किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत
लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी
देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद
अध्याय -1
भाग-6
दस्तूर के बुनियादी
उसूल
[i] इस रियासत का दस्तूर
जिन बुनियादी उसूलों पर काइम होगा वह यह है –
“ ऐ लोगों ! जो ईमान लाए हो
इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो ररूल की और उन लोगों की जो तुम में से ऊलिल-अम्र
हों, फिर तुम्हारे दरमियान किसी मामले में निज़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की
तरफ फैर दो अगर तुम अल्लाह और रोज-ए-आखिर पर ईमान रखते हो।” (4 : 59)
यह आयत छः दस्तूरी
नुकात वाज़ेह करती है :
1-
अल्लाह और रसूल की इताअत का हर इताअत पर मुक़द्दम होना।
2-
ऊलिल-अम्र की इताअत का अल्लाह और रसूल की इताअत के तहत होना।
3-
यह कह ऊलिल-अम्र ईमान में से हों।
4-
यह कह लोगों को हुकाम और हुकूमत से निज़ा का हक हो।
5-
यह कह निज़ा की सूरत में फैसला कुन सनद खुदा और रसूल का कानून है।
6-
यह कह निजाम-ए-खिलाफत में एक ऐसा इदारा होना चाहिए जो ऊलिल-अम्र और अवाम के
दबाव से आज़ाद रह कर उस बालातर कानून के मुताबिक़ जुमला निज़ाअत का फैसला दे सके।
[ii] मुन्तज़िमा (Executive) के इख्तियारात
लाजमन् हुदूद अल्लाह से महदूद और खुदा और रसूल के कानून से महसूर होंगे जिससे तज़ावुज़
कर के वो न कोई ऐसी पालिसी इख्तियार कर सकती है न कोई ऐसा हुक्म दे सकती है जो
मअसियत की तारीफ में आता हो। क्यूँकह इस आईनी दायरे से बहार जाकर उसे इताअत के मुताल्बा
का हक ही नहीं पहुंचता (इस के मुताल्लिक कुरआन के वाज़ेह अहकाम हम ऊपर पैराग्राफ
नम्बर 3,5 और 9 में नक़ल कर चुके हैं ) अलावा वह बरीं यह मुन्तज़िमा लाज़मन् शूरा,
यानी इन्तिखाब के ज़रिये से वुजूद में आनी चाहिए और उसे शूरा यानी बाहमी मशावरत ही
के साथ काम करना चाहिए जैसा कह पैराग्राफ 10 में बयान किया जा चुका है। लेकिन इन्तिखाब और मुशावरात,
दोनों के मुताल्लिक कुरआन कतअई और मुताय्यन सूरतें मुक़र्रर नहीं करता बल्कि एक
वासी उसूल कायम करके उस पर अमल दरआमद करने की सूरतों को मुख्तलिफ ज़मानों में
मुआशरे के हालात और ज़रुरत के मुताबिक़ तय करने के लिए खुला छोड़ देता है।
[iii] मुकंनिना (Legislature) लाजमन् एक शूरवी
हैय्यत (Consultative body) होनी चाहिए ( मुलाहज़ा हो पैराग्राफ
10) लेकिन उसके इख्तियारात-ए-कानून साजी बहर-हाल
उन हुदूद से महदूद होंगे जो पैराग्राफ 3,5 में बयान किये गए हैं। जहाँ तक उन उमूर का ताल्लुक
है जिन में खुदा और रसूल ने वाज़ेह अहकाम दिए हैं या हुदूद और उसूल मुक़र्रर किये
हैं, यह मुकंनिना उन की ताबीर व तशरीह कर सकती है, उन पर अमल दरआमद के लिए जामनी
क़वाइद और जाब्ता कारवाही तजवीज़ कर सकती है , लेकिन उन में रद्द ओ बदल नहीं कर सकती। रहे वह उमूर जिन के लिए बलातर
कानून-ए-साज़ ने कोई कतअई अहकाम नहीं दिए हैं , न हुदूद और उसूल मुतअय्यन किये हैं,
उन में इस्लाम की स्प्रिट और उसके उसूल-ए-आम्मा के मुताबिक़ मुकंनिना हर ज़रुरत के
लिए कानून साजी कर सकती है। क्यूँ कह उन के बारे में कोई हुक्म न होना ही इस बात की दलील
है कह शा`रे ने उन को अहल-ए-ईमान की सवाबदीद पर छोड़ा दिया है।
[iv] अद्लिया (Judiciary) हर तरह की
मुदाख्लत और दबाव से आज़ाद होनी चाहिए ताकह वह अवाम और हुक्काम सब के मुकाबले में
कानून के मुताबिक़ बेलाग फैसला दे सके। उसे लाजमन् उन हुदूद का पाबंद रहना होगा जो पैराग्राफ
नम्बर 3,5 में बयान हुए हैं। और उसका फ़र्ज़ होगा कह अपनी और दूसरों की ख्वाहिशात से
मुतास्सिर हुए बगैर ठीक-ठीक हक और इन्साफ के मुताबिक़
मुआमलात के फैसले करे :
“ और अपनी ख्वाहिशे-ए-नफ्स की पैरवी न कर कह खुदा के रास्ते से तुझे भटका ले जाए।” ( 38:26)
“ और जब लोगों के दरमियान फैसला करो तो अदल के साथ करो।” ( 4 : 58)
रियासत का मक़सद
इस रियासत को दो बड़े मक़सद के लिए काम करना चाहिए। अव्वल यह कह इंसानी ज़िंदगी
में अदल काइम हो और ज़ुल्म व जौर ख़त्म हो जाए :
“ हमने अपने रसूलों को वाज़ेह हिदायत के साथ भेजा और उनके
साथ किताब और मीज़ान[1]
नाजिल की ताकि लोग इन्साफ पर काइम हों और हमने लौहा नाजिल किया[2] जिसमे सख्त कुव्वत और लोगों के
लिए मुनाफ़े हैं।” (57 : 25)
दूसरे यह कह
हुकूमत की ताक़त और वसाइल से इकामात-ए-सलात और इता-ए-ज़कात का निजाम काइम किया जाए
जो इस्लामी ज़िंदगी का सुतून है। भलाई और नेकी को तरक्की दी जाए जो दुनिया में इस्लाम के
आने का अस्ल मक़सद है, और बुराई को दबाया जाए जो अल्लाह को सबसे ज्यादा मबगूज़ है :
“ यह वह लोग हैं कह अगर हम उन्हें ज़मीन में इक्तिदार दें तो यह नमाज़ कायम करेंगे, ज़कात देंगे, नेकी का हुक्म देंगे और बदी से रोकेंगे।” ( 22 : 41)
बुनियादी हुकूक
इस निज़ाम में रहने वाले मुस्लिम गैर मुलिम बाशिंदों के बुनियादी हुकूक यह
हैं जिन्हें तअद्दी से महफूज़ रखना रियासत
का फ़र्ज़ है।” [3]
[i] जान का तहफ्फुज़-
“ किसी जान को जिसे अल्लाह ने हराम किया है हक के बगैर क़त्ल न करो।” ( 17 : 33)
[ii] हुकूक-ए-मिलकिय्यत का तहफ्फुज़-
“ अपने माल आपस में ना जाइज़ तरीके से ना खाओ।” (4 : 29)
[iii] इज्ज़त का तहफ्फुज़-
“ कोई गिरोह किसी दूसरे गिरोह का मजाक न उड़ाए........ और न तुम एक दूसरे को ऐब लगाओ, न एक दूसरे को बुरे लक़ब दो............ न तुम में से कोई किसी की पीठ पीछे उस की बदी करे।” ( 49 : 11-12)
[iv] निजी ज़िन्दगी (Privacy) का
तहफ्फुज़-
“अपने घरों के सिवादू घरों में दाखिल न हो जब तक कह इज़ाज़त न ले लो।” ( 24 : 27)
“ और लोगों के भेद न टटोलो |” (49 : 12)
[v] ज़ालिम के खिलाफ आवाज़ उठाने का हक-
“ अल्लाह बुराई पर ज़बान खोलना पसंद नहीं करता इल्ला यह कह किसी पर ज़ुल्म हुआ हो।|” ( अल 4 : 147)
[vi] अम्र बिल मारूफ ओ नहि अनल मुनकिर का हक जिस में तनक़ीद की आजादी का हक भी शामिल है-
“ बनी इस्राइल में से जिन लोगों ने कुफ्र किया उन पर दाऊद और ईसा इब्ने मरयम
की ज़बान से लानत की गई, यह इस लिए कह उन्होंने न फ़रमानी की और वो ज्यादती करते थे,
वो एक दूसरे को बुरे कामों के इर्तिकाब से रोकते न थे, बुरी बात थी जो वो करते थे |” (5 : 78-79)
“ हम ने अज़ाब से बचा लिया उन लोगों को जो बुराई से रोकते थे और पकड़ लिया जालिमों को अज़ाब-ए-सख्त में उस फ़िस्क़ के बदले जो वो करते थे।” (7 : 165)
“ तुम वो बेहतरीन उम्मत हो जिसे निकाला गया है लोगों के लिए, तुम नेकी का हुक्म देते हो और बदी से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो।” ( 3:110)
[vii] आज़ादी का इज्तिमा (Freedom of association) का हक, बशर्ते कह वो नेकी और भलाई के
लिए इस्तिमाल हो और मुआशरे में ति`फिर्के और बुनियादी इख्तिलाफात बरपा करने का
ज़रिया न बनाया जाए :
“ और होना चाहिए तुम में से एक ऐसा गिरोह जो दावत दे भलाई की तरफ और हुक्म दे नेकी का और रोके बदी से, ऐसे ही लोग फलाह पाने वाले हैं । और न हो जाओ उन लोगों की तरह जो मुतफर्रिक हो गए और जिन्होंने इख्तिलाफ किया जब कह उन के पास वाज़ेह हिदायत आ चुकी थीं। ऐसे लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।” (3 : 104-105)
[viii] ज़मीर व ए`तिक़ाद की आजादी का हक-
“ दीन में ज़बर नहीं है।” ( 2 : 265)
“ क्या तू लोगों को मजबूर करेगा कह वो मोमिन हो जायें ?” ( 10 : 99)
“ फितना क़त्ल[4] से शदीदतर चीज है |” ( 2 : 191)
[ix] मज़हबी दिल आज़ारी से तहफ्फुज़ का हक-
“ ये लोग खुदा को छोड़ कर जिन माबूदों को पुकारते हैं उन्हें गालियाँ न दो।” ( 6 : 109)
इस मामले में कुरआन ये सराहत करता है कह मज़हबी इख्तिलाफात में इल्मी बहस तो की
जा सकती है मगर वो अहसन तरीके से होहूनी चाहिए:
“ अहल-ए-किताब के साथ बहस न करो मगर अहसन तरीके से।” (29: 46)
[x] यह हक कह हर शख्स सिर्फ अपने आमाल
का ज़िम्मेदार हो और दूसरों के अमाल की ज़िम्मेदारी में उसे न पकड़ा जाए:
“ हर मुतनफ़्फ़िस जो बुराई कमाता है उसका वबाल उसी पर है और कोई बोझ उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठता[5]।”
[xi] यह हक कह किसी शख्स के खिलाफ कोई कार्रवाई
सुबूत के बगैर और इन्साफ के मारूफ तकाजे पूरे किये बगैर न की जाए:
“ अगर कोई फासिक़ तुम्हारे पास कोई खबर लेकर आये तो तहकीक कर लो, ऐसा ना हो कह तुम किसी गिरोह को बे`जाने बूझे नुक्सान पहुंचा दो और फिर अपने किये पर पछ्ताओं।” ( 49 : 6)
“किसी ऐसी बात के पीछे न लग जाओ जिसका तुम्हें इल्म न हो।” (17 : 36)
“ और जब लोगों के मामलात में फैसला करो तो अदल के साथ करो।” 4 : 58)
[xii] यह हक कह हाज़त-मंद और मेंहरूम
अफराद को उनकी नागुजीर ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी फराहम की जायें:
“ और उनके मालों में हक है मदद मांगने वालों का और मेहरूम का।” (51 : 19)
[xiii] यह हक कह रियासत अपनी रीआया और
तफरीक में इम्तियाज न करे बल्कि सब के साथ यकसा बर्ताव करे ।”
“ फिरौन ने ज़मीन में सर उठाया और उसके बाशिंदों को गिरोह में तकसीम किया जिन मे से वो एक गिरोह को कमज़ोर बना कर रखता था..............यकीनन् वो मुफ्सिद लोगों में से था।” ( 28 : 4)
[1] मीज़ान से मुराद अदल है जैसा कह मुजाहिद और कातादह वगैरह
मुफस्सरीन ने कहा है (इब्ने कसीर, ताफ्सीरुल कुरआनुल अज़ीम, जि० 4,सफ०314, मतबआ
मुस्तफा मुहम्मद, मिस्र, 1937 ई०)
[2] लौहे से मुराद सियासी कुव्वत है “ इस से इशारा इस तरह है कह
अगर लोग तमर्रुद इख्तियार करें तो उन के खिलाफ तलवार की ताक़त इस्तेमाल करनी चाहिए
“ (अल राज़ी, मुफ़ातीहुल गैब जि० 8, सफ० 101, अल मतबआ अशरफिया, मिस्र, 1324 हि०)
[3] बुनियादी हुकूक के मुताल्लिक मजीद तफ्सीली बहस मुलाहिजा हो
तफ्हीम्यात, जि० 3, मज़मून “ इंसान के बुन्यादी हुकूक “
[4] फितना से मुराद है किसी शख्स पर तश्द्दुत कर के उसे अपना
दीन बदलने पर मजबूर करना (अबने ज़रीर, जि० 2, सफ०111)
[5] यानी हर कुसूरवार
आदमी जिस कुसूर का भी इर्तिकाब करता है उसका वो खुद ज़िम्मेदार है, उसके सिवा कोई
दूसरा माखूज़ ना होगा | और किसी शख्स पर उसके अपने कुसूर के सिवा दुसरे के कुसूर की
ज़िम्मेदारी नहीं डाली जा सकती” ( इब्ने ज़रीर, जि० 8, सफ० 83)
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