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Angare Story 8 /अंगारे कहानी -8

 


"अंगारे" कहानी -8

जवाँ -मर्दी

महमूदुज्ज़फर

हिंदी अनुवाद- फ़रीद अहमद

 

वो मेरी बीवी जा रही, मगर उसके होंटो पर वैसी मुस्कुराहट का नाम तक नहीं जैसा कि लोगों ने मेरे दिल को बहलाने के लिए मुझसे कहा था। बस हड्डीयों का एक ढांचा है। उसकी भयानक सूरत से दिखता है कि वो एक जानलेवा बीमारी का शिकार है और मौत का डर उस पर जारी है। उस की आँखों में मेरे लिए अब मज़ा और प्यार की जगह बेगानापन और नफ़रत है, मैं हक़दार ही इसका था। इस नफ़रत की वजह, वो नवजात बच्चा है जिसका सर उसके कुल्हे की हड्डीयों में अब तक फंसा दिखाई देता है जिसकी वजह से उसकी जान गई। ये भला किसे ख़्याल हो सकता था कि मेरी बीवी को मरते वक़्त मुझसे नफ़रत होगी। मैंने उसको तक्लीफ़ और मौत से बचाने के लिए कौन सी बात उठा रखी थी, मगर नहीं। मैं ही उस की मौत का ज़िम्मेदार हुआ, मैंने ही उसको दर्द और दुख पहुँचाया, मर्दों की जहालत और बेवकूफ़ी की कोई हद नहीं। मगर ये भी कहना सही नहीं कि मैं जहालत और बेवकूफ़ी का शिकार था। हाँ ये सरासर ग़लत है। दरअसल मैं ग़ुरूर के पंजे में गिरफ़्तार था जिसका मुझे अफ़सोस है।

हमारी शादी ऐसी उम्र में हुई थी जब हम में एक दूसरे के जज़्बात समझने की समझ तक न थी। लेकिन बाद में जो घटित हुआ उसका इल्ज़ाम मैं क़िस्मत, या ऐसे हालात पर जिन पर मुझे कोई क़ाबू न था, नहीं रखना चाहता।

मुझे अपनी बीवी से कभी मुहब्बत नहीं हुई और होती भी कैसे ? हम दोनों अलग अलग ज़िंदगी के थे। मेरी बीवी पुराने ज़माने की पतली, गन्दी गलियों में और मैं नए ज़माने की साफ़ और चौड़ी पक्की सड़कों पर। लेकिन जब मैं दूसरे देश में गया और उससे कई बरस तक दूर रहा तो कभी कभी मेरा दिल उसके लिए बेचैन होता था। वो अपने छोटे से अटूट पुराने क़िले में थी, और मैं ज़िंदगी की दौड़ धूप और बेकार इश्कबाज़ी से तंग आकर कभी कभी इस नैक और बावफ़ा औरत का ख़्वाब देखा करता था जो बिना किसी लालच के मुझ पर से सब कुछ लुटाने के लिए तैयार थी। जब मेरा ये हाल होता..... तो बेचैनी के साथ मुझे उससे मिलने की तमन्ना होती। एक बार जब  मेरी ऐसी हालत थी, कि मुझे उसका एक ख़त मिला। मैं बेचैन हो गया और फ़ौरन छः हज़ार मील की दूरी से अपने देश की तरफ़ चल पड़ा। उसने ख़त में लिखा था:-

“मैंने अभी तकिये के नीचे से आपका ख़त निकाल कर पढ़ा। बहुत छोटा है। शायद आप अपने में मगन होंगे, मगर ख़ैर मुझे इसकी कोई शिकायत नहीं, बस आपकी मुझे ख़ैरित पता चलती रहे और आप अच्छे रहें और ख़ुश रहें, मेरे लिए यही बहुत है। जब से मैं बीमार हूँ सिवाए इसके कि आपको याद करूँ और उन अजीब अजीब चीज़ों और नए नए लोगों का ख़्याल करूँ जिनसे आप वहाँ मिलते होंगे मुझे और काम नहीं। मुझसे चला नहीं जाता इस वजह से पलंग पर पड़ी पड़ी तरह तरह के ख़्याल किया करती हूँ। कभी तो इस में मज़ा आता है और कभी इससे बहुत तक्लीफ़ होती है, जब लोग मेरी सेहत के बारे में बात करते हैं और मुझसे हमदर्दी दिखाते हैं, और ये नसीहत करते हैं तो मुझे बहुत मायूसी होती है, ये लोग यह तक नहीं समझते कि मुझे क्या रोग है। उन्हें सिर्फ अपने दिल की तसल्ली के लिए मेरी हालत पर रहम आता है। अपने माँ-बाबा पर भी बोझ हूँ, वो अपने जी में सोचते होंगे कि जब मेरी शादी हो जाने के बाद भी मैं ऐसी बदनसीब हूँ कि उनके गले पड़ी हूँ। इसका नतीजा ये है कि मैं हर समय इस कोशिश में रहती हूँ कि बहुत ज़्यादा मायूसी और तकलीफ न दिखाऊँ और मेरे माँ-बाबा ऐसी कोशिश करते हैं जिससे ये दिखे कि उन्हें मेरी बीमारी की वजह से बड़ी परेशानी और फ़िक्र है। लेकिन दोनों तरफ़ बनावट ही बनावट है। मैं आपसे किसी बात की शिकायत करना नहीं चाहती और न आपके काम में रुकावट डालना चाहती हूँ। आप मुझे भूल न जाएँ और कभी कभी ख़त लिख दिया करें, मेरे लिए यही बहुत है बल्कि कभी कभी तो मुझे ये ख़्याल होता है कि आपका मुझसे दूर ही रहना ठीक है। मुझे डर इस बात का है कि जैसे बीमारी के बाद से यहाँ मैं क़रीब क़रीब सबसे अनजान सी हो गई हूँ वैसे ही मैं कहीं आपको भी न खो बैठूँ। दिन रात मेरी बुरी हालत देखकर कहीं आपका दिल भी मेरी तरफ़ से न हट जाये। वहाँ से तो आप बस इस बारे में सोच सकते हैं और मैं आपको अपना वो साथ देने वाला मान सकती हूँ जिसकी मेरे दिल को तमन्ना है।”

महमूदुज्ज़फर


जब मुझे ये ख़त मिला तो मुझ पर इश्क़-ओ-मुहब्बत की एक लहर सी दौड़ गई, जबकि कि वो बीमार थी और उसे रोग लग गया था मगर उसको सीने से लगाना मेरा फ़र्ज़ था, मैं ये साबित कर देना चाहता था कि मेरी मुहब्बत में कोई बात आड़े नहीं आ सकती, मैं चाहता था कि उसे पता हो जाये कि मैं ही वो साथ देने वाला हूँ जिसकी उसे तमन्ना थी, मैंने अपने को क़ुसूरवार और बुरा माना और उसको मासूम और निर्मल, जैसी उसने मेरे साथ नम्रता की और मेरी सेवा की, मेरा भी फ़र्ज़ था कि मैं उसके साथ वैसा ही सुलूक करूँ। ये इरादा कर के मैं अपना काम छोड़कर घर की तरफ़ चल खड़ा हुआ।

 मैं अभी रास्ते ही में था मेरे ख़्यालों में तबदीलियाँ होने लगीं। वो पहले का इरादा बिल्कुल ग़ायब हो गया और रोज़मर्रा की छोटी छोटी बातों की तरफ़ मेरे ख़्यालात दौड़ने लगे, जैसे रोज़ी कमाने का मैं कौन सा तरीका निकालूँगा अपने दोस्तों में से किन किन से मुलाक़ात जारी रखूँगा। अपने सुसर और सास से किस तरह मिलूँगा, उनसे साफ़ साफ़ बातें करूँ या ये कि उनकी तरफ़ से बेरुख़ी बरतूँ, वग़ैरा वग़ैरा। सिर्फ अपनी बीवी से मिलने की पहले जैसी तमन्ना बाक़ी न रही, ये ही नहीं बल्कि ज़रा ज़रा सी रोज़ाना ज़िंदगी की परेशानियों ने मेरी तमन्नाओं और उमंग का ख़ात्मा कर दिया। घर पहुँचने पर ये परिशानियाँ नफरत में बदल गईं, जिनसे भागना नामुमकिन था। पुराने ज़माने की जिन जिन दिल रिझाने वाली की मैंने अपने दिमाग़ में तस्वीर बनाई थी उनका कहीं पता भी न था। बजाए इसके मैंने ख़ुद को एक छोटी और अँधेरी, गंदी, ज़ुल्म और जहालत से भरी दुनिया में बंद पाया, स्टेशन पर जो लोग मुझसे मिलने आए उनमें बहुत से बेहूदा, बदमाश, तंगनज़र और बेकार तरह के आदमी थे, उन सबने बहुत ख़ुशी के साथ मेरा स्वागत किया, मुझे बिठाया गया, मुझपर बातें बनाई गईं, वही पुराने बेकार मज़ाक़ हुए और दूसरों की चुगली की गई। कई दिन तक बैठकों और दावतों का सिलसिला रहा। उसके बाद कहीं उन लोगों से छुटकारा मिली। इस बीच में मैं अपनी बीवी से सिर्फ थोड़ी थोड़ी देर के लिए मिल सका। लेकिन उसके तेल से चिपके हुए बाल, उस का दुबला पतला जिस्म और पीला चेहरा, दावतों, नाच- गानों, बैठकों और इधर उधर बातचीत के समय भी बार-बार मेरी नज़र के सामने आ जाता था।

जब सब मेहमान चले गए तो मैं अपनी बीवी के पास गया और उसके पास पलंग पर जा कर बैठा। वो सीधी लेटी रही और मेरी तरफ़ उसने नज़र उठा कर नहीं देखा। मैं थोड़ी देर तक तो उसकी हर साँस के साथ उसके सीने का उतार चढ़ाव देखता रहा। फिर मैंने उसका कमज़ोर हाथ अपने हाथ में ले लिया और कुछ देर तक हम दोनों यूँही ख़ामोश बैठे रहे। फिर मैं बोला -

“लीजिए अब तो मैं आपके पास आ गया, कुछ बातें कीजिए, आप इतनी चुप क्यों हैं ?”

उसने जवाब दिया, “मैं क्या बातें करूँ, ख़ैर आप आ गए।”

मैंने एकदम ये पाया कि इस तरह काम नहीं चलने का। मैंने शुरू में जो इरादा किया था वो मुझे याद आ गया और मैंने जल्दी से कहा -

“वाह, आपको कहना तो मुझसे बहुत कुछ है, इतने दिन जो में यहाँ नहीं रहा तो आप क्या करती रहीं और कैसी रहीं सब मुझे बताइए, आख़िर इतने दिन तक आपने मुझसे बातचीत नहीं की अब उसकी कसर निकालिए, याद है आपको, आपने मुझे एक बार ख़त में लिखा था कि आपको एक साथ देने वाले की तमन्ना है। मैं ही वो इंसान हूँ और अब आपके पास इसलिए आया हूँ कि हर समय आपके साथ रहूँ और कभी आपसे जुदा न हूँ।”

मगर मेरी तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। मेरी बातों से दिखता था कि रटे हुए पाठ की तरह हैं और उनसे मेरी बीवी की कोई तसल्ली नहीं हुई। कुछ देर तक मुझे ये उम्मीद रही कि उसे इसका शायद एहसास नहीं हुआ। मगर वो घबराहट और बेचैनी से मेरी टोपी उठाकर हाथों से मलने दलने लगी और फिर ऐसी बात शुरू की कि मुझे अपनी नाकामयाबी का यक़ीन हो गया।

उसने कहा-

 “भला मैं क्या कहूँ ? यहाँ तो जैसे दिन वैसी रात, लेकिन आप क्यों चुप हैं ? आपको नए नए अनुभव हुए होंगे, बहुत सी चीजों क वास्ता पड़ा होगा। आप मुझसे उन सब बातों का बयान कीजिए, वहाँ की अजीब अजीब चीज़ें, तरह तरह की मशीन, तरह तरह के लोग, नई ज़िंदगी, आप लिखा करते कि आपको इन सब के बारे में मुझे लिखने का समय नहीं, लेकिन अब तो आप मेरे पास हैं, अब तो आपको समय है।”

ये उसने जान कर मेरे घमंड पर हमला किया। अब मुझे मालूम हो गया कि बरसों की दूरी ने हमारे रिश्ते में कोई बदलाव नहीं किया, हम पहले की तरह अब भी एक दूसरे से अजनबी थे। और एक दरिया के दो अलग अलग किनारों पर अजनबी की तरह खड़े हुए थे, हमने फिर एक दूसरे के साथ दिखावा शुरू कर दिया।

मैंने कहा-

 “हाँ हाँ मुझे तो आपसे बहुत सी बातें करनी हैं, हम दोनों मिलकर क्या क्या करेंगे, ये तय करना है। लेकिन पहले आप जल्दी से अच्छी तो हो जाइए, जब आप अच्छी हो जाएँगी तब हम उस के बारे में बात करेंगे, अभी तो आपको ख़ामोशी से आराम करना चाहिए, आप अपने दिल-और दिमाग़ पर ज़ोर न डालिए, मेरे आने की वजह से शायद आपको थकान हो गई है। आप आराम कीजिए और ज़्यादा सोचिए मत, अच्छा मैं अब जाता हूँ आप सो जाइए।”

मैंने उसका हाथ छोड़ दिया और वहाँ से उठकर चला आया। उसके बाद न तो मैंने उससे ज़्यादा मिलने बढ़ाने की कोशिश की और न किसी ख़ास बात पर ज़्यादा देर तक बात ही की। दिन में एक दो बार उसे देखने जाया करता, पूछा करता कि उसकी स्वास्थ्य कैसा है और ऐसी ही दो एक बातें कर के चला आता और अपने काम में लग जाता। अचानक से मेरा काम भी इन दिनों कुछ अच्छा नहीं चल रहा था और मुझे फ़ुर्सत बहुत थी।

धीरे-धीरे मैं फ़िर अपने पुराने दोस्तों के साथ रहने लगा और उनकी बेकार और फुजूल आदतें मुझमें भी आ गईं। ताश, शराब और बिना सर पैर की बातों का सिलसिला जारी रहने लगा। हम अपने को संगीत का भी माहिर समझते थे और शहर की नामवर गाने वालियों के सरपरस्त बन बैठे। ऐसी हालत में ज़ाहिर है कि मैंने एक औरत भी रख ली थी। हमने बे-मतलब और बेवज़ह ज़िंदगी गुज़ारने का यही रास्ता निकाला था। हम में से जो लोग दूसरे  देशों का सफ़र कर आते थे वो अपनी जवाँ-मर्दी और आशिक़ी की दास्तानें दूसरों को सुना सुना कर उन पर रोब जमाते थे।

लेकिन मुझे अपनी बीवी से छुटकारा पाना नामुमकिन था। उसकी सेहत की ख़राबी की वजह से मेरे पास हाल चाल पूछने के लिए ख़त और दोस्तों और रिश्तेदारों का एक सिलसिला बना रहता। कोई मुझे समझाया करता तो कोई अपमानित, कोई दिलासा देता तो कोई हमदर्दी दिखाया करता, इन सब बातों से मेरी ज़िंदगी मुसीबत हो गई। मेरे सास और सुसर को मेरी लापरवाही बहुत चुभती थी, वो डरते थे कि कहीं मैं उनकी लड़की को बिलकुल छोड़ न दूँ। उधर मेरी माँ सुबह शाम मुझसे दूसरी शादी कर लेने पर ज़ोर देती थीं। ख़ानदान में दो ऐसे गिरोह बन गए जिन्हें एक दूसरे से सख़्त दुश्मनी थी। दोनों मुझे अपनी तरफ़ खींचने की हर समय कोशिश करते रहते थे।

लेकिन इसके बाद भी माँ के जोर देने पर भी मैं दूसरी शादी करने पर राज़ी नहीं हुआ। आख़िरकार लोगों ने मेरी मर्दानगी पर शक करना शुरू किया और तरह तरह की बातें करने लगे। इस पर तो मुझसे रहा न गया और मैंने ये सोच कर लिया कि कुछ न कुछ ज़रूर करना चाहिए।

मैं अपनी ससुराल गया और वहाँ जा कर कहा-

“आपकी लड़की बीमार वीमार कुछ भी नहीं, ये सब ख़्वाह-मख़ाह इसे अपने यहाँ रोकने के बहाने हैं। मैं उसे अपने साथ लिए जाता हूँ।”

अपनी बीवी से भी मैंने कहा-

“आप बिल्कुल बीमार नहीं, कम से कम ऐसी बीमार नहीं जैसा यहाँ लोग आपको बताना चाहते हैं, ये सब आपके माँ-बाबा की चाल है, ये बात कुछ आपसे छिपी हुई नहीं है, आप मेरे साथ चल कर रहिए तब पता चलेगा कि आपको क्या बीमारी है।”

पहले तो मेरी यह साफ़ बात उसकी कुछ समझ में नहीं आई मगर थोड़ी बहुत बहस के बाद वो मेरे साथ चलने पर राज़ी हो गई।

हम दोनों ने एक लंबा सफ़र किया, और दूर पहाड़ों पर जा कर रहने लगे बर्फ़िस्तान की सूखी और ताज़ा हवा में दूर दूर टहलने के लिए निकल जाते।

जब थोड़े दिनों बाद मेरी बीवी की सेहत ठीक हो गई तो मैं उसे लेकर घर आया। मेरे दोस्तों और रिश्तेदारों ने जब हमें देखा तो मेरे लिए ये बड़े गर्व का मौक़ा था। मगर उनके दिलों में शक बाक़ी रह गया वो पूरे सबूत के लिए किसी और चीज़ के इच्छुक थे। लेकिन मुझे अपनी कामयाबी का पूरा यक़ीन था। एक महीने के बाद दूसरा महीना आहिस्ता-आहिस्ता गुज़रता जाता था और मेरी बीवी का पेट बढ़ता जाता था।

मेरी हालत उस माली की सी थी जो अपने लगाए हुए पोधों पर कलियों को खिलते हुए देखकर बाग़ बाग़ होता है। हर हर दिन, हर हर लम्हा के बाद मेरी कामयाबी ज़्यादा नुमायाँ होती जाती। लेकिन मेरी बीवी ख़ामोश रहती। मैं समझता था कि इसका कारण गर्भ की घबराहट और परेशानी है। आख़िरकार उसको दर्दे शुरू हुआ। घंटों तक दर्द और बेचैनी रही। जिस्म तकलीफ से तड़प रहा था और किसी भी तरह  उसे चैन नहीं था। रूह तक मालूम होता था कि दर्द से चीख़ रही है। लेकिन उसकी बेचैनी और तड़प, उसकी आह और पुकार,  इन सबसे मेरी जवाँ-मर्दी का सबूत मिल रहा था।

म`आज़-अल्लाह[1] ! मेरे कानों में अभी तक उस का दर्दनाक कराहना गूंज रहा है। और इसके बाद चारों तरफ़ जो ख़ामोशी छा गई और जिसने मेरी अकड़ और शान को मिट्टी में मिला दिया, वो समय भी अभी तक मेरी आँखों के सामने है। लेकिन उसके मरने के बाद जब लोग मुझसे ये कहने आए कि मरते वक़्त उसके लबों पर मुस्कुराहट थी तो मेरे दिल को कुछ सुकून हो गया।

 



[1] अरबी भाषा का एक वाक्य जिसका अर्थ है-‘अल्लाह क्षमा करे’। जब कोई अनुचित बात कहते हैं तो उस समय बोला जाता है।

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