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पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाम मंटो का खुला ख़त



पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाम मंटो का खुला ख़त






फ़रीद अहमद

मंटो ने अपनी पूरी ज़िन्दगी में सिर्फ एक ही नॉवल लिखा जिसका शीर्षक है ‘बग़ैर उन्वान के’, जोकि 1954 ई० में प्रकाशित हुआ। इस नॉवल की भूमिका में मंटो ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाम एक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में मंटो ने भारत विभाजन के बाद रियासतों के भारत में विलय के सन्दर्भ में पंडित जवाहर लाल नहरू की तीख़ी आलोचनाएँ की तथा पंडित जवाहर लाल नहरू पर उर्दू भाषा को भारत से मिटाने का आरोप भी लगाया। साथ ही साथ मंटो ने अपनी कहानियों को भारतीय प्रकाशनों द्वारा भारत में ग़ैर कानूनी रूप से प्रकाशित करने, उनको तथा उनकी कहानियों को अश्लील बता कर प्रचार-प्रसार करने पर नाराज़गी जताते हुए पंडित जवाहर लाला नेहरु के गिरेबान पकड़ने तक की बात अपने इस ख़त मे लिख डाली। जिस तरह मंटो अपनी कहानियाँ बेबाक, बे-लाग और बे-खौफ़ होकर लिखते हैं, ठीक वोही अंदाज़ मंटो के इस ख़त में साफ़-साफ़ देखा, समझा और महसूस किया जा सकता है।




पंडित जी,
अस्सलामु-'अलैकुम!
यह मेरा पहला ख़त है, जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्लाह अमेरिकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमेरिका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज़ साझा है कि आप कश्मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो... कश्मीरी होने का दूसरा मतलब खू़बसूरती और खू़बसूरती का मतलब ? जो अभी तक मैंने नहीं देखा!
मुद्दत से मेरी इच्छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते ज़िंदगी में मुलाक़ात हो भी जाए)। मेरे बुजुर्ग तो आपके बुजुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाक़ात हो सके।
यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं। आवाज़ रेडियो पर अल‍बत्ता ज़रूर सुनी है, वह भी एक बार!
जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी इच्छा थी कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्मीरी का रिश्ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी ज़रूरत ही क्या है? कश्मीरी किसी न किसी रास्ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्मीरी से मिल ही जाता है!
आप किसी नहर के क़रीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो खै़र लाखों बार कश्मीर देखा होगा। मुझे सिर्फ़ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है। मेरे कश्मीरी दोस्त जो कश्मीरी भाषा जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब 'मंट' है यानी डेढ़ सेर का बट्टा। आप यक़ीनन कश्मीरी भाषा जानते होंगे। इसका जवाब लिखने की अगर आप ज़हमत फ़रमाएँगे तो मुझे ज़रूर लिखिए कि 'मंटो' नामकरण की वज़ह क्या है?
अगर मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुका़बला नहीं। आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर। आपसे मैं कैसे टक्कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं, जो कश्मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार 'धूप में ठस करती हैं...।'
क्षमा कीजिएगा, आप इसका बुरा न मानिएगा। मैंने भी यह फ़र्ज़ी कहावत सुनी तो कश्मीरी होने की वज़ह से मेरा तन-बदन जल गया। चूँकि यह दिलचस्प है, इसलिए मैंने इसका ज़िक्र मज़ाक़ के लिए कर दिया है। हालाँकि मैं आप दोनों अच्‍छी तरह जानते हैं कि हम कश्‍मीरी किसी भी मैदान में आज तक नहीं हारे।
राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व से ले सकता हूँ, क्‍योंकि आप, बात कह कर फ़ौरन खंडन करना आप ख़ूब जानते हैं। पहलवानी में हम कश्‍मीरियों को आज तक किसने हराया है। शाइरी में हमसे कौन बाज़ी ले सका है। लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ। अगर मैं तीस-चालीस हज़ार मन का पत्‍थर होता तो ख़ुद को इस दरिया में लुढ़का देता कि आप कुछ देर के लिए इसको निकालने के लिए अपने इंजीनियरों से विचार- विमर्श करते रहते!
पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं। आप भारत के प्रधानमंत्री हैं। उसी देश पर, जिससे हमारा भी संबंध रहा है। आपकी हुक्‍़मरानी है, आप सब कुछ हैं, लेकिन गुस्‍ताख़ी मुआफ़ कि आपने इस तुच्छ (जो कशमीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की। देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्‍प बात का जिक्र करता हूँ। मेरे पिता श्री (स्‍वर्गीय), जो ज़ाहिर है कि कश्‍मीरी थे, जब किसी हातो (कश्मीरी मज़दूर) को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते साथ कुलचा भी होता। इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, ‘मैं भी काशुर हूँ।’
पंडित जी, आप काशुर हैं... खु़दा की क़सम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक़्त हाज़िर है। मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ़ इसलिए कश्‍मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्‍मीरी होने के कारण कश्‍मीर से चुंबकीय लगाव है। यह हर कश्‍मीरी को, चाहे उसने कश्‍मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए। जैसा कि मैं इस ख़त में पहले लिख चुका हूँ। मैं सिर्फ़ बानिहाल तक गया हूँ। कद, बटौत, किश्‍तबार ये सब इलाक़े मैंने देखे हैं लेकिन हुस्न के साथ मैंने दरिद्रता देखी। अगर आपने इस दरिद्रता को दूर कर दिया है तो आप कश्‍मीर अपने पास रखिए। मगर मुझे यक़ीन है कि आप कश्‍मीरी होने के बावजूद उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फ़ुरसत ही नहीं।
आप ऐसा क्‍यों नहीं करते... मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए। मैं पहले आपके घर शलजम की सब्जी खाऊँगा। इसके बाद कश्‍मीर का सारा काम सम्‍हाल लूँगा। ये बख्‍़शी वगैरह अब बख्‍़श देने के काबिल है... अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं। इन्‍हें आपने ख्‍़वाहमख्‍़वाह अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ बड़ा रुतबा बख्‍़श रखा है... आखिर क्‍यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ। लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकूँ।
बटवारा हुआ, रेडक्लिफ ने जो झक मारनी थी मारी। आपने जूनागढ़ पर नाजाइज़ा कब्ज़ा कर लिया। जो कोई कश्मीरी किसी मरहटे के प्रभाव में ही कर सकता है। मेरा मतलब ‘पटेल’ से है। (ईश्वर उन्हें शान्ति दे)
हैदराबाद पर भी आपने हमला किया। वहाँ हजारों मुसलामानों का ख़ून बहाया और आखिर में उस पर कब्ज़ा जमा लिया। क्या यह सरासर ज़बरदस्ती नहीं?
आप अंग्रेज़ी भाषा के लेखक हैं। मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ... उस भाषा में जिसको आपके हिंदुस्‍तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है। पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ। इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्‍यार है। लेकिन मैंने आपकी एक तक़रीर रेडियो पर, जब हिंदुस्‍तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी... आपकी अंग्रेज़ी के तो सब प्रशंसक हैं लेकिन जब आपने दिखावटी उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेज़ी तक़रीर का अनुवाद किसी कट्टर महासभायी ने किया है। जिसे पढ़ते वक़्त आपकी ज़बान का जायका दुरुस्त नहीं था। आप हर वाक्यांश पर उबकाइयाँ ले रहे थे।
मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी लेखशैली पढ़ना कुबूल कैसे की... यह उस जमाने की बात है जब रैडक्लिफ़ ने हिंदुस्‍तान को डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफ़सोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए। उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम। लेकिन आपकी-हमारी अंगीठियों में आग बाहर से आ रही है।
पं‍डित जी, आजकल बग्गू-गोशों (नाशपाती) का मौसम है... गोशे तो ख़ैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बग्गू-गोशों खाने को जी बहुत चाहता है। यह आपने क्‍या ज़ुल्‍म किया कि बख्‍़शी को सारा हक़ बख्‍़श दिया है कि वह बख्‍़शीश में भी मुझे थोड़े से बग्गू-गोशे नहीं भेजता।
बख्‍़शी जाए जहन्‍नुम, में और बग्गू-गोशे नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें। मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्‍यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफ़सोस है कि आपने दाद नहीं दी। और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज़ियादा अफ़सोस की बात है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं।
आपसे मुझ एक और भी शिकायत है। आप हमारी नदियों का पानी बंद कर रहे हैं। और आपकी देखा-देखी आपकी राजधानी के पब्लिशर मेरी इज़ाज़त के बग़ैर मेरी किताबें धड़ा-धड़ छाप रहे हैं। यह भी कोई शराफ़त है .... मैं तो यह समझता हूँ कि आपके प्रधानमंत्री रहते ऐसी कोई बेहूदा हरक़त नहीं हो सकती है। मगर आपको फ़ौरन मालूम हो सकता है कि दिल्ली, लखनऊ और जालंधर में कितने पब्लिशरों ने मेरी किताब नाजायज तौर पर छपी हैं।
अश्‍लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुकदमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज़ियादती है कि दिल्‍ली में, आपकी नाक के बिलकुल नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह 'मंटो के फ़हश (अश्लील) अफ़साने' के नाम से प्रकाशित करता है।
मैंने किताब “गंजे फ़रिश्ते” लिखी है। इसको आपके भारत के एक पब्लिशर ने “पर्दे के पीछे” शीर्षक से पब्लिश कर दिया.... अब बताएं मैं क्या करूँ ?
मैंने यह नई किताब लिखी है। इसकी भूमिका यही ख़त है जो मैंने आपके नाम लिखा है... अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज़ तौर पर छप गई तो ख़ुदा की क़सम मैं किसी न किसी तरह दिल्‍ली पहुँच कर आपका गिरेबान पकड़ लूँगा, फिर छोड़ूँगा नहीं आपको... आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे। हर रोज़ सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ। साथ में एक कुलचा भी हो। शलजमों की सब्ज़ी तो ख़ैर हर हफ़्ते के बाद ज़रूर होगी।
यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा। उम्‍मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना ज़रूर देंगे और मेरी लेखनशैली के बारे में अपनी राय से ज़रूर अवगत करेंगे।
आपको मेरे इस ख़त से जले हुए गोश्‍त की बू आएगी..... आपको मालूम है, हमारे वतन कश्‍मीर में एक शायर 'गनी' रहता था जो गनी काश्‍मीरी के नाम से मशहूर है। उसके पास ईरान से एक शायर आया। उसके घर के दरवाजे खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था। वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्‍या है जो मैं दरवाजे बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाजे बंद कर देता हूँ। इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ।
ईरानी शाइर उसके वीरान घर में अपनी किताब छोड़ गया। इसमें एक शेर अधूरा था। मिस्र'अ-ए-सानी (शे'र की दूसरी पंक्ति) हो गया था, मगर मिस्र'अ-ए-ऊला (शे'र की पहली पंक्ति) उस शाइर से नहीं कहा गया था। मिसरा सानी यह था-
कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद
जब वह ईरानी शाइर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी किताब देखी। मिसरा ऊला मौजूद था-
कदाम सोख्‍ता जाँ दस्‍त जो बदामानत
पंडित जी, मैं भी एक सोख़्ता-जाँ (दिलजला) हूँ। मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ।
सआदत हसन मंटो
27 अगस्‍त, 1954



हिन्दी अनुवाद
फ़रीद अहमद (रिसर्च स्कॉलर)
हल्द्वानी (नैनीताल) उत्तराखण्ड
+91 9837232911



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