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Khilafat o Mulukiyat 3-1/ ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत 3-1

 


किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत

लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी

देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद

 

   अध्याय -3

  भाग-1

खिलाफत-ए-राशिदा और उसकी खुसूसियात

सफ्हात-ए-गुज़श्ता में इस्लाम के जो उसूल-ए-हुक्मरानी बयान किये गए हैं, नबी (स०) के बाद खुलफ़ा-ए- राश्दीन की हुकूमत इन्ही उसूलों पर काइम हुई थी आं`हज़रत (स०) की बराए रास्त तालीम व तरबियत और अमली रहनुमाई से जो मुआशरा वुजूद में आया था उसका हर फर्द यह जानता था कह इस्लाम के अहकाम और उसकी रूह के मुताबिक़ किस किस्म का निजाम-ए-हुकूमत बनना चाहिए अगर चह आं`हज़रत (स०) ने अपनी जाँनशीनी के बारे में कोई फैसला नहीं किया था, लेकिन मुस्लिम मुआशरे के लोगों ने खुद यह जान लिया कह इस्लाम एक शूरी ख़िलाफ़त का तकाजा करता है इस लिए वहाँ न किसी खानदानी बादशाही की बिना डाली गई, न कोई शख्स ताक़त इस्तेमाल कर के बरसरे इक्तिदार आया, न किसी ने खिलाफत हासिल करने के लिए खुद कोई दौड़ धूप या बराए नाम भी इस के लिए कोशिश की, बल्कि यके बाद दिगर चार असहाब को लोग अपनी आज़ाद मर्ज़ी से खलीफ़ा बनाते चले गए इस खिलाफत को उम्मत ने खिलाफात-ए-राशिदा (रास्त-रौ ख़िलाफ़त) करार दिया है इस से खुद ब खुद यह बात ज़ाहिर होती है कह मुसलमानों की निगाह में खिलाफत का सहीह तर्ज़ यही है |

1-       इन्तिखाबी खिलाफत

नबी (स०) की जाँनशीनी के लिए हज़रत अबुबकर (रजि०) को हजरत उमर (रजि०) ने तजवीज़ किया और मदीने के तमाम लोगों ने (जो दर-हकीकत उस वक़्त पूरे मुल्क में अमलन् नुमाइंदा हैसियत रखते थे ) किसी दबाव या लालच के बगैर अपनी रजा व रगबत से उन्हें पसंद करके उनके हाथ पर बैत की

हजरत अबुबकर (रजि०)ने अपनी वफात के वक़्त हजरत उमर (रजि०) के हक में वसीयत लिखवाई और फिर मस्जिद नबवी में लोगों को जमा करके कहा-

“ क्या तुम उस शख्स पर राज़ी हो जिसे में अपना जाँनशीन बना रहा हूँ ? ख़ुदा की कसम मैने राय काइम करने के लिए अपने ज़ेहन पर जोर डालने में कोई कमी नहीं की है और अपने किसी रिश्तेदार को नहीं बल्कि उमर (रजि०) बिन ख़त्ताब को जाँनशन मुक़र्रर किया है लिहाज़ा तुम इन की सुनो और इताअत करो

“इस पर लोगों ने कहा हम सुनेंगे और इताअत करेंगे[1]

हजरत उमर (रजि०) की ज़िंदगी के आखरी साल हज में मौके पर एक शख्स ने कहा “अगर उमर (रजि०) का इन्तेकाल हुआ तो मैं फुलां शख्स के हाथ पर बैत कर लूंगा, क्यूँकि अबु बकर (रजि०) की बैत भी तो अचानक हुई थी और आखिर वो कामयाब हो गई[2]  हजरत उमर (रजि०) को इसकी इत्तेला हुई तो उन्होंने कहा कह मैं इस मामले पर एक तक़रीर करूंगा और” अवाम को उन लोगों से खबरदार करूंगा जो उन के मामलात पर गासिबाना तसल्लुत काइम करने इरादे कर रहे हैं ” चुनांचह मदीने पहुँच कर उन्होंने अपनी पहली तक़रीर में इस किस्से का ज़िक्र किया और बड़ी तफसील के साथ सकीफ़ा बनी साइदा की सरगुशित बयान कर के यह बताया कह उस वक़्त मखसूस हालात थे जिन में अचानक हजरत अबु बकर (रजि०) का नाम तजवीज़ कर के मैंने उनके हाथ पर बैत की थी इस सिलसिले में उन्होंने फ़रमाया “अगर मैं ऐसा न करता और खिलाफत का तस्फिया किये बगैर लोग मजलिस से उठ जाते तो अंदेशा था कह रातों रात लोग कहीं कोई गलत फैसला न कर बैठें और हमारे लिए इस पर राजी होना मुश्किल हुआ और बदलना भी मुश्किल यह फअल अगर कामयाब हुआ तो उसे आइन्दा के लिए नजीर नहीं बनाया जा सकता तुम में अबुबकर (रजि०) जैसी बुलंद व बाला और मकबूल शख्सियत का आदमी और कौन है? अगर कोई शख्स मुसलमान के मशवरे के बगैर किसी के हाथ पर बैत करेगा तो वह और जिसके हाथ पर बैत की जाएगी, दोनों अपने आप को क़त्ल के लिये पैश करेंगे[3]     

 अपने तशरीह कर्दा इस कायदे के मुताबिक़ हज़रत उमर (रजि०) ने अपनी वफात के वक़्त खिलाफत का फैसला करने के लिए इन्तिखाबी मजलिस मुक़र्रर की और फ़रमाया “जो शख्स मुसलमानों के मशवरे के बगैर जबरजस्ती अमीर बन्ने की कोशिश करे उसे क़त्ल कर दो।” उस के साथ उन्होंने अपने बेटे को खिलाफत के इस्तेह्काक से साफ़ अल्फ़ाज़ में मुत्सना कर दिया ताकि खिलाफत एक मौरूसी मंसब न बन जाए। [4] यह इन्तिखाबी मजलिस उन छ: अश्खास पर मुश्तमिल थी जो हजरत उमर (रजि०) के नज़दीक कौम में सबसे ज्यादा ब-असर और मकबूल–ए- आम थे |

इस मजलिस ने आखिर एक रुक्न, अब्दुल रहमान बिन औफ़ को खलीफा तजवीज़ करने का इख़्तियार दे दिया उन्होंने आम लोगों में चल फिर कर मालूम करने की कोशिश की कह अवाम का रुझान ज्यादातर किस शख्स की तरफ है हज से वापस गुजरते हुए काफिलों से भी दरयाफ्त किया और इस इस्तिसाब-ए-आम से वह इस नतीजे पर पहुंचे कह अक्सर लोग हजरत उस्मान के हक में है [5] इसी बुनियाद पर हजरत उस्मान (रजि०) खिलफत के लिए मुन्तखिब किये गए और मज`मा-ए- आम में उन की बैत हुई

हज़रात उस्मान (रजि०) की शहादत के बाद जब कुछ लोगों ने हजरत अली (रजि०) को खलीफा बनाना चाहा तो उन्होंने कहा “तुम्हें ऐसा करने का इख्तियार नहीं है यह तो अहल-ए-शूरा और अहल-ए-बदर के करने का काम है जिस को अहल-ए-शूरा और अहल-ए-बदर खलीफ़ा बनाना चाहेंगे वोही खलीफ़ा होगा पस हम जमा होंगे और इस मामले पर गौर करेगे [6]  तिबरी की रिवायत में हजरत अली (रजि०) के अल्फाज़ हैं –

“ मेरी बैत खुफिया तरीके से नहीं हो सकती, यह मुसलमानों की मर्ज़ी से ही होनी चाहिए[7]

हज़रत अली (रजि०) की वफात के वक़्त लोगों ने पूछा कह हम आपके साहबजादे हसन (रजि०) के हाथ पर बैत कर लें ? आपने जवाब में कहा “ मैं न तुम को इसका हुकुम देता हूँ और न मना करता हूँ, तुम लोग खुद अच्छी तरह देख सकते हो[8] एक शख्स ने ऐन उस वक़्त जब आप अपने साहबजादे को आखरी वसीयत कर रहे थे, अर्ज़ किया कह अमीरुल मोमिनीन अप अपना वली अहद क्यूँ नहीं मुक़र्रर कर देते जवाब में फ़रमाया “ मैं मुसलामानों को उसी हालत में छोडूंगा जिसमे रसूल अल्लाह (स०) ने छोड़ा था[9]  

इन वाकियात से साफ़ ज़ाहिर होता है कह खिलाफत के मुताल्लिक खुलफ़ा-ए- राश्दीन और असहाब-ए- रसूल (स०) का मुत्तफ़िक़ अलैह का तसव्वुर यह था कह यह एक इन्तिखाबी मंसब है जिसे मुसलामानों के बाहमीं मशवरे और उनकी आज़दाना रजामंदी से काइम होना चाहिए मौरूसी, या ताकत से बरसर-ए-इक्तिदार आने वाली अमारत उन की राय में खिलाफत नहीं बल्कि बादशाही थी सहबा-ए-कराम (रजि०) खिलाफत और बादशाही के फर्क का जो साफ़ और वाज़े तसव्वुर रखते थे उसे हजरत अबु मूसा अशअरी (रजि०) इन अल्फाज़ में बयान करते हैं –

“अमारत (यानी खिलाफत) वह है जिसे काइम करने में मशवरा किया गया हो और बादशाही वह है जिस पर तलवार के जोर से गलबा हासिल किया गया हो[10]

 

जारी है ...............अध्याय-3, भाग-2



[1] अल-तिबरी,तारीखुल उममी वल मलूक, जि०2 सफ० 618, अलमतबअतुल इस्तेकामा, काहिरा, 1939 ई०

[2] उस का इशारा इस बात की तरफ था कह हजरत उमर (रजि०) ने सकीफ़ा बनी साइदा की मजलिस में अचानक उठ कर हजरत अबुबकर (रजि०)का नाम तजवीज़ किया था और हाथ बढाकर फौरन् बैत कर ली थी उन को खलीफ़ा बनाने के मामले में पहले कोई मशवरा नहीं था

[3] बुखारी, किताबुल महार्बीन, बाब 16, मुसनद अहमद, जि०1, हदीस नम्बर 319, तबा सालस, दारुल मारफ, मिस्र, 1949 ई० मसनद अहमद की रिवायत में हजरत उमर (रजि०) के अल्फाज़ यह है – “ जिस शख्स ने मुसलमानों के मशवरे के बगैर किसी अमीर की बैत की उसकी कोई बैत नहीं और न उस शख्स की कोई बैत जिससे उसने बैत की ” एक और रिवायत में हजरत उमर (राजि०) के अल्फाज़ यह भी आये हैं कह “ जिस शख्स को मशवरे के बगैर अमारत दी जाए उस के लिए उसके लिए उस का क़ुबूल करना हलाल नहीं है ” (इब्ने हज़र,फतेहुल बारी, जि०2,सफ०125, अल मतबा अल खैरिया, काहिरा, 1325 हि० 

[4] अल-तिबरी, जि०3,सफ० 292 | इब्ने अलअसीर, जि०3,सफ०34-35, इदारतुल तबा अल मुनीरिया, मिस्र, 1356 हि०| तबकात इब्ने साद, जि०3,सफ०344 दारे सादर,बैरूत 1957 ई०| फतेहुल बारी, जि०7,सफ० 49 

[5] अल-तिबरी, जि०3,सफ० 296 | इब्ने अलअसीर, जि०3,सफ०36 | अल्बदाया वल नहाया, जि०7, सफ०146

[6] अबने कुत्ताबा, अल मामतावल सियासा, जि०1, सफ०41

[7] अल-तिबरी, जि०3, सफ०45 

[8] अल-तिबरी, जि०4,सफ०112, | अल सउदी, मुरूजुलज़हब, जि०2,सफ०42, अल मतबतुल बहिया, मिस्र 1346 हि०

[9] इब्ने कसीर, अलबदाया वल निहाया, जि०8,सफ०13-14, अलमत्बतुल सआदा, मिस्र-अल सऊदी, जि०2,सफ०42

[10] तबकात इब्ने साद, जि०4,सफ० 113

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