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Angare: Story-3/ अंगारे: कहानी-3

 



 "अंगारे" कहानी -3

गर्मियों की एक रात

सज्जाद ज़हीर

        मुंशी बरकत अली इशा[1] की नमाज़ पढ़ कर चहलक़दमी करते हुए अमीनाबाद पार्क तक चले आए। गर्मियों की रात, हवा बंद थी। शर्बत की छोटी छोटी दुकानों के पास लोग खड़े बातें कर रहे थे। लौंडे चीख़ चीख़ कर अख़बार बेच रहे थे, बेले के हार वाले हर भले मानुष के पीछे हार लेकर लपकते। चौराहे पर ताँगा और यक्का वालों की लगातार पुकार जारी थी।

“चौक ! एक सवारी चौक ! मियाँ चौक पहुँचा दूँ !”

“ए हुज़ूर कोई ताँगा वांगा चाहिए ?”

“हार बेले के ! गजरे मोतिए के !”

“क्या मलाई की बर्फ़ है।”

       मुंशी जी ने एक हार ख़रीदा, शर्बत पिया और पान खा कर पार्क के अंदर दाख़िल हुए। बेंचों पर बिलकुल जगह न थी। लोग नीचे घास पर लेटे हुए थे। कुछ बेसुरे गाने के शौक़ीन इधर उधर शोर मचा रहे थे, कुछ आदमी चुप बैठे धोतियाँ खिसका कर बड़े आराम से अपनी टांगें और रानें खुजाने में लीन थे। इसी समय में वो मच्छरों पर भी झपट झपट कर हमले करते जाते थे। मुंशी जी चूँकि पजामा पहनने वाले आदमी थे उन्हें इस बदतमीज़ी पर बहुत ग़ुस्सा आया। अपने मन में इन्होंने कहा कि इन कमबख़्तों को कभी तमीज़ न आएगी, इतने में एक बेंच पर से किसी ने उन्हें पुकारा।

“मुंशी बरकत अली !”

मुंशी जी मुड़े।

 “अहा... लाला जी आप हैं, कहिए मिज़ाज तो अच्छे हैं !”

मुंशी जी जिस कार्यालय में नौकर थे लाला जी उसके हैड क्लर्क थे। मुंशी जी उनके अधीनस्थ थे। लाला जी ने जूते उतार दिए थे और बेंच के बीचो बीच में पैर उठा कर अपना भारी भरकम शरीर लिए बैठे थे। वो अपनी तोंद पर नरमी से हाथ फेरते जाते और अपने साथियों से जो बेंच के दोनों कोनों पर अदब से बैठे हुए थे चीख़ चीख़ कर बातें कर रहे थे। मुंशी जी को जाते देखकर उन्होंने उन्हें भी पुकार लिया। मुंशी जी लाला साहिब के सामने आकर खड़े हो गए। लाला जी हँस के बोले कहो, “मुंशी बरकत अली, ये हार वार ख़रीदे हैं क्या, इरादे क्या हैं ?” और ये कह कर ज़ोर से क़हक़हा लगा कर अपने दोनों साथियों की तरफ़ दाद पाने को देखा। उन्होंने भी लाला जी का मंशा देखकर हँसना शुरू किया।

       मुंशी जी भी रूखी फीकी हँसी हँसे, जी इरादे क्या हैं हम तो आप जानिए ग़रीब आदमी ठहरे, गर्मी के मारे दम नहीं लिया जाता, रातों की नींद हराम हो गई, ये हार ले लिया शायद दो-घड़ी आँख लग जाये।लाला जी ने अपने गंजे सर पर हाथ फेरा और हँसे, “ शौकीन आदमी हो मुंशी, क्यों न हो !” और ये कह कर फिर अपने साथियों से गुफ़्तगु में लीन हो गए।

       मुंशी जी ने मौक़ा देख कर कहा, “अच्छा लाला जी चलते हैं, आदाब अर्ज़ है।”

और ये कह कर आगे बढ़े। दिल ही दिल में कहते थे कि दिन-भर की घुस घुस के बाद ये लाला कम्बख़्त सर पड़ा। पूछता है इरादे क्या हैं ! हम कोई रईस तालुकदार हैं कहीं के कि रात को बैठ कर मुजरा सुनें और कोठों की सैर करें, जेब में कभी चवन्नी से ज़्यादा हो भी सही, बीवी, बच्चे, साठ रुपया महीना, ऊपर से आदमी का कुछ ठीक नहीं, आज न जाने क्या था जो एक रुपया मिल गया। ये देहाती काम करने वाले  कम्बख़्त हर दिन चालाक होते जाते हैं। घंटों की झक-झक के बाद जेब से टका निकालते हैं। और फिर समझते हैं कि ग़ुलाम ख़रीद लिया, सीधे बात नहीं करते। कमीना नीचे दर्जे के लोग उनका सर फिर गया है। आफ़त हम बेचारे शरीफ़ पढ़े लिखों की है। एक तरफ़ तो नीचे दर्जे के लोगों के मिज़ाज नहीं मिलते, दूसरी तरफ़ बड़े साहिब और सरकार की सख़्ती बढ़ती जाती है।

 अभी दो महीने पहले की बात है, बनारस के ज़िला में दो मुहर्रिर[2] बेचारे रिश्वत लेने के जुर्म में बरख़ास्त कर दिए गए। हमेशा यही होता है ग़रीब बेचारा पिस्ता है, बड़े अफ़्सर का बहुत हुआ तो एक जगह से दूसरी जगह तबादला हो गया।

         “मुंशी जी साहिब” किसी ने बाज़ू से पुकारा। जुम्मन चपरासी की आवाज़। मुंशी जी ने कहा,

 “अहा..... तुम हो जुम्मन।”

         मगर मुंशी जी चलते रहे रुके नहीं। पार्क से मुड़ कर नज़ीराबाद में पहुँच गए। जुम्मन साथ साथ हो लिया। दुबले पुतले, पिस्ताक़द, मख़मल की नाव जैसी टोपी पहने, हार हाथ में लिये, आगे आगे मुंशी जी और उनसे क़दम दो क़दम पीछे साफा बाँधे, अचकन पहने, लंबा चौड़ा चपरासी जुम्मन।

       मुंशी जी ने सोचना शुरू किया कि आख़िर इस समय जुम्मन का मेरे साथ साथ चलने में क्या इरादा है।

“कहो भई जुम्मन, क्या हाल है। अभी पार्क में हैड क्लर्क साहिब से मुलाक़ात हुई थी वो भी गर्मी की शिकायत करते थे।”

“अजी मुंशी जी क्या अर्ज़ करूँ, एक गर्मी सिर्फ थोड़ी है जो मारे डालती है, साढे़ चार पाँच बजे दफ़्तर से छुट्टी मिली। इस के बाद सीधे वहाँ से बड़े साहिब के यहाँ घर पर हाज़िरी देनी पड़ी। अब जा कर वहाँ से छुटकारा हुआ तो घर जा रहा हूँ, आप जानिए कि दस बजे सुबह से रात के आठ बजे तक दौड़ धूप रहती है, कचहरी के बाद तीन बार दौड़ दौड़ कर बाज़ार जाना पड़ा। बर्फ़, तरकारी, फल सब ख़रीद के लाओ और ऊपर से डाँट अलग पड़ती है, आज दामों में पैसे ज़्यादा क्यों है और ये फल सड़े क्यों हैं। आज जो आम ख़रीद के ले गया था वो बेगम साहिब को पसंद नहीं आए, वापसी का हुक्म हुआ मैंने कहा हुज़ूर ! अब रात को भला ये वापस कैसे होंगे, तो जवाब मिला हम कुछ नहीं जानते कूड़ा थोड़ी ख़रीदना है। तो हुज़ूर ये रुपया के आम गले पड़े, आम वाले के यहाँ गया तो एक तू तू मैं मैं करनी पड़ी, रुपया आम बारह आने में वापसी हुए, चवन्नी को चोट पड़ी महीना का ख़त्म, और घर में हुज़ूर कसम ले लीजिए जो सूखी रोटी भी खाने को हो। कुछ समझ में नहीं आता क्या करूँ और कौन सा मुँह लेकर जोरू के सामने जाऊँ।”

              मुंशी जी घबराए, आख़िर जुम्मन की मंशा इस सारी दास्तान के बयान करने से क्या थी। कौन नहीं जानता कि ग़रीब तकलीफ़ उठाते हैं और भूके मरते हैं। मगर मुंशी जी का इस में क्या क़सूर ? उनकी ज़िंदगी ख़ुद कौन सी बहुत आराम से कटती है, मुंशी जी का हाथ बेइरादे अपनी जेब की तरफ़ गया। वो रुपया जो आज उन्हें ऊपर से मिला था सही सलामत जेब में मौजूद था। “ठीक कहते हो मियाँ जुम्मन, आजकल के ज़माने में ग़रीबों की मरन है जिसे देखो यही रोना रोता है, कुछ घर में खाने को नहीं। सच्च पूछो तो निशानियाँ बताती  हैं कि क़यामत क़रीब है। दुनिया-भर के ज़ालिम लोग  तो चैन से मज़े उड़ाते हैं और जो बेचारे अल्लाह के नेक बंदे हैं उन्हें हर तरह की मुसीबत और तकलीफ़ बर्दाश्त करनी होती है।”

        जुम्मन चुप-चाप मुंशी जी की बातें सुनता उनके पीछे पीछे चलता रहा। मुंशी जी ये सब कहते तो जाते थे मगर उनकी घबराहट भी बढ़ती जाती थी। मालूम नहीं उनकी बातों का जुम्मन पर क्या असर हो रहा था।

       “कल  जुमा  की  नमाज़[3]  के बाद मौलाना साहिब ने  क़यामत की निशानियो पर बयान किया, मियाँ जुम्मन सच्च कहता हूँ, जिस जिस ने सुना उसकी आँखों से आँसू जारी थे। भाई दरअसल ये हम सबकी काली करतूतों का नतीजा है, ख़ुदा की तरफ़ से जो कुछ अज़ाब हम पर उतरे हो वो कम है।  कौन सी बुराई है जो हम में नहीं ? इस से कम  क़सूर  पर अल्लाह ने बनी-इस्राईल[4] पर जो जो मुसीबतें उतारी थीं उनका ख़्याल कर के बदन के रौंगटे खड़े हो जाते हैं मगर वो तो तुम जानते ही होगे।”

       जुम्मन बोला, “हम ग़रीब आदमी मुंशी जी, भला ये सब इल्म की बातें क्या जानें क़यामत के बारे में तो मैंने सुना है मगर हुज़ूर आख़िर ये बनी-इस्राईल बेचारे कौन थे।”

       इस सवाल को सुनकर मुंशी जी को ज़रा सुकून हुवा। ख़ैर ग़रीबी और फ़ाक़े से गुज़र कर अब क़यामत और बनी-इस्राईल तक बात का सिलसिला पहुँच गया था। मुंशी जी ख़ुद बहुत ज़्यादा पर इस क़बीले के इतिहास के जानकार  न थे मगर इन विषयों पर घंटों बातें कर सकते थे।

                     ऐं ! वाह मियाँ जुम्मन वाह, तुम अपने को मुसलमान कहते हो और ये नहीं जानते कि बनी-इस्राईल किस चिड़िया का नाम है। मियाँ सारा कुरआन पाक बनी-इस्राईल के ज़िक्र से तो भरा पड़ा है। हज़रत-ए- मूसा कलीम-उल-लाह[5] का नाम भी तुमने सुना है ?”

जी क्या फ़रमाया आपने ? कलीम-उल- लाह ?”

“अरे भई हज़रत मूसा। मू... सा।”

“मूसा... वही तो नहीं जिन पर बिजली गिरी थी ?”

             मुंशी जी ज़ोर से ठट्ठा मार कर हँसे।अब उन्हें बिलकुल  भरोसा  हो गया। चलते चलते वो कैसरबाग के चौराहे तक भी आ पहुँचे थे। यहाँ पर तो ज़रूर ही इस भूके चपरासी का साथ छूटेगा। रात को आराम से जब कोई खाना खा कर नमाज़ पढ़ कर, दम-भर की दिल बहलाने के लिए चहलक़दमी को निकले, तो एक ग़रीब भूके इंसान का साथ साथ हो जाना, जिससे पहले की पहचान भी हो, कोई ख़ुशी की बात नहीं। मगर मियाँ जी आख़िर करते क्या ? जुम्मन को कुत्ते की तरह धुतकार तो सकते न थे क्यों कि एक तो कचहरी में रोज़ का सामना, दूसरे वो नीचे दर्जे का आदमी ठहरा, क्या ठीक, कोई  बदतमीज़ी  कर बैठे तो  भरे बाज़ार ख़्वाह-मख़ाह  अपनी बनी बनाई इज़्ज़त में बट्टा लगे। बेहतर यही था कि अब इस चौराहे पर पहुँच कर दूसरी राह ली जाये और यूँ इससे छुटकारा हो।

        “ख़ैर, बनी-इस्राईल और मूसा का ज़िक्र मैं तुमसे फिर कभी पूरी तरह करूँगा, इस वक़्त तो ज़रा मुझे इधर काम से जाना है.......... सलाम मियाँ जुम्मन।”

सज्जाद ज़हीर

       ये कह कर मुंशी जी कैसरबाग के सिनेमा की तरफ़ बढ़े। मुंशी जी को यूँ तेज़ क़दम जाते देखकर पहले तो जुम्मन एक लम्हा के लिए अपनी जगह पर खड़ा का खड़ा रह गया, उस की समझ में नहीं आता था कि वो आख़िर करे तो क्या करे। उसके माथे पर पसीने की बूँदें चमक रहे थीं उसकी आँखें एक बेमानी तौर पर इधर उधर मुड़ती। तेज़ बिजली की रोशनी, फ़व्वारा, सिनेमा के पोस्टर, होटल, दुकानें, मोड़, ताँगे, यक्के और सब के ऊपर अँधेरा आसमान और झिलमिलाते हुए सितारे ग़रज़ ख़ुदा की सारी बस्ती।

               दूसरे लम्हा में जुम्मन मुंशी जी की तरफ़ लपका। वो अब खड़े सिनेमा के इश्तिहार देख रहे थे और बेहद ख़ुश थे कि जुम्मन से जान छूटी।

जुम्मन ने उनके क़रीब पहुँच कर कहा, “मुंशी जी !”

              मुंशी जी का कलेजा धक से हो गया। सारी मज़हबी गुफ़्तगु, सारी क़यामत की बातें, सब बेकार गईं। मुंशी जी ने जुम्मन को कुछ जवाब नहीं दिया।

       जुम्मन ने कहा “मुंशी जी अगर आप इस वक़्त मुझे एक रुपया क़र्ज़ दे सकते हों तो मैं हमेशा...”

       मुंशी जी मुड़े, “मियाँ जुम्मन मैं जानता हूँ कि तुम इस वक़्त तंगी में हो मगर तुम तो ख़ुद जानते हो कि मेरा अपना क्या हाल है। रुपया तो रुपया एक पैसा तक मैं तुम्हें नहीं दे सकता, अगर मेरे पास होता तो भला तुमसे छुपाना थोड़ा ही था, तुम्हारे कहने की भी ज़रूरत न होती पहले ही जो कुछ होता तुम्हें दे देता।”

बावजूद इस के जुम्मन ने गुज़ारिश शुरू की, “मुंशी जी ! कसम ले लीजिए में ज़रूर आपको तनख़्वाह मिलते ही वापस कर दूँगा, सच्च कहता हूँ हुज़ूर इस वक़्त कोई मेरी मदद करने वाला नहीं...”   

       मुंशी जी इस झिक-झिक से बहुत घबराते थे। इंकार चाहे वो सच्चा ही क्यों न हो तकलीफ़-दह होता है। इसी वजह से तो वो शुरू से चाहते थे कि यहाँ तक नौबत ही न आए।

इतने में सिनेमा ख़त्म हुआ और दर्शक अंदर से निकले।

       “अरे मियाँ बरकत, भई तुम कहाँ ?” किसी ने पास से पुकारा। मुंशी जी जुम्मन की तरफ़ से उधर मुड़े। एक साहिब मोटे ताज़े, तीस पैंतीस बरस के। अंगरखा[6] और दो पल्ली टोपी पहने, पान खाए, सिगरेट पीते हुए मुंशी जी के सामने खड़े थे।

       मुंशी जी ने कहा, “अहा... तुम हो! बरसों के बाद मुलाक़ात हुई, तुमने लखनऊ तो छोड़ ही दिया ? मगर भाई क्या मालूम आते भी होगे तो हम ग़रीबों से क्यों मिलने लगे!”

       ये मुंशी जी के पुराने कॉलेज के साथी थे। रुपये, पैसे वाले रईस आदमी, वो बोले, “ख़ैर ये सब बातें तो छोड़ो, मैं दो दिन के लिए यहाँ आया हूँ, ज़रा लखनऊ में तफ़रीह के लिए चलो, इस वक़्त मेरे साथ चलो तुम्हें वो मुजरा सुनवाऊँ कि उम्र-भर याद करो, मेरी मोटर मौजूद है, अब ज़्यादा मत सोचो, बस चले चलो, सुना है तुमने कभी नूर जहाँ का गाना...?  क्या गाती है, क्या गाती है, क्या नाचती है, वो अदा, वो फन, उसकी कमर की लचक, उसके पाँव के घुँघरू की झनकार ! मेरे मकान पर, खुले सेहन में, तारों की छाओं में, महफ़िल होगी। भैरवी सुनकर जलसा ख़त्म होगा। बस अब ज़्यादा न सोचो, चले ही चलो। कल इतवार है... बीवी!

       बेगम साहिबा की जूतियों का डर है, अगर ऐसा ही औरत की गु़लामी करना थी तो शादी क्यों की ? चलो भी मियाँ ! लुत्फ़ रहेगा, रूठी बेगम को मनाने में भी तो मज़ा है...

       पुराना दोस्त, मोटर की सवारी, नाच गाना, ख़ुश नज़ारे, मधुर संगीत, मुंशी जी लपक कर मोटर में सवार हो लिये। जुम्मन की तरफ़ उनका ध्यान भी न गया। जब मोटर चलने लगी तो उन्होंने देखा कि वो वहाँ इसी तरह चुप खड़ा है।



[1] रात की नमाज़

[2] लिपिक,क्लर्क

[3] इस्लामी सप्ताह का सातवाँ दिन, शुक्रवार

[4]  पैगम्बर याकूब की संतान।

[5] पैगम्बर मूसा की उपाधि

[6] एक परम्परागत पुरूष परिधान।

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