक में, अपने हलवे-माँडे़ से काम है। बीवी चाहे अच्‍छी हो चाहे मर रही हो, मर्दों को अपनी वासना से काम है। वह बेचारी सुनकर खामोश हो गयी। कहने लगी, आप इतनी बीमार हैं। और बुआ, वह ही बेचारी क्‍या... सभी डाक्‍टर यही कहते हैं कि आपके बच्‍चे किस तरह मोटे और तंदरुस्त हों जब एक तो आप ख़ुद इतनी कमजोर हैं और दूसरे बच्‍चे इतनी जल्‍दी-जल्‍दी होते हैं। क्‍या किया जाय, इससे तो ईसाई होते तो भले रहते।

आफताब बेगम - तौबा करो तौबा ! कुफ़्र[3] न बको ! ख़ुदा इन काफ़िरों को मिटाए ! एक बेटा है वह भी एक ईसाई कर बैठा। मुझे उसके ब्‍याह के क्‍या-क्‍या अरमान थे। अब तो भाई ने तंग आकर वहीदा की मँगनी कर दी। हाय मेरे दिल पर क्‍या-क्‍या ना साँप लोटेंगे कि मेरे बचपन की माँग गैर के घर जाए। इससे तो वह पैदा न हुआ होता तो अच्छा होता और मेरे लिए तो मर गया।

मुहम्‍मदी बेगम  - किस दिल से कोसती हो ? बुढ़ापे का सहारा है, कभी तो ठीक होगा।

आफताब बेगम  - ऐ, वो क्‍या ठीक होगा, दो बरस हो गये, सूरत देखने को तरस गई। शहर के शहर में रहता है, कभी आकर झाँकता भी नहीं। अब तो सुना है ड़ेढ़ सौ मिलने लगे हैं। ख़ुदा का यही शुक्र है कि बच्‍चे अभी तक न हुए। मैं तो यही दुआ माँगती हूँ कि आफताब बन्‍दी, चाहे तेरी कब्र पर चराग़ जलाने वाला न हो, लेकिन वह हरामजादी, जवानी में मरे, ईसाइनी के तो बच्‍चा न हो। हाय बुआ, किससे अपना दर्द कहें, सब अपनी-अपनी मुसीबतों में घिरे हैं, मुहम्‍मदी बेगम ! तुमने कुछ और भी सुना, मिर्जा मकबूल अली शाह ने और ब्‍याह कर लिया, दो बीवियाँ मर चुकीं, पोतियाँ, नवासियाँ तक बच्‍चे वालियाँ हो गयीं और यह नई बीवी भी क्‍या भोली- भाली शक्‍ल की है। जवान है,  बिलकुल जवान, मुश्किल से कोई बीस बरस की होगी, कमबख्‍त की किस्‍मत फूट गयी। अभी तो बेचारी की छः कुँवारी बहनें और बैठी हैं जब ही तो बेचारे माँ-बापू ने...

                   (इतने में लड़का, कोई 12 साल की उम्र, मिट्टी में पजामे की मुहरियाँ भरी हुई, जोर से दरवाज़ा खोल कर आता है। एक हाथ में रेल, दूसरे में कैंची और उसके पीछे-पीछे एक तन्‍दुरुस्‍त लड़की तंग पाजामे में मेले कपड़े, दुपट्टा लटकाए अन्दर आती है।)

लड़की -         देख लीजिए अम्‍मा ! यह बड़े मिर्ज़ा नहीं मानते। यह देखिए मेरा नया पजामा काट दिया। (यह कह कर कुर्ता उठा कर दिखाती है।) मैं इनसे बात भी नहीं कर रही, चुपचाप बैठी अब्‍बा जान की अचकन में बटन टाँक रही थी। और देखिए यह दुपट्टे का आँचल भी फाड़ दिया। (दीवार से लग कर खिसिया कर रोने लगी। लड़का बहन की नकल उतारते हुए)

लड़का -         ऊँउ, ऊँउ, ऊँउ अपनी नहीं कहतीं ! हाँ, तुम सी रही थी? कह दूँ अम्‍मा से यह गन्दी किताबें पढ़ रही थी “दिलदार यार या बाँका छैला”। मैंने ठीक से नहीं देखा कि क्‍या था।

लड़की -         (जल्दी से मुड़ कर) ख़ुदा के लिए इतना झूठ मत बोला करो, ख़ुदा की कसम अम्‍मा ! मैं मौलवी अशरफ अली साहब का बहिश्‍ती जेवर[4] पढ़ रही थी। मेरे पीछे पड़ गये कि दिखाओ। जब मैंने नहीं दिखाया तो मेरा पजामा काट दिया। आप कभी इन्‍हें कुछ नहीं कहतीं।

मुहम्‍मदी बेगम  - (माथा पीट कर) शाबाश है बेटी, शाबाश। अम्‍मा मरें या जियें, हाथ बँटाने से तो रही, और छोटे बहन-भाइयों से लड़ती हो। (बेटे की तरफ मुड़ कर) यह नटखट तो सारे दिन किसी न किसी को परेशान करता रहता है। भाग यहाँ से।

आफताब बेगम -लाओ मियाँ, मुझे कैंची दे दो, देखो अपनी बहन को कौन परेशान करता है। वह बेचारी कुछ दिन के लिए तुम्‍हारे पास है। अब बरस दो बरस में ब्‍याह कर ससुराल चली जायेगी तो सूरत देखने को तरस जाओगे!

                   (साबरा ने इस बात पर शर्मा कर सर झुका लिया और चुपके से चली जाती है। बड़े मिर्जा गाव तकिया का घोड़ा बना कर बैठ जाते हैं और पल भर ठहर कर कूदने लगते हैं।)

लड़का           - तो फिर यह हमें क्‍यूँ नहीं दिखाती थीं ?

मुहम्‍मदी बेगम  - ऐ है, मिर्जा, ख़ुदा के लिए रहम करो, और इस तरफ मुझको न हिला डालो। सारा जिस्‍म हिला दिया। कमबख्‍त धड़कन होने लगी। ख़ुदा के लिए जाओ, बाहर जाओ अपने अब्‍बा के पास और मौलवी साहब आते ही होंगे, पाठ याद कर लिया?

                   (पाठ का नाम सुन कर बड़े मिर्ज़ा ने भी चुपके से चले जाना ठीक समझा)

आफताब बेगम - ज्यादा बच्‍चे होते हैं, माशा अल्लाह, घर तो भरा-भरा मालूम होता है। लेकिन हर समय का शोर-गुल नाक में दम कर देता है। बुआ ! अब मैं घर में हर समय कव्‍वे भगाने वाल की तरह बैठी रहती हूँ। यह आते हैं नमाज-वमाज़ पढ़ने। घड़ी-दो घड़ी बैठे, फिर बैठक में चले गये, ख़ुदा किसी को ऐसा अकेला भी न करे। हाय, क्‍या-क्‍या अरमान थे !

                   (दरवाजा खुलता है और एक कोलन अन्दर आती है।)

कोलन -         सलाम बेगम साहिबा, सलाम ! बड़ी बेगम, लीजिए मैं तो आप के यहाँ हिस्‍सा ले कर जाने वाली थी, कहो बेगम, मिजाज कैसा है, अल्‍लाह रखे बच्‍चे कैसे हैं ?

मुहम्‍मदी बेगम - हाँ,  मैं तो जैसी हूँ वैसी हूँ। कहो भाभी, अच्‍छी हैं, सब बच्‍चे अच्‍छे हैं ? ख़ुदा पोता मुबारक करे। पंजीरी होगी। रहीमन ले, थाली खाली कर दे। (संदूकची खोलते हुए) आपा एक टुकड़ा पान का दे देना।

आफताब बेगम - रहीमन, मेरा हिस्‍सा भी यहीं ले ले।

                   (यह कह कर पान लगाने लगीं, मुहम्‍मदी ने दो आने कोलन को दिये।)

मुहम्‍मदी बेगम - सब को बहुत दुआ सलाम कह देना। किसी दिन तबीयत अच्‍छी रही तो आऊँगी, सब के मिलने को दिल फड़क गया। बच्‍चे को देखने को बड़ा दिल चाहता है। और बुआ, भाभी से कहना तुमने तो न आने की कसम खा ली है।

                   (अफताब ने पान दिया और कमरबन्‍द से पैसे निकाल कर दो आने दिये।)

कोलन -         बेगम साहिबा, हमारी बीवी भी बहुत प्‍यार करती है। फुर्सत नहीं मिलती, आजकल तो खैर घर भरा है। सब ही आये हुए हैं।

आफताब बेगम - सुल्‍तान दुल्हन को मेरी तरफ से दुआ कह देना और कहना पोता मुबारक हो। मैं शुक्रवार को इंशा अल्‍लाह आऊँगी।

                   (कोलन थाली ले कर दोनों को सलाम करके चली जाती है।)

मुहम्‍मदी बेगम - आपा !  हमारी भाभी सुल्तान का भी खूब तरीका है। उनके मियाँ ने कभी चालीस रुपये से ज्‍यादा नहीं कमाया, लेकिन वह सलीका है कि माशा अल्‍लाह सब कुछ किया। बेटों का ब्‍याह किया, बेटियों का ब्‍याह किया। ख़ुदा की महरबानी से अब बेटा अच्छा नौकर हो गया है, कोई सवा सौ का आगे बढ़ने की भी उम्‍मीद है।

आफताब बेगम - बहू भी अच्‍छी है (ठंडी साँस भर कर) अपनी-अपनी क़िस्मत है। एक हम हैं ! खैर यह तो होगा, कहो कहो रज़िया की भी कुछ खबर है ? तुम्‍हारे मामू ने तो उसकी ऐसे चट मँगनी पट ब्‍याह किया कि किसी को बुलाया तक नहीं।

डॉ० रशीद जहाँ 
मुहम्‍मदी बेगम- बुलाया तक नहीं तो क्‍या हुआ, घर-घर दोगुना-तीनगुना बटवाया था। शादी उस ग़रीब की जैसे हुई वह अपनी बदनामी के डर से जल्‍दी कर दी और उसमें भी ख़ुदा उनका भला करे।

आफताब बेगम- ऐ है, यह बात थी, तो मुझे तो पता ही नहीं। हाँ तो फिर  क्‍या हुआ ?

मुहम्‍मदी बेगम - तुम्‍हें नहीं पता ! अब तो सभी को पता है। इस बेचारी की उम्र ही क्‍या है, मेरी साबरा से दो ढाई साल बड़ी है। मेरी शादी के बाद पैदा हुई है। जब छोटे मामू बरसों बाद कलकत्ता से आए, बरसों बाद आये थे हम सभी इकठ्ठा थे, नानी अम्‍मा बेचारी, हाथ पैर में कंपन, सबसे ज्‍यादा खुश थीं। रज़िया को मैं कुछ दिन के लिए साथ ले आयी। फिर छोटी मामी मायके चली गयीं। लड़की तीन-चार महीने रह गयी। रज़िया ददिहाल पर जान देती है। ननिहाल से उसे कुछ मुहब्‍बत नहीं। बड़ी बहन का घर था, रह गई तो क्‍या हुआ। मेरे फरिश्‍तों तक को खबर नहीं। जब माँ मयके से आई तो रज़िया अपने घर चली गई। एक दिन रज़िया का ख़त आया कि आपा जान, ख़ुदा के लिए जल्‍दी आइए। बस आपा क्‍या बाताऊँ, जब वहाँ पहुँची तो छोटी मामी तो आपने देखी हैं कैसी हैं। दिखावे की बातें करती हैं कि ख़ुदा की पनाह, बहुत आव-भगत की। रज़िया ने चुपके से एक ख़त दिया और कहा, दुल्‍हा भाई रोज हमारे यहाँ आते हैं। और अम्‍मा बड़ी आव-भगत करती हैं। और चुपके-चुपके बातें होती हैं। कुँवारी लड़की और क्‍या कहती। यह भी बेचारी ने बड़ी हिम्‍मत की। ख़त देखूँ तो हमारे मियाँ का रज़िया के नाम। वह प्रेम पत्र कि नॉविलों में भी न होगा। बस मैं जल ही तो गई। रज़िया को समझा कर कि तुम कुछ न कहो, मैं किसी से तुम्‍हारा नाम नहीं लूँगी, मैं जलती-सुलगती घर पहुँची। उनसे कहा, ऐ आपा, ख़ुदा की कसम ! आँखों में घुस गए कि क्‍या बुराई है और मैं तो रज़िया से शादी करूँगा, चाहे तुम्‍हें तलाक ही देना पड़े। मैंने कहा, मियाँ, होश में हो या बिल्‍कुल ही बेहोश हो। शरीफों की लड़की है, अगर उसका नाम भी लिया तो उसके बाप, चाचा, भाई तुम्‍हारी हड्डी-बोटी एक कर देंगे। इस सोच में भी न रहना।

आफताब बेगम - तो तुम्‍हारी मामी ने चुपके-चुपके बात पक्‍की कर ली होगी, इसलिए तो गर्व के साथ कह रहे होंगे।

मुहम्‍मदी बेगम - ऐ और क्या ! उन्‍हें अल्‍लाह माफ़ करे, अम्मा और मुझसे हमेशा की दुश्‍मनी है। जब अम्‍मा बीमार थीं तब क़समें खा-खा कर कहती थीं तब तक चैन न लूँगी जब तक मुहम्‍मदी का घर उजड़वा न दिया हो। और हम ही पर क्‍या, बड़ी मामी जान से भी यही जलन है और चूँकि रज़िया की मँगनी चचा के यहाँ हुई थी तो रोज- रोज की लड़ाई थी कि दुश्मनों में  बेटी न दूँगी।

आफताब बेगम - (हँस कर) और बुआ ! तुम्‍हारे मियाँ में ही क्‍या रखा   था ! बीवी वाला, बच्‍चों वाला, हाँ, रुपया है। तो तुम्‍हारे बड़े मामू भी ग़रीब न थे। कही शरीफों में भी ऐसी बातें हुई हैं। मूए पंजाबियों में दो बहनें अपनी बेटियाँ एक मर्द को ब्‍याह दें तो ब्याह दें, हमारे यहाँ तो ऐसा होता नहीं। अब नया ज़माना है, जो कुछ न हो थोड़ा है। हाँ तो फिर क्या हुआ ?

मुहम्‍मदी बेगम - जब मैं बिगड़ी और बातें सुनाईं तो ख़ुशामद करने लगे कि मैं उस पर आशिक हो गया हूँ। हाय, ख़ुदा के लिए मेरी मदद करो। मेरी मदद करना तुम्‍हारा फ़र्ज़ है। कुरआन खोल कर बैठ जाएँ और आयतें पढ़ें कि मैं उनकी मदद न करूंगी तो मरने के बाद यह होगा वो होगा। अब इससे ज्‍यादा कौन-सी आग होगी ? यह हर समय का जलना, हर समय यही बातें कि मैं पागल हो जाऊँगा। कमरा बंद किये मुँह औंधाए पड़े हैं। रज़िया, हाय रज़िया हो रही है, मैं पड़ी सब सुन रही हूँ। ख़ुदा की कसम आपा इस कदर कलेजा पक गया है कि यह रुपया-पैसा अब तो मुसीबत मालूम होता है। रूखी रोटी हो और सुख हो। आपा, जरा एक पान देना, बातें करते-करते होंठ सूख गये।

                   (पास सुराही रखी थी, उसमें से पानी निकाल कर पिया। और दोनों ने पान खाया)

                   बस यही हालत जारी रही और वह इश्क़िया शब्‍द उस मासूम कुवाँरी बच्‍ची के लिए बोला करें और मैं सब सुनूँ और दिल में घुटूँ, और छोटी मामी हैं कि वही सुलूक वही आव-भगत। रज़िया, तुम्‍हारे दुल्‍हा भाई आये हैं। पान दो, इलायची लाओ।

आफताब बेगम            - अच्‍छा तो यह सब किया-धरा तुम्‍हारी मामी का था।

मुहम्‍मदी बेगम - और क्‍या ! वह लड़की घण्‍टों रोए। कहीं मैं मिल जाऊँ तो दिल का ग़ुबार निकाल ले। एक महीना तो मैं चुप रही। फिर एक दिन दोनों मामू मुझसे मिलने आये। मैंने कहा, क्‍यूँ मामू जान, क्‍या रज़िया की मँगनी टूट गयी ? दोनों भाई चकरा गये, फिर मैं भरी बैठी थी - मैंने सब कच्‍चा चिट्ठा कह डाला। दोनों में कुछ राय हुई होगी। तीसरे दिन रज़िया का ब्‍याह हो गया।

आफताब बेगम - अल्‍लाह  अल्‍लाह  खैर सल्लाह[5]

मुहम्‍मदी बेगम - लेकिन बुआ यह छः  महीना घर में नहीं घुसे। हर समय चावड़ी[6] में पड़े रहते थे ! और मैं तो खुश थी। अल्‍लाह ग़वाह है जिस दिन यह इधर-उधर चले जाते हैं तो मैं चैन की नींद सोती हूँ। रोज़ यही है कि तुम रोज़-रोज़ की बीमार हो, मैं कब तक सब्र करूँ ? मैं दूसरा ब्‍याह करता हूँ। और फिर यह ज़िद है कि तुम मेरा ब्‍याह कराओ। शर`अ[7] में चार बीवियाँ जायज़ हैं तो मैं क्‍यूँ न ब्‍याह करूँ। मैंने तो कहा, बिस्मिल्‍लाह[8] करो। अब साल भर बाद साबरा की विदाई है। बाबा-बेटियों का साथ- साथ हो जाय। एक गोद में नवासा खिलाना, दूसरी में नई बीवी का बच्‍चा। बस लड़ने लगते हैं कि औरतें क्‍या जानें, ख़ुदा ने इनको एहसास ही नहीं दिया। मैं तो कहती हूँ कि तुममें सारे मर्दों का एहसास भरा है। अब क्‍या......

आफताब बेगम- (भड़क कर) मुहम्‍मदी बेगम ! जहाँ देखो यही आफत आई है। मर्दों में तो वह गुण हैं कि अट भी मारे पट भी। अब यह ज़ुल्म कि ब्‍याह भी करूँगा और यह भी बीवी ही कमबख्‍त।

मुहम्‍मदी बेगम - इसी से तो जल-जल कर अपने मरने की दुआ माँगती हूँ। एक तो हर समय की अपनी बीमारी, रोज-रोज का बच्‍चों का दुख अलग, बड़े बच्चे तो माशा अल्लाह तंदरुस्त हैं, पर छोटे बच्‍चे हर समय बीमार रहते हैं। इन सब बातों ने जीने का मज़ा बिलकुल खो दिया। और यह तो मैं जानती हूँ कि यह दूसरा ब्‍याह करेंगे ही, हर समय का यह धड़का अलग। ख़ुदा इससे पहले तो मुझे उठा ले कि मैं सौतन का मुँह देखूँ। और सौतन के डर से बुआ मैंने क्‍या-क्‍या न किया। दो बार अपरेशन भी कराया।

आफताब बेगम - ऐ हाँ, हमने तो सुना था कि तुमने अब कुछ ऐसा करवा लिया है कि अब बच्‍चे न होंगे।

मुहम्‍मदी बेगम - यह तुमसे किसने कहा ? सही बात यह थी कि पेट और नीचे का सारा जिस्‍म झुक आया था, तो उसको ठीक करवाया गया था कि फिर से मियाँ को नई बीवी का मजा आये। ऐ बुआ, जिस औरत के हर साल बच्‍चे हों उसका ज़िस्म कब तक ठीक रहेगा ? फिर खिसक गया। और फिर मेरे पीछे पड़ कर डरा-धमका कर मुझे कटवाया। और फिर भी खुश नहीं हैं।

                  (अज़ान की आवाज़ पास की मस्जिद से आती है)

आफताब बेगम – ऐ.... है,  ज़ुहर[9] का समय हो गया। बातों में ऐसी खोयी कि सब कुछ भूल गई।अब नमाज़ पढ़ के ही जाऊँगी। तुम्‍हारे भाई बेचारे इंतिज़ार कर रहे होंगे।

मुहम्‍मदी बेगम- ऐ आपा, आज तुम आ गईं तो इतना दिल का ग़ुबार निकल गया। जरा जल्‍दी-जल्‍दी आया करो। मैं तो बीमार हूँ, न कहीं आने की न कहीं जाने की। ऐ रहीमन ! रहीमन ! गुल शब्‍बो !!

                  (रहीमन आती है)

मुहम्‍मदी बेगम - जा बड़ी बेगम साहिबा को वुज़ू[10] करवा। और... और दालान में चौकी पर जा-ए-नमाज़[11] बिछवा दे।

                                         

                                          (पर्दा)

 



[1] वह स्थान जहाँ पुरुष रहते हों और औरतों का उस स्थान पर जाना उचित नहीं समझा जाता है।

[2] अरबी भाषा का एक वाक्य जिसका अर्थ है ‘ईश्वर की कामना या इच्छा से’ यह वाक्य बुरी नज़र से बचाने के उद्देश्य से बोला जाता है

[3] इस्लाम धर्म या मत के अनुसार उससे भिन्न अन्य धर्म या मत, मुसलमानी मत से भिन्न या दूसरा मत, इस्लाम धर्म की मान्यताओं एवं आज्ञाओं के विरुद्ध कोई सिद्धांत, ऐसा आचरण, बात या सिद्धान्त जो इस्लाम धर्म के प्रतिकूल या विरुद्ध हो

[4] इस्लाम धर्म के देवबंदी सम्प्रदाय के धर्मगुरु अशरफ अली थानवी की किताब का नाम।

[5] अरबी भाषा का वाक्य जिसका अर्थ है ‘इससे अधिक कुछ नहीं’।

[6] वह स्थान जहाँ यात्री ठहरते हों, पड़ाव।

[7] इस्लामी कानून

[8] अरबी भाषा का एक वाक्य जिसका अर्थ है ‘मैं अल्लाह के नाम से प्रारम्भ करता/करती’ हूँ इस्लाम में किसी भी कार्य या बात को प्रारम्भ करते समय बोला जाता है।

[9] दोपहर की नमाज़

[10] नमाज़ के लिए नियमपूर्वक हाथ-पाँव और मुंह आदि धोना।

[11] नमाज़ के लिए बिछाए जाने वाला कपड़ा, चटाई आदि।

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