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Khilafat o Mulukiyat 4-2/ ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत 4-2

 

किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत         

लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी

देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद

 

   अध्याय -4

  भाग-2

खिलाफत-ए-राशिदा से मुलूकिय्यत तक

इससे कोई शख्स इंकार नहीं कर सकता कह अपने खानदान के जिन लोगों को सयदना उस्मान (रजि०) ने हुकूमत के यह मनासिब दिए, उन्होंने आला दर्ज़े की इन्तिज़ामी और जंगी काबिलियतों का सुबूत दिया, और उनके हाथों बहुत सी फतुहात हुईं लेकिन ज़ाहिर है कह काबिलियत सिर्फ इन्ही लोगों में न थी दूसरे लोग भी बेहतरीन काबलियतों के मालिक मौजूद थे और इन से जियादा खिदमत अंजाम दे चुके थे महज़ काबलियत इस बात के लिए काफी दलील न थी कह खुरासान से लेकर शुमाली अफ्रीका तक का पूरा इलाका एक ही खानदान के गवर्नरों की मातहती में दे दिया जाता और मरकज़ी सेकेट्री पर भी उसी खानदान का आदमी मामूर कर दिया जाता अव्वल तो बजाए खुद काबिल-ए-एतराज़ थी कह मुमालिकत का रईस-ए-आला जिस खानदान का हो, मुमालिकत के तमाम औहदें भी उसी खानदान के लोगों को दे दिए जाएँ मगर उसके अलावा चंद असबाब और भी थे जिन की वज़ह से सूरत-ए-हाल ने और ज्यादा बेचैनी पैदा का दी

अव्वल यह कह इस खानदान के जो लोग दौर-ए-उस्मानी में आगे बढाए गए वो सब तुल्का में से थे ‘तुल्का’ से मुराद मक्का के वो खानदान हैं जो आखिर वक़्त तक नबी (स०) और दावते इस्लामी के मुखालिफ रहे फतह मक्का के बाद हुज़ूर (स०) ने उनको माफी दी और वो इस्लाम में दाखिल हुए हजरत मुआविया (रजि०), वलीद बिन उक्बा, मरवान बिन हकम उन्हीं माफ़ीयाफ्ता खानदान के अफराद थे, अब्दुल्लाह बिन सअद बिन अबि सरह तो मुसलमान होने के बाद मुर्तद हो चुके थे रसूल (स०) ने फतह मक्के के मौके पर जिन लोगों के बारे में यह हुक्म दिया था कह वह अगर खाना काबा के परदे से भी लिपटे हुए हों तो उन्हें क़त्ल कर दिया जाए, यह उन में से एक थे, हजरत उस्मान (रजि०) उन्हें लेकर अचानक हुज़ूर (स०) के सामने पहुँच गए और आपने महज़ उनके पास-ए-खातिर से उनको माफ़ फरमा दिया था फितरी तौर पर यह बात किसी को पसंद न आ सकती थी कह साबिकीन-अव्वलीन जिन्होंने इस्लाम को सर बुलंद करने के लिए जानें लड़ाई थीं, और जिन की कुर्बानियों से ही दीन को फ़रोग नसीब हुआ था, पीछे हटा दिए जाएँ और उन की जगह ये लोग उम्मत के सरखील हो जाएँ

दूसरे यह कह इस्लामी तहरीक की सरबराही के लिए यह लोग मौजू भी न हो सकते थे, क्यूँकि वो ईमान तो ज़रूर ले आये थे मगर नबी (स०) की सुहबत और तरबियत से उन को इतना फायदा उठाने का मौका नहीं मिला था कह उनके ज़हन व सीरत व किरदार की पूरी कल्ब-माहियत हो जाती वो बेहतरीन मुन्तजिम और आला दर्ज़े के फातेह हो सकते थे और फिल वाके वो ऐसे ही साबित भी हुए लेकिन इस्लाम महज़ मुल्कगीरी, मुल्कदारी के लिए तो नहीं आया था वो तो अव्लन् और ब`लज्जात एक दवात-ए-खैर और इस्लाह था, जिसकी सरबराही के लिए इन्तिजामी व जंगी काबिलियतों से बढ़ कर ज़हनी व अख्लाकी तरबियत की ज़रुरत थी और उसके एतबार से यह लोग सहाबा (रजि०) व ताबाईन की अगली सफ़्हों में नहीं बल्कि पिछली सफ़्हों में आते थे इस मामले में मिसाल के तौर पर मरवान बिन हकम की पोजीशन देखिए उस का बाप हकम बिन अबि अल-आस, हजरत उस्मान (रजि०) का चाचा था, फतह मक्के में मौके पर मुसलमान हुआ था और मदीना आकर रह गया था मगर उसकी बअज़ हरकात की वज़ह से रसूल अल्लाह (स०) ने उसे मदीने से निकाल दिया था और ताईफ में रहने का हुक्म दिया था इबने अब्दुर बरर ने अल इस्तियाब में उसकी एक वज़ह यह बयान की है कह रसूल अल्लाह (स०) अपने अकाबिर सहाबा के साथ राज़ में जो मशवरे फरमाते थे उन को किसी न किसी तरह सुन गुन लेकर उन्हें अफशा कर देता था और दूसरी वज़ह यह बयान की है कह रसूल अल्लाह (स०) की नकलें उतारा करता था, हत्ता कह एक मर्तबा हुज़ूर (स०) ने खुद उसे यह हरकत करते देख लिया [1] बहरहाल कोई सख्त कुसूर ही ऐसा हो सकता था जिस की बिना पर हुज़ूर (स०) ने मदीने से उसके इख्राज़ का हुक्म सादिर फरमाया मरवान उस वक़्त 7-8 बरस का था और वो भी उसके साथ ताईफ में रहा जब हजरत अबु बकर (रजि०) खलीफा हुए तो उन से अर्ज़ किया गया कह वो उसे वापसी की इज़ाज़त दे दें, मगर उन्होंने इंकार कर दिया हजरत उमर (रजि०) के ज़माने में भी उसे मदीने आने की इज़ाज़त न दी गई हजरत उस्मान (रजि०) ने अपनी खिलाफत के ज़माने में उसको वापस बुला लिया और एक रिवायत के मुताबिक आपने उसकी वज़ह यह बयान की कह मैंने रसूल अल्लाह (स०) से उसकी सिफारिश की थी और हुज़ूर (स०) ने मुझसे वादा फरमा लिया था कह उसे वापसी की इज़ाज़त दे देंगे इस तरह ये दोनों बाप बेटे ताईफ से मदीना आ गए[2]  मरवान के इस पसमंज़र को निगाह में रखा जाए तो यह बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है कह उसका सेकेट्री के मंसब पर मुकर्र किया जाना लोगों को किसी तरह गवारा न हो सकता था लोग हजरत उस्मान (रजि०) के एतमाद पर यह तो मान सकते थे कह हुज़ूर (स०) ने उनकी सिफारिश क़ुबूल कर के हकम को वापसी की इज़ाज़त देने का वादा फरमा लिया था इस लिए उसे वापसी बुलाना काबिल-ए-एतराज़ नहीं है लेकिन यह मान लेना लोगों के लिए सख्त मुश्किल था कह रसूल अल्लाह (स०) के इस मा`तूब शख्स का बेटा इस बात का भी अहल है कह तमाम अकाबिर-ए-सहबा (रजि०) को छोड़ कर उसे खलीफ़ा का सेकेट्री बना दिया जाए , जबकि उसका वो मा`तूब बाप ज़िंदा मौजूद था और अपने बेटे के ज़रिये हुकूमत के कामों पर असर अंदाज़ हो सकता था[3]

   जारी है ..... अध्याय 4 भाग 3 
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[1] अल इस्तियाब, जि०1, सफ०118,119,263

[2] इब्ने मजर, अलसाबा, जि०1, सफ० 344-354 | अल रियाजुल नजीरा, जि०2, सफ०143

[3] वाज़ेह रहे कि वो हजरत उस्मान (रजि०) के आखिर ज़माने तक ज़िंदा रहा है और 32 हि० में उसकी वफात हुई है |

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