-फ़रीद अहमद
9 मार्च 1909 ई० पंजाब के क़स्बा कल्लर
सय्यादां जिला सहवाल पंजाब (पाकिस्तान) में कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’की
पैदाइश एक ऐसे मुअज्ज़िज़, मिलनसार, मोहब्बत, ख़ुलूस, कुर्बानी, इंसानियत और अमनपसंदी
के हामी खानदान में बाबा हरदत्त सिंह बेदी व माई बचन कौर के बतन से हुई | आपके
खानदान का ताल्लुक सिख मज़हब के बानी गुरु नानक देव जी से जा मिलता है |
कुंवर
महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ अपनी खुदनविश्त ‘यादों का ज़श्न’ में अपने खानदान के बारे
में लिखते हैं कि-
“मेरा खानदान हज़रत बाबा गुरु नानक देव
जी से मुंसलिक है | मैं बरा-ऐ-रास्त उनकी सत्रहवीं पुश्त हूँ |”
कुंवर
महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की इब्तेदाई तालीम क़स्बे के प्राइमरी स्कूल में हुई | आला
तालीम के लिए ‘चीफ्स कॉलेज लाहौर’ चले गए , वहां से 1925 ई० में सेन्ट्रल
कैम्ब्रिज डिप्लोमा हासिल कर कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने गवर्मेंट कॉलेज
लाहौर में दाखिला लिया जहाँ से आपने इतिहास और फारसी में डिग्री हासिल की |
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ अपनी
खुदनविश्त ‘यादों का ज़श्न’ में अपनी तालीम का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-
“ चीफ्स कॉलेज से फारिग होकर मैं गवर्मेंट कॉलेज
लाहौर में दाखिल हो गया ___ 1925 ई० से 1929 ई० तक इसी कॉलेज में तालीम हासिल करता
रहा , तारीख और फ़ारसी में बी० ए० किया “
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की
शादी महाराजा राजनीत सिंह ‘शेर-ऐ-पंजाब के
जनरल सरदार हऋ सिंह नालवा के पोते की पोती व सरदार बलवंत सिंह नालवा की बेटी
‘सुहैन्दर कौर से 1933 ई० में हुई | कुंवर महिन्दर सिंह बेदी ‘सहर’की तीन औलादें
हुईं जिनमे दो बेटे 1- कर्मजीत सिंह बेदी ,2-वीरेंद्र सिंह बेदी और एक बेटी
भूपेंदर कौर हैं |
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की पहली
मुलाजमत 1934 ई० में लाइलपुर के ‘एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर ‘ पद पर हुई | जिसका
ज़िक्र करते हुए कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ अपने आत्मकथा ‘यादों का ज़श्न’ में
लिखते हैं -
“जब मैं अपनी पहली तक़र्रुरी पर हाज़िर होने के लिए लाइलपुर जाने लगा तो इलाक़े के हजरों लोगों ने मुझे दुआएं देकर रुखसत करने आये __ बहुत से अज़ीज़ इस तरह गले मिले कि मैं लाइलपुर नहीं अदम आबाद जा रहा हूँ |”
1935 ई० में कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ का
तबादला फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट, रोहतक में हुआ | फिर 1937 ई० में छावनी
मजिस्ट्रेट जालंधर के ओहदे पर किया गया |
कुछ वक़्त बाद कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ का तबदाला माल अफसर नगड़ा व झेलम कर
दिया गया | इसके बद आपको नेशनल वार फ्रंट का इंचार्ज बनाया गया | नेशनल वार फ्रंट
में आपने पांच साल अपनी खिदमात को बखूबी अंजाम दिया | 1947 ई० में हिंदुस्तान के
वजीर-ऐ-आज़म जवाहर लाल नेहरु की हिदायत के मुताबिक
दिल्ली चले गए जहाँ आपको मजिस्ट्रेट के ओहदे पर तक़र्रुर किया गया | कुंवर
महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ 1952 ई० में एस०डी० एम०- सोनीपत , 1955 ई०में डिप्टी कमिश्नर - गुडगाँव, 1957 ई० में डिप्टी
कमिश्नर (जनसंपर्क व पर्यटन विभाग,पंजाब), 1959 ई० में डिप्टी कमिश्नर- संगरूर
,1963 ई० में डिप्टी कमिश्नर- करनाल, 1964 ई०में
डायरेक्टर (पंचायत विभाग ,पंजाब) ओहदों पर अपनी खिदमात को अंजाम देते हुए 1967 ई०में रिटायर्ड हुए |
रिटायर्डमेंट के बाद कुंवर महेन्दर सिंह
बेदी ‘सहर’ कई सरकारी इदारों ,महकमों व ओहदों पर अपनी खिदमात को पूरी इमानदारी और
हक़पसंदी के साथ निभाते रहे | और फिर 18 जुलाई 1998 ई० को कुंवर महेन्दर सिंह बेदी
‘सहर इस फानी दुनियां को खैराबाद कह गए |
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ मुख्तलिफ
सलाहियतों के मालिक थे | वो एक काबिल, कामिल और इमानदार मुलाजिम , एक बेहतरीन और
अहसासात के शायर , उम्दा नसर निगार , खुश फहम व खुश मिजाज़ इंसान की हैसियत रखते थे
|
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ के मुताल्लिक
‘कर्नल बशीर हुसैन जैदी’ ‘कहते हैं कि -
“कुछ लोग अपनी ज़ात से अंजुमन होते हैं ,
ऐसे लोगों में हमारे दोस्त कुंवर महेन्दर सिंह बेदी का भी शुमार होता है | खुश
पोश, खुश बयान, खुश अंदाज़ और खुश फ़िक्र | ‘सहर’ साहब महफ़िल में अपनी इन्ही खुसुसियात की बिना पर सब
की तवज्जो का मरकज़ बन जाते हैं |”(हमारे कुंवर साहब, सफ्ह-11)
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की ज़ात
और शख्सियत के बारे में मशहूर उर्दू फारसी के मुसन्निफ़ ‘मालिक राम’ लिखते हैं कि-
“कुंवर महेन्दर सिंह बेदी साहब सही मानी
में अपनी ज़ात में एक अंजुमन हैं | वो जहाँ भी रहे इनके गिर्द मुख्तलिफ
इल्मी,सक़फ्ती अमूर में दिलचस्पी रखने वाले अश्खास जमा हो गए, और यूँ एक इदारा कायम
हो गया |” (हमारे कुंवर साहब , सफ्ह -18)
उर्दू के माहिर नक्काद और कामिल
लिसानियत व अदबी मुआर्रिख ‘डॉ० ज़मील जालिबी’ कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ को
मोहब्बत का प्याम्बर तस्लीम करते हुए कहते है कि-
“कुछ लोग बड़े होते हैं लेकिन शायर बुरे
होते हैं | कुछ लोग शायर बड़े होते हैं लेकिन इंसान बुरे होते हैं | और कुछ लोग ऐसे
भी होते हैं शाज़ होते हैं कह शायर भी अच्छे होते हैं और इंसान भी अच्छे होते हैं |
ऐसे शायर इंसान जिन्हें देखकर मुहब्बत की महक आने लगती हैं और ख़ुलूस की कली नसीमे
सहर से खिल उठती है और सारी फिज़ा मोंतियाँ,चमेली और रात की रानी से महकने लगती हैं
| बर्रे सगीर के हवाले से अगर ऐसे लोगों की फहरिस्त बनाई जाए तो मेरा ख्याल है कि
फहरिस्त बनाने वालों को खासी दुश्वारी पेश आयेगी, लेकिन मुझे यकीन है कह इस
फहरिस्त में बल्कि सरे फहरिस्त जनाब कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ का नामे नामी
ज़रूर शामिल होगा , और न सिर्फ शामिल होगा बल्कि हर किस व नाकिस इस नाम पर सदके दिल
से इत्तेफाक भी करेगा |”(हमारे कुंवर साहब , सफह -49)
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की
सरसब्ज़ और शादाब शख्सियत को बेहद नुमाया अंदाज़ में बयां करते हुए मशहूर और मारूफ
उर्दूदां, प्रोफ़ेसर ‘गोपीचंद नारंग’ कहते है कि -
“...वो रिन्दों में रिंद,पारसाओं में
परसा,शायरों में शायर, अदीबों में अदीब,रहबरों में रहबर, अमीरों में अमीर, सूफियों
में सूफी, बटेरबाजों में बटेरबाज़, उर्दू में शायद ही एसा कसीरुलशफाल और
कसीरुलअतराफ़ आदमी दूसरा हो ... दूसरों की खिदमत करने , उनके काम आने वाला शफीक और
दर्दमन्द , मशराबे सुलहकुल में यकीन रखने वाला, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई में
फर्क न करने वाला ऐसा इंसान जिसमे रवादारी कूट कूट कर भरी है |”(हमारे कुंवर साहब,
सफ्ह-72)
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की
शख्सियत और किरदार लासानी था, कभी भी उनके ज़रिये किसी तरह का भी कोई मस्लकी
इंतेशार देखने को नहीं मिलता है और ना ही कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने बटवारे के अय्याम में किसी तरह की जानिबदारी से
काम लिया | तवील उम्र तक अंग्रेजी हुकूमत में मुलाजिम रहने के बावजूद आपकी
हुबुलवतनी पर कभी शक व शुबह की कोई गुंजाइश ही न रही |
सिलसिला चिश्तिया के सूफी और उर्दू के
माहिर अदीब ‘ख्वाजा हसन सानी निजामी’ कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ को गंगा-ज़मुना
तहजीब का पासबां करार देते हुए आपकी अज़मत, शख्सियत और किरदार को पेश करते हुए
लिखते हैं कि -
“कुंवर साहब ने ज़िन्दगी में बहुर से
उतार चढ़ाव देखे, आज़ादी की ज़द व ज़हद देखी,1947 का पुरआशूब ज़माना देखा |
...जंग-ऐ-आज़ादी के इन्तेहाई नाज़ुक दौर में अंग्रेजी हुकूमत का एक अफसर हने के
बावजूद , आज़ादी के बाद कोई उनकी तरफ ऊँगली उठाकर यह ना कह सका कह कुंवर साहब ने
फलां बात गलत कही थी और उनका फलां क़दम जाज़बह हुब्बुलवतनी के खिलाफ था |....फसादात
के दौर में दो फ़िरके जो एक दुसरे पर कम से कम एतमाद रखते थे , मुस्लिम और सिख
फ़िरके थे | लेकिन उस दौर में अगर कोई मुसलमान किसी सिख पर अपने भाई और जिगरी दोस्त
से भी ज्यादा एतमाद रख्र्ता था तो वो कुंवर महेन्दर सिंह बेदी थे |” (हमारे कुंवर साहब, सफ्ह-139)
‘ज़फर पयामी’ ने कुंवर महेन्दर सिंह बेदी
‘सहर की शख्सियत, मुलाज़मत , मकबूलियत और खसलत को बयां करते हुए लिखते है कि-
“लुत्फ़ यह है कह बेदी साहब न सिर्फ क़ाज़ी-ऐ-शहर दिल्ली रहे बल्कि उन तमाम
खुश तबइयों के बावजूद इस दौर के कामयाब तरीन क़ाज़ी कह सकते हैं | बल्कि मेरा ख्याल
है कह उन कि कामयाबी जिसका एतराफ गाँधी जी के अलावा सरदार पटेल, मौलाना आजाद और
पंडित नेहरु ने भी किया है |.... ऐसी मुकम्मल शख्सियत जो मेंढे लड़ाने में इतना लुत्फ़
हासिल करती है जितना कह मुशायरे की निजामत करने में |” (हमारे कुंवर साहब,
सफ्ह-174)
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की शायराना अजमत
पर रौशनी डालते हुए डॉ० नासिर नकवी रिसाला जमुनातट जुलाई 2001 के एक मज़मून में
लिखते है कि-
“कुंवर साहब एक फितरी और पैदाइशी शायर
थे | तालिब-ऐ-इल्मी के ज़माने में कालेज के उस्ताद सय्यद जलालुद्दीन हैदर और मोलवी
करामतउल्लाह ने उनकी शायरी के जज्बे को परवान चढ़ाने में एहम रोल अदा किया | पटौदी
के नवाब इफ्तेखार अली खां ने भी आप की हिम्मत अफज़ाई की |1923 से 1992 तक आप शायरी
करते रहे , आप ने अपनी शायरी में किसी से भी इस्लाह नहीं ली , अल्बत्ता आपने
मुआसरीन मैं ‘बेखुद देहलवी’, ‘साहिल देहलवी’, ‘हरी चन्द्र अख्तर’, ‘गोपी नाथ
अमन,’साहिर हौश्यारपुरी, ‘जोश मलीहाबादी’ और ‘जिगर मुरादाबादी’ की सुह्बतों से फैज़
उठाया |”
ये बात बिलकुल दुरुस्त है कि कुंवर महेन्दर
सिंह बेदी ‘सहर’ का कभी भी बारह-ऐ-रास्त अपना कोई उस्ताद नहीं रहा , आपने अपने
हल्के और शायराना तबियत के एह्बाबों की सुहबत में रह कर शायरी की , कभी किसी
उस्ताद शायर से अपनी शायरी की इस्लाह नहीं ली | अपनी शायरी और उस्ताद के मुताल्लिक
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ अपनी खुदनविश्त ‘यादों का ज़श्न’ में कहते है कि -
“मुझे खुद किसी उस्ताद के सामने
जानु-ऐ-तलम्मुज तय करने का शरफ़ हासिल नहीं हुआ |”
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ से
मुख्तलिफ उन्वान पर शायरी की है | आपकी शायरी में इश्क़, मोहब्बत की कैफ़ियत ,
जज्बात , एहसासात पाए जाते हैं |
इश्क़ और हुस्न मिले मिल के खुदा बन जायें
गर हो तिफरकः अंदाज़
न होने पाए
हम इश्क़ से बाज़ आयें यह बात तो ऐ नासह
मानेंगे ना मानी है कहते भी तो क्या कहते
अभी से इश्क़ में घबरा गए हैं आप ‘सहर’
अभी तो देखिये क्या क्या दिखाई देता है
हुस्न मैं और इश्क़ में इतना है फर्क
वोह नजर का है यह दिल का काम है
काश ऐसा भी हो मुहब्बत में
हम कहें और सुना करे कोई
हम राह-ऐ-मुहब्बत के मुसाफिर थे चले आएं
इतना भी न देखा कह कहीं शाम हुई है
किसी के इश्क़ से निस्बत है मेरी वहशत को
बहुत अज़ीज है दमन का तार तार मुझे
हर तरह से इश्क़ में मिट्टी ‘सहर’ खराब
कू-ऐ-बुतां मैं चैन
ना कू-ऐ-बुतां से दूर
हुस्न तो मुतलकन्न नहीं है साबित
इश्क़ आया है पी कर आब-ऐ-हयात
मुहब्बत का असर होगा रफ्ता रफ्ता
नज़र से मिलेगी नज़र रफ्ता रफ्ता
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने इश्क़
और मुहब्बत के एह्सासात के अलावा मज़हबी शायरी को भी अपने कलाम का मोजू बनाया है |
आपने तमाम मज़ाहिब के अज़ीम व तरीन शख्सियतों को अपने कलाम में रकम किया है-
एहले इस्लाम से लेना है इबादत का जलाल
और ईसाईयों से सब्र लगन इस्तिकलाल
हिन्दुओं से तुझे लेना है ज़हानत का कमाल
और सिखों से शुज़ाअत कह ना हो जिसकी मिसाल
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ सिख मज़हब के बानी बाबा गुरु
नानक देव जी की शख्सियत को रकम करते हुए कहते है -
इस तरह आखिर हुआ नानक का दुनिया में ज़हूर
फर्शे तलवंडी पे उतरा अर्श से रब्ब-ऐ-काफूर
उठ गया ज़ुल्मात का डेरा बढ़ा हर सिमंत नूर
मनबेए इन्वार से फैली शुआयें दूर दूर
बाबा गुरु नानक देव जी की तौसीफ के साथ
साथ कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने इस्लाम मज़हब के बानी मोहम्मद (स०) को
इंसानियत और आपसी मोहब्बत का अलमबरदार तस्लीम करते हुए नुजूल-ऐ-रसूल पर अशार कहते
है-
इश्क़ हो जाए किसी से कोई चारा तो नहीं
सिर्फ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा तो नहीं
हो जाएँ जब कह खलक-ऐ-खुदा माइल गुनाह
जब लोग भूल जायें मोहब्बत की रस्म व राह
खलक-ऐ-खुदा को राह पे लाने के वास्ते
सोते हुओं को फिर से जगाने के वास्ते
मज़हब इस्लाम की एक मुअत्बर शख्सियत वफ़ा
की तरफदारी और ज़ुल्म व जयादती के मुखालिफ हज़रत अली जिनको ‘शेरे खुदा’ का लक़ब मिला की शान को बयान
करते हुए कहते है –
हामी वफ़ा का दुश्मन-ऐ-ज़ौर व जफा है तू
बातिल शिकन अभी है अभी हक नुमा है तू
क्या खौफ इन्कलाब-ऐ-ज़माना का ऐ ‘सहर’
मुश्किल अगर है ज़ीस्त तो मुश्किलकुशा है तू
जो परतो तनवीर पयाम-ऐ-अज़्ली थे
जो शेरे खुदा अब्र-ऐ-करम लम यज्ली थे
जो लोह-ऐ-शुजात पे ‘सहर’ हर्फ़-ऐ-जली थे
हक्का कह अली थे वो
अली थे वो अली थे
हिन्दुस्तान की अज़ीम रूहानी शख्सियत
हज़रात निजामुद्दीन ओलिया (रह०) से अपनी अकीदत का इज़हार करते हुए कुंवर महेन्दर
सिंह बेदी ‘सहर’ कहते है -
ऐ निजामुद्दीन महबूब-ऐ-खुदा आली मुकाम
एक मजबूर-ऐ-मोहब्बत का तुझे पहुंचे सलाम
तेरे दरवाज़े पर यूँ खाली नहीं आया हूँ मैं
एक नकद-ऐ-जाँ है जो तेरे लिए लाया हूँ मैं
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने
मिर्सिये की रिवायत को ज़िंदा रखते हुए कई शख्सी
मर्सिये तखलीक किये | हिन्दुस्तान की कई मशहूर और मारूफ शख्सियतों के मर्सिये
तख्लीक़ किये है | मुजाहिद-ऐ-आज़ादी पंडित जवाहर लाल नहरू का ज़िक्र करते हुए कहते
है-
अमन-ऐ- आलम का पुजारी ग़म-ऐ-दौरां का नकीब
तेरे दामन में अमां पाते थे मोहताज वा गरीब
न कोई तेरा मुकाबिल न कोई तेरा रकीब
किसने पाया यह मुकद्दर यह सितारा यह नसीब
सब में रहता था मगर सब से जुदा लगता था
और बुत होंगे मगर तू खुदा लगता था
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने
माहिर-ऐ-तालीम,तहरीक-ऐ-आज़ादी में नुमाया किरदार अदा करने वाली शख्सियत डॉ० जाकिर
हुसैन का मर्सिया लिखा जिसमे आपके इन्तेकाल का ज़िक्र करते हुए कुंवर महेन्दर सिंह
बेदी ‘सहर’ कहते हैं--
जाने वाले तुझे हम याद करेंगे पैहम
कौन है जिसको नहीं तुझ से बिछड़ जाने का ग़म
मशअले राह बनेगा तेरा हर नक्श-ऐ-कदम
तुझ से था महर व मुरव्वत का ज़माने में भरम
गुल वा बुलबुल ही
नहीं सारा चमन रोता है
ओखले वाले तुझे सारा वतन रोता है
मुजाहिद-ऐ-आज़ादी , गैर मामूली ज़हीन और
दानिश्वर ‘मौलाना अबुल कलाम आज़ाद’ के मुख़्तसर मर्सिया में कुंवर महेन्दर सिंह बेदी
‘सहर’ कहते है-
मुल्क और कौम के अकीदतमंद
याद करते रहेंगे काम तेरा
मरहबा ऐ अबुलकलाम आज़ाद
ता क़यामत रहेगा नाम तेरा
मुल्क वा मिल्लत को नाज है तुझ पर
ता क़यामत रहेगी तेरी याद
कैद खाने में खुद रहा बरसों
मुल्क को कैद से किया आज़ाद
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने
हिन्दुस्तान के पहली खातून गवर्नर, सियासी लीडर बवकार सलाहियत की मालिक ‘सरोजनी
नायडू’ का मर्सिया लिखा | जिसमे आप सरोजनी नायडू की समाजी हैसियत का ज़िक्र करते
हुए कहते हैं-
तिफर्का बाज़ी से नफरत से तू कोसों दूर थी
दहर की ज़ुल्मात में अक्स-ऐ-ज़िराग तूर थी
दौलत दिल से मालामाल थी बहरपूर थी
तू मोहब्बत थी सरापा तू सरापा नूर थी
रज्म में जांबाज काविश बज़्म में रूह-ऐ-रवां
ऐ बुलबुल हिन्दुस्तान ऐ बुलबुल हिन्दुस्तान
उर्दू के मारूफ शायर, मुसन्निफ़, सियासतदां डॉ० इकबाल का
मर्सिया कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ने उन्ही की तर्ज़ ‘जवाब-ऐ-शिकवा’ की तरह
लिखा है | जिसमे डॉ० इकबाल के इन्तेकाल पर कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ खुदा से
शिकवा करते नजर आते है-
आलम-ऐ-फ़क़ीरी में की तूने जहाँबानी भी
तेरे मद्दाह हैं तातारी वा तूरानी भी
एहले अफरंग भी हिंदी भी खुरासानी भी
एहले चीन चीन में इरान में इरानी भी
हम जिधर देखें तेरी अंजुमन आराई है
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है
तू नहीं है तो नहीं क़ल्ब-ऐ-ज़माना सरशार
तू नहीं है तो नहीं दीदा-ऐ-फ़ितरत में खुमार
तेरे मर जाने का इस कदर मिहन है मुझो
शिकवा अल्लाह से खाकम बदहन है मुझको
बर्रे सगीर के
मशहूर और मारूफ शायर ‘जोश मलीहाबादी’ के मर्सिये में कुंवर महेन्दर सिंह बेदी
‘सहर’ ने अपनी केफियत को ज़ाहिर करते हुए कहते है-
रूह चमन वोह जाने
बहारां नहीं रहा
वो कज कलाह महफ़िल यारां नहीं रहा
वोह शहरयारा शहर फुगारां नहीं रहा
यूँ उठ गया कह बज़्म मैं अब ज़िन्दगी नहीं
हम दिल जला रहे हैं मगर रौशनी नहीं
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने जहाँ
एक तरफ पुर एहसास ग़ज़ल कहीं हैं वहीँ दूसरी
तरफ मिज़हियाह शायरी में भी अपना हुनर अजमाया है | आपकी मिज़हियाह शायरी से मालूम
होता है कि आप आपकी फितरत में मजाह शामिल था | आपने कई तकरीब और मुजू पर मिज़ाहिया
अशार कहें हैं |
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ अपनी
आत्मकथा ‘यादों का जश्न’ में मिज़ियाह
शायरी पर तबसरा करते हुए लिखते है -
“मिजाह निगारों को भी खुदा बख्शे कई
इक्साम होती हैं | मसलन साख्ता, खुद साख्ता, हवास बख्ता, सज़ा याफ्ता,
बरअफ्रूख्ता,फरोख्ता, साख्ता मिजाह निगार होते हैं ....उनके दिमाग और कलम सादा से
सादा मजमून में रंगीनियाँ, रानाइयाँ और दिलचस्पी भर देता है |”
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ अपने एक
अजीज दोस्त पुरुषोत्तम स्वरूप की बेटी की शादी कि तकरीब में मिज़हियाह अंदाज़ में
दोस्त की तारीफ करते हुए कहते है-
और हमारा भाई पुरुषोत्तम खुदा रखे उसे
बन्दा बे दाम कर लेता है मिलता है जिसे
खेलता भी खूब है पीता भी है खाता भी है
गाँठ का पूरा भी है और हाथ का दाता भी है
ताश के ऐसे खिलाड़ी रोज हाथ आयेंगे क्या
यह न दिल्ली में होगा तो हम खायेंगे क्या
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ की
मिज़ाहिया शायरी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि नज़्म ‘बीवी’ में बीवी के मुताल्लिक मिज़ाहिया
अंदाज़ में पुरलुत्फ़ अशार कहे हैं -
बड़े बड़े जहाँ में जो फातह आलम
नेपोलियन,एटलाहन,सिकंदर-ऐ-आज़म
मुबालगा यह नहीं शायद इक जमाना है
जहाँ झुके थे सर उनका ये आस्ताना है
मगर हुज़ूर में बीवी के इक गदा है यह
खामोश नाला है इक साज-ऐ-बे सदा है यह
जो घर में आये तो चूहे की चाल चलता है
यह वो जगह है जहाँ सब का दम निकलता है
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने
मुलाजमत और शायरी के अलावा फिल्मी दुनियां में भी तबे आजमाई | कई फिल्मों के लिए
गीत लिखे और फिल्मसाज़ी भी की | कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने अपने छोटे भाई
सुरेन्द्र सिंह बेदी के साथ मिलकर ‘मन जीते जग जीते’ (पंजाबी), दुःख भंजन तेरा नाम
(पंजाबी), पापी तिरे अनेक (पंजाबी), चरनदास (हिंदी) और प्यासी आँखे (हिंदी)
फिल्मों की फिल्मसाज़ी की |
लेकिन फिल्मसाज़ी में कामयाबी हासिल न हो
सकी | जिसका ज़िक्र करते हुए कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ के अज़ीज दोस्त ‘कश्मीरी
लाल जाकिर ‘ कहते है कि-
“लेकिन कुंवर साहब फिल्म के आदमी नहीं ,
चार फ़िल्में बनाई और नुक्सान उठाया | मुझे
ख़ुशी है कह अब उन्हीने फिल्म बनाने का इरादा तर्क कर दिया |” (हमारे कुंवर साहब ,
सफ्ह- 146)
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ का पहला
शायरी मज़्मूआ ‘तुलू-ऐ-सहर’ है जिसकी 1962 ई० में इशाअत हुई | ये मज़्मूआ ग़ज़ल के
अशआर पर मुश्तमिल है | ‘तुलू-ऐ-सहर’ के मुताल्लिक मशहूर शायर तिलोक चंद महरूम कहते
है कि-
रू नुमा मशरिक-ऐ-अदब से हुआ
जाँ फिजां जलवा तुलु-ऐ-सहर
बाईस-ऐ-इन्बिसात-ऐ-दीदह
व दिल
ऐ खुशा जलवा-ऐ-तुलु-ऐ-सहर
माहिर –ऐ- उर्दू ‘जगन्नाथ आजाद’ तुलु-ऐ-सहर पर
इज़हार-ऐ-ख्याल पेश करते हुए कहते हैं-
मज्मूआ यह तुलू-ऐ-सहर जिसका नाम है
महरो वफा व सदक व सफा का पयाम है
आज़ाद इस के नूर से दू दुनिया-ऐ-शायरी
ताबंदा क्यूँ न हो कह सहर का कलाम है
‘यादों का जश्न’ कुंवर महेन्दर सिंह
बेदी ‘सहर’ की खुद नविश्त सवानेह उमरी है | जो कि 1986 ई० में शाया हुई | जिसमे
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ ने अपनी ज़िन्दगी के अहम् वाक्यात और नुमाया पहलों
को बेलगाम रवानी के साथ दर्ज किया है | प्रोफेसर ‘गोपी चंद नारंग’ यादों का जश्म
के मुताल्लिक अपना ख्याल पेश करते हुए लिखते हैं कि-
“खुदनविश्त ‘यादों का ज़श्न’ के सफ्हात ऐसे
सेकड़ों वाकियात से लबरेज हैं ... इस किताब में खानदानी बुजुर्गों, लड़कपन, तालीम व
तरबियत, मुलाजमत, तकुर्ररियों और तबादलों के हालात भी हैं | मुशायरों,
शिकारों,ज़मीदारों और दोस्तों का भी ज़िक्र है .... हर जगह बेदी साहब की शख्सियत साफ़
साफ़ दिखाई देती है |” (हमारे कुंवर साहब, सफ्ह-80)
‘के० एल० नारंग साकी’ ने 1992 ई० में
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ के तमाम शायरी को ‘कुल्यात सहर’ के नाम से तरतीब कर
शाया किया |
कुंवर महेन्दर सिंह बेदी ‘सहर’ को किसी
उस्ताद के सामने जानुये तलम्मुज ते करने का शरफ़ हासिल नहीं हुआ, लेकिन आप उस्ताद
ज़रूर रहे आपके कई शागिर्द रहे है , जिनका ज़िक्र आपनी ‘यादों का जश्न’ में भी किया
है | आपके शागिर्दों में –
अब्दुल रहीम खां ‘साहिल सहरी’
अशरफ अली ‘रअना सहरी’
सय्यद सैफुल हसन ‘सैफ सहरी’
माजिद देवबंदी
रूमी भारद्वाज
कमर जावेद
परवेज काकोरवी
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