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Khilafat o Mulukiyat 3-2/ ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत 3-2

 


किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत

लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी

देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद

 

   अध्याय -3

  भाग-2

खिलाफत-ए-राशिदा और उसकी खुसूसियात

 

2-    शूरी हुकूमत

यह चार खुल्फाय-ए-हुकूमत के इंतिज़ाम और कानून साजी के मामले में कौम के अहल अल राय लोगों से मशवरा किये बगैर काम नहीं करते थे सुनन अल दारमी में हजरत मैमून बिन मेहरान की रिवायत है कह हजरत अबुबकर (रजि०) का कादा यह था कह जब उके पास कोई मामला आता तो पहले ये देख लेते कह इस मामले में किताब अल्लाह क्या कहती है अगर वहाँ कोई हुक्म न मिलता तो यह मालूम करने की कोशिश करते थे कह रसूल अल्लाह (स०) ने इस तरह के मामले में क्या फैसला फ़रमाया है और अगर सुन्नते रसूल (स०) में भी कोई हुक्म न मिलता तो कौम के सरकर्दा और नैक लोगों को जमा कर के मशवरा करते थे, फिर जो राय भी सब के मशवरे से करार पाती थी उस के मुताबिक़ फैसला करते थे [1] यही तर्ज़े-ए-अमल हजरत उमर (रजि०) का भी था [2]

मशवरे के मामले में खुल्फाय-ए-रश्दीन का तसव्वुर यह था कह अहल-ए-शूरा को पूरी आज़ादी के साथ इजहार-ए-राये करने का हक है इस मामले में खिलाफत की पालिसी को हजरत उमर (रजि०) ने एक मजलिस माशावरात की इफ्ताही तक़रीर में यूँ बयान किया था –

“ मैंने आप लोगों को जिस गर्ज़ के लिए तकलीफ दी है वह इस के सिवा कुच्छ नहीं है कह मुझे आपके मामलात की अमानत का जो भार डाला गया है उसे उठाने में आप मेरे साथ शरीक हों मैं आप ही के अफराद में से एक फर्द हूँ और आज आप ही लोग वह हैं जो हक का इकरार करने वाले हैं आप में से जिस का जी चाहे मुझ से इख्तिलाफ करे और जिस का जी चाहे मेरे साथ इत्तिफाक करे मैं यह नहीं चाहता कह आप मेरी ख्वाइश की पैरवी करें[3]

 

3-    बैतुल-माल के अमानत होने का तसव्वुर

बैतुल माल को वो खुदा और खल्क की अमानत समझते थे इस में कानून के खिलाफ कुछ आने और इस में से कानून के खिलाफ कुछ खर्च होने को वह जाइज न रखते थे फरमां रवाओं की जाती अगराज़ के लिए इसका इस्तेमाल उनके नज़दीक हराम था बादशाही और खिलाफत के दरमियान बुनियादी फर्क ही उनके नज़दीक यह था कह बादशाह कौमी खजाने को अपनी जाती मिल्क बनाकर उसमे अपनी ख्वाहिशात के मुताबिक आज़ादाना तसर्रुफ़ करता है और खलीफ़ा उसे खुदा और खल्क की अमानत समझ कर एक एक पाई हक के मुताबिक़ वुसूल और हक ही के मुताबिक़ खर्च करता है हजरत उमर (रजि०) ने एक मर्तबा हजरत सुलेमान फ़ारसी (रजि०) से पूछा “ मैं बादशाह हूँ या खलीफ़ा हूँ ?” उन्होंने बिलाताम्मुल जवाब दिया कह “अगर आप मुसलामानों की ज़मीन से एक दिरम भी हक के खिलाफ वुसूल करें और उसको हक के खिलाफ खर्च करें तो आप बादशाह है न कह खलीफ़ा” एक मौके पर हज़रत उमर (रजि०) ने अपनी मजलिस में कहा कह  “खुदा की कसम, मैं अभी तक यह नहीं समझ सका बादशाह हूँ या खलीफ़ा अगर मैं बादशाह हो गय हूँ तो यह बड़ी सख्त बात है” इस पर एक साहब ने कहा “ऐ अमीरुल मोमिनीन, इन दोनों में बड़ा फर्क है” हज़रत उमर (रजि०) ने पूछा वो क्या ? उन्होंने कहा “ खलीफा कुछ नहीं लेता मगर हक के मुताबिक़, और कुछ खर्च नहीं करता मगर हक के मुताबिक़ आप खुदा के फज़ल से ऐसे ही हैं रहा बादशाह तो वो लोगों पर ज़ुल्म करता है, एक से बेज़ा वुसूल करता है और दूसरे को बेज़ा अता कर देता है[4]

इस मामले में खुल्फा-ए-राश्दीन का तर्ज़-ए-अमल मुलाहिजा हो – “हज़रत अबुबकर (रजि०) जिस रोज़ खलीफा हुए उसके दूसरे दिन कंधे पर कपड़े के थान रख कर बेचने के लिए निकले, क्यूँकि खिलाफत से पहले यही उनका जरिया-मआश थारास्ते में हजरत उमर (रजि०) मिले और उन्होंने कहा ये आप क्या करते हैं ? जवाब दिया, अपने बाल बच्चों को कहाँ से खिलाऊं ? उन्होंने कहा, अब आप के और मुसलामानों की सरदारी का भार आ पड़ा है यह काम इसके साथ नहीं निभा सकता चलिए, अबुउबैदा (रजि०) (नाजिम बैतुल माल) से मिल कर बात करते हैं चुनांचह हजरत अबुउबैदा (रजि०) से गुफ्तगू की गई उन्होंने कहा, हम आपके लिए मुहाजरीन में से एक आम आदमी की आमदनी का मयार सामने रख कर एक वजीफा मुक़र्रर किये देते हैं जो इन के सबसे ज्यादा दौलतमंद के बराबर होगा न सबसे गरीब के बराबर इस तरह उनके लिए एक वजीफा मुक़र्रर कर दिया गया जो तकरीबन् 4000 दिरहम सालाना था मगर जब उन की वफात का वक़्त करीब आया तो उन्होंने वसीयत की कह मेरे तरके में से 8000 दिरहम बैतुल माल को वापस कर दिए जाएँ यह माल जब हजरत उमर (रजि०) के पास लाया गया तो उन्होंने कहा, खुदा अबुबकर (रजि०)पर रहमत फरमाए अपने बाद आने वालों को उन्होंने मुश्किल में दाल दिया[5] 

हजरत उमर (रजि०) अपनी एक तकरीर में बयान करते हैं कह बैतुल माल में खलीफ़ा का क्या हक है :

“मेरे लिए अल्लाह के माल में से इसके सिवा कुछ हलाल नहीं है कह एक जोड़ा कपड़ा गर्मी के लिए और एक जाड़े के लिए और कुरैश के एक औसत आदमी के बराबर मआश अपने घर वालों के लिए ले लूँ फिर में बस एक आदमी हूँ मुसलमानों में से[6]

एक और तक़रीर में फरमाते हैं “

“ मैं इस माल के मामले में तीन बातों के सिवा किसी चीज को सही नहीं समझता हक के साथ लिया जाए, हक के मुताबिक़ दिया जाये और बातिल से उसको रोका जाए मेरा ताल्लुक तुम्हारे इस माल के साथ वोही है जो यतीम के वली का ताल्लुक यतीम के माल के साथ होता है अगर में मोहताज़ न हूँ तो इस में से कुछ न लूंगा और अगर मोहताज़ हूँ तो मारूफ तरीके पर खाउंगा[7]

हजरत अली (रजि०) ने अपनी तनख्वाह का मयार वोही रखा जो हजरत अबुबकर सिद्दीक और हजरत उमर (रजि०) की तनख्वाहों का था आधी आधी पिंडलियों तक ऊँचा तहमत पहने रहते और वो भी अक्सर पैबंद लगा हुआ होता [8] उमर भर कभी ईंट पर ईंट रखने की नौबत न आई एक मर्तबा एक साहब जाड़े के ज़माने में आप से मिलने गए तो देखा कह एक बूसीदा चादर पहने बैठे हैं और सर्दी से कांप रहे हैं[9] शहादत के बाद आपके तर्के का जाइज़ा लिया गया तो सिर्फ 700 दिरहम निकले जो आपने एक गुलाम खरीदने के लिए पैसा पैसा जोड़ कर जमा किये थे[10] कभी किसी इसे शख्स से बाज़ार में कोई ऐसी चीज न खरीदते थे जो आपको जानता हो, ताकि वो कीमत में अमीरुल मोमिनीन होने की बिना पर आपके साथ रियायत न करे [11]  जिस जमाने में हजरत मुआविया (रजि०) से  उनका मुकाबला दर-पैश था, लोगों ने उनको मशवरा दिया कह जिस तरह हजरत मुआविया (रजि०) लोगों को बेतहाशा इनामत और अतिए दे दे कर अपना साथी बना रहे हैं आप भी बैतुल माल का मुंह खोलें और रुपया बहा कर अपने हामी पैदा करें मगर उन्होंने यह कह कर ऐसा करने से इंकार कर दिया कह “ क्या तुम चाहते हो मैं नारवा तरीकों से कामयाबी हासिल करूँ ?” [12]  उन के खुद बड़े भाई हजरत अकील (रजि०) ने चाहा कह वह बैतुल माल से उनको रूपये दें, मगर उन्होंने यह कह इंकार कर दिया कह क्या तुम चाहते हो कह तुम्हारा भाई मुसलामानों का माल तुम्हें दे कर जहन्नुम में जाए ?” [13]

 

                                                            जारी है ...... अध्याय-3 भाग- 3



[1] सुनन् अल दारमी, बाब अल फुत्या व माफिया मन अल शद्दा

[2] कन्जुल अमाल, जि०5, ह०2281

[3] इमाम युसूफ (रह०), किताबुल खराज़, सफ०25 

[4] तबकात इब्ने साद, जि० 3, सफ० 306-307

[5] कन्जुल अमाल, जि०5,ह०2280-2285

[6]इब्ने कसीर, अल बिदाया वल नहाया, जि० 7, सफ०134

[7] इमाम युसूफ (रह०) किताबुल हराज़, सफ०117

[8] इब्ने साद, जि० 3, सफ28

[9] इब्ने कसीर, जि०8, सफ०3

[10] इब्ने साद, जि०3, सफ०38

[11] इब्ने साद, जि०3, सफ०28 | इब्ने कसीर, जि०8, सफ० 3

[12] इब्ने अबी हदीया, शरह नेहजुल बलागा, जि०1, सफ०182, दारुल कुतुबुल अरबिया, मिस्र 1329 हि० 

[13] इब्ने कुतुबिया, अल माम्ता वल सियासा, जि०1, सफ 71 | हाफ़िज़ इब्ने हज़र ने अल इसाबा में लिखा है कह हज़रत अकील (रजि०) पर कोई क़र्ज़ था जिसे अदा करने से हजरत अली (रजि०) ने इंकार कर दिया था, इस लिए वो नाराज़ होकर हजरत मुआविया (रजि०) से जा मिले थे |( अल असाबा, जि०3,सफ०487, मतबअतुल मुस्तफा मुहम्मद, मिस्र 1939 ई०)

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