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Khilafat o Mulukiyat 1-7/ ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत 1-7

 


किताब- ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत

लेखक- मौलाना अबुल आला मौदूदी

देवनागरी लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद

 

   अध्याय -1

  भाग-7 (अंतिम)

 बाशिंदों पर हुकूमत के हुकूक

इस निजाम में बाशिंदों पर हुकूमत के हुकूक ये हैं:

[i] यह कह इस की इताअत करें,

 
“ इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और उन लोगों की जो तुम में से साहिबे अम्र हों” ( 4 : 59)

[ii] यह कह वो कानून के पाबंद हों और नज़्म में खलल न डालें:


“ ज़मीन में फसाद न करो इस की इस्लाह हो जाने के बाद |” ( 7 : 58)


“ जो लोग अल्लाह और रसूल से जंग करते हैं[1]  और ज़मीन में फसाद फैलाते हैं उन की सज़ा यह है कह क़त्ल किये जाएँ या सलीब दिए जाएँ ....” (5: 33)

[iii] यह कह वो उस के तमाम भले कामों में तआवुन करें:


“ नेकी और परहेजगारी में तआवुन करो ” ( 5 : 2)

[iv]  यह कह वो दिफ़ा के काम में जान और माल से उस की पूरी मदद करें ,


“ तुम्हे क्या हो गया है कह जब तुम को खुदा की राह में निकलने के लिए कहा जाता है तो तुम ज़मीन  पर जम कर बैठ जाते हो ...... अगर तुम न निकलोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सज़ा देगा और तुम्हारी जगह कोई दूसरी कौम ले आयेगा और तुम उसका कुछ न बिगाड़ सकोगे ......... निकलो ख्वाह तुम हल्के हो या भारी और जिहाद करो अल्लाह की रह में अपनी जान और माल से, ये तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो” ( 9: 38-41)

 

खारिजी सियासत के उसूल

 इस्लामी रियासत की खारिजी पालिसी के मुताल्लिक जो अहम हिदायत कुरआन में दी गई हैं वो यह हैं :

[i] अहद व पैमान का अतराम, और अगर मुआहदा ख़त्म करना नागुजीर हो तो उससे दूसरे फरीक को खबरदार कर देना:


“ अहद ओ वफ़ा करो, यकीनन् अहद के मुताल्लिक बाज़-पुर्स होगी” ( 17 : 34)

 

“ अल्लाह के अहद को पूरा करो जब कह तुम मुआहदा करो और कसमें पुख्ता कर लेने के बाद उन को न तोड़ों ........... और न हो जाओ उस औरत की तरह जिसने अपनी ही मेहनत से काता हुआ सूत टुकड़े-टुकड़े कर डाला तुम अपनी कसमों को अपने दरमियान मक्र ओ फरेब का ज़रिया बनाते हो ताकि एक कौम दूसरी कौम से ज्यादा फायदा हासिल करे अल्लाह इस चेज के ज़रिये से तुम को आज़माइश में डालता है और ज़रूर वो कयामत के रोज़ तुम्हारे इख्तिलाफ की हकीकत खोल देगा” ( 16: 91-92)


“ जब तक दूसरे फरीक के लोग तुम्हारे साथ अहद पर काइम रहें तुम भी काइम रहो यकीनन् अल्लाह परहेज़गारों को पसंद करता है” (9 :7)



“  मुशरिकीन में से जिन लोगों के साथ तुमने मुआहदा किया फिर उन्होंने तुम्हारे साथ वफ़ा करने में कोई कमी न की और न तुम्हारे खिलाफ किसी की मदद की तो उन के अहद को मुआहदे की मुद्दत तक पूरा करो” ( 9 : 4)


“ और अगर दुश्मन के इलाके में रहने वाले मुसलमान तुम से मदद मांगे तो मदद करना तुम्हारा फ़र्ज़ है, मगर ये मदद किसी ऐसी कौम के खिलाफ नहीं दी जा सकती जिससे तुम्हारा मुआहदा हो” ( 8 : 72)


“ और अगर तुम्हे किसी कौम से खियानत (बद अहदी ) का इन्देशा हो जाए तो उन की तरफ फेंक दो (उन का अहद) बराबर मल्हूज़ रख कर[2] | यकीनन् अल्लाह खाइनों को पसंद नहीं करता |” ( 8 : 58) 

 

[ii] मुआमलात में दियानत व रास्त-बाजी:


“ और अपनी कसमों को अपने दरमियान मक्र ओ फरेब का ज़रिया न बना लो[3] ” ( 16 : 94)

[iii] बैनल-अक्वामी अदल:


“ और किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इतना मुश्तईल न कर दे कह तुम इन्साफ न करो इन्साफ करो कह यही खुदातरसी से ज्यादा मुनासबत रखता है” 5 : 8)

[iv]  जंग में गैर-जानिबदार मुमालिक के हुदूद का एहतिराम:


“ और अगर वो (यानी दुश्मनों से मिले हुए मुसलमान ) न मानें तो उनको पकड़ों और क़त्ल करो जहाँ पाओ ..... सिवाए उन लोगों के जो किसी ऐसी कौम से जा मिले जिस के साथ तुम्हारा मुआहदा हो” (4 : 90)

[v] सुलह पसंदी,


“ और अगर वो सुलह की तरफ माइल हों तो तुम भी माइल हो जाओ” ( 8 :61)

[vi] फ़साद-फ़ी-अल-अर्ज़ और ज़मीन में अपनी बढ़ाई काइम करने की कोशिशों से इज्तिनाब:


“वो आखिरत का घर तो हम उन लोगों के लिए मखसूस करेंगे जो ज़मीन में अपनी बरतरी नहीं चाहते और न फसाद करना चाहते हैं नैक अंजाम परहेजगार लोगों के लिए है” ( 28 : 83)

[vii] गैर मुआनिद ताकतों से दोस्ताना बरताओ:

“ अल्लाह तुम को इस बात से नहीं रोकता कह जिन लोगों ने तुमसे दीन के मामले में जंग नहीं की है और तुम्हें तुम्हारे घरो से नहीं निकाला है उन के साथ नैक सुलूक और इन्साफ करो यकीनन् अल्लाह इन्साफ करने वालों को पसंद करता है” ( 60 : 8)

[viii] नैक मुआमला करने वालों से नैक बर्ताव:



“ क्या एहसान का बदला एहसान के अलावा कुछ हो सकता है ?” ( 55 : 60)

[ix] ज्यादती करने वालों के खिलाफ उतनी ही ज्यादती जितनी उन्होंने की हो:

“ पस जो कोई तुम पर ज्यादती करे तो तुम भी उस पर ज्यादती कर लो जितनी उसने की थी और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह परहेजगार लोगों के साथ है” ( 2 : 194)


“ और अगर बदला लो तो उतना ही लो जितना तुम्हें सताया गया हो, और अगर सब्र करो तो वो बेहतर है सब्र करने वालों के लिए” ( 16 : 126)


“ और बुराई का बदला उतनी ही बुराई से जितनी की गई हो फिर जो माफ़ कर दे और इस्लाह करे तो उसका  अजर अल्लाह के जिम्मे है अल्लाह जालिमों को पसंद नहीं करता और वो लोग काबिल-ए-गिरफ्त नहीं हैं जिन पर ज़ुल्म किया गया हो और उसके बाद वो उसका बदला लें। काबिल-ए-गिरफ्त तो वो हैं जो लोगों पर जिल्म करते हैं और ज़मीन में ना`हक सरकाशी करते हैं ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक सजा है” ( 42 : 40-42)


इस्लामी रियासत की खुसूसियात

 कुरआन के इन 16 निकात में जिस रियासत की तस्वीर हमारे सामने आती है इस की नुमाया खुसूसियात यह हैं-

1-       एक आज़ाद कौम की तरफ से यह शूरी अहद इस रियासत को वजूद में में लाता है कह वो पूरी खुद-मुख्तारी की मालिक होते हुए अपनी मर्ज़ी से खुद रब्बुलआलमीन के आगे सर-ए-तस्लीम ख़म कर देगी, और उसके मा`तहत हाकिमिय्यत बेजा-ए- खिलाफत की हैसियत क़ुबूल कर के उन हिदायात व अहकाम के मुताबिक़ काम करेगी जो उसने अपनी किताब और अपने रसूल के ज़रिये से अता किये हैं

2-      वो हाकिमिय्यत को खुदा के लिए खालिस करने की हद तक थ्योक्रेसी के बुनियादी नजरिये से मुत्तफ़िक़ है मगर उस नजरिये पर अमल दर आमद करने में उस का रास्ता थ्योक्रेसी से अलग हो जाता है मज़हबी पेशवाओं के किसी खालिस तबके को खुदा की खुसूसी खिलाफत का हामिल ठहराने और हल ओ अक़द के सारे इख्तियारात इस तबके के हवाले कर देने के बजाए वो हुदूदे रियासत में रहने वाले तमाम अहल-ए-ईमान को ( जिन्होंने रब्बुलआलमीन के आगे सर-ए-तस्लीम ख़म करने का शूरी अहद किया है) खुदा की खिलाफत का हामिल करार देती है और हल ओ  अक़द के आखरी इख्तियारात मजमूई तौर पर उन के हवाले करती है

3-       वो जम्हूरियत के इस उसूल में ड़ेमोक्रेसी से मुत्तफ़िक़ है कह हुकूमत का बनना और बदलना और चलाया जाना बिलकुल अवाम की राय से होना चाहिए लेकिन उसमे अवाम मुतलक़-उल-'इनान नहीं होते कह रियासत का कानून, उस के उसूल-ए-हयात, उस की दाखिली व खारिजी सियासत, और उसके वसाइल व जराए, सब उनके ख्वाहिशात के ताबे हों, और जिधर जिधर वो माइल हों यह सारी चीजें भी उसी तरफ मुड़ जाएँ, बल्कि उसमे खुदा और रसूल का बालातर कानून अपने उसूल व हुदूद और अख्लाकी अहकाम व हिदायत से अवाम की ख्वाहिशात से ज़ब्त काइम रखता है, और रियासत एक ऐसे मुताइयन रस्ते पर चलती है, जिसे बदल देने के इख्तियारात न उसकी मुन्तज़िमा को हासिल होते हैं, न अदलिया को, न मुकंनिना को, न मजमूई तौर पर पूरी कौम को, इल्ला यह कह कौम खुद अपने अहद को तोड़ देने का फैसला करके दायरा –ए-इमान से निकल जाए

4-      वह एक नज़रियाती रियासत है जिसको चलाना फितरतन् उन्ही लोगों का कम हो सकता है जो उसके बुनियादी नज़रिये और उसूल को तस्लीम करते हों, लेकिन तस्लीम न करने वाले जितने लोग भी इस की हुदूद में ताबे कानून होकर रहना कुबूल कर लें उन्हें वो तमाम मदनी हुकूक उसी तरह देती है जिस तरह तस्लीम करने वालों को देती हैं

5-      वह एक ऐसी रियासत है जो रंग, नस्ल, ज़बान या जोग्राफिया की अस्बियतों के बजाए सिर्फ उसूल की बुनियाद पर काइम होती है ज़मीन के हर गौशे में नस्ल-ए-इंसानी के जो अफराद भी चाहें उन उसूलों को कुबूल कर सकते हैं और किसी इम्तियाज़ व तअस्सुब के बगैर बिलकुल मुसावी हुकूक के साथ इस निजाम में शामिल हो सकते हैं दुनिया में जहाँ भी इन उसूलों पर कोई हुकूमत काइम होगी वह लाजमन् इस्लामी हुकूमत होगी ख्वाह वह अफ्रीका में हो या अमेरिका में, यूरोप में हो या ऐशिया में, और उसके चलाने वाले ख्वाह गोरे हों या काले या जर्द इस नोइय्यत की खालिस उसूली रियासत के लिए एक आलमी रियासत बन जाने में कोई रुकावट नहीं है लेकिन अगर ज़मीन के मुख्तलिफ हिस्सों में बहुत सी रियासतें भी इस नोइय्यत की हों तो वो सब की सब यकसां इस्लामी रियासत होंगी, किसी कौम पर सताना कशमकश के बजाए उन के दरमियान पूरा-पूरा बिरादाना तआवुन मुमकिन होगा औए किसी वक़्त भी वह मुत्तफ़िक़ होकर अपना एक आलम गीर ओ फ़ाक कायइम कर सकेंगी

6-      रितासत को मफाद और अगराज़ के बजाए अख़लाक़ के ताबे करना, खुदा-तरसी व परहेजगारी के साथ चलाना उस रियासत की अस्ल रूह है इस में फजीलयत के बुनियाद सिर्फ अख्लाकी फजीलत है इस के कारफरमाओं और अहल-ए-हल व अक़द के इन्तिखाब में भी ज़हनी व जिस्मानी सलाहियत के साथ अखलाक की पाकीज़गी सबसे ज्यादा काबिल-ए-लिहाज़ है इस के दाखली निज़ाम का भी हर शो`बा दियानत व अमानत और बेलाग अदल व इन्साफ पर चलना चाहिए और इसकी खारजी सियासत को भी पूरी रास्त बाज़ी, कौल ओ करार की पाबन्दी, अमन पसंदी और बैनल-अक्वामी अदल और हुस्न-ए- सुलूक पर काइम होना चाहिए

7-        यह रियासत महज़ पुलिस के फ़राइज़ अंजाम देने के लिए नहीं है कह उस का काम सिर्फ नज़्म व ज़ब्त कायम करना और सरहदों की हिफाज़त करना हो, बल्कि यह एक मक्सदी रियासत है जिसे ईजाबी तौर पर इज्तिमाई अदल और भलाईयों के फरोग और बुराइयों के इस्तेह्साल के लिए काम करना चाहिए

8-      हुकूक और मर्तबे और मवाक़े में मसावात, कानून की फरमां-रवाई, नेकी में तआवुन और बदी में अदम-ए- तआवुन खुदा के सामने ज़िम्मेदारी का एह्साह, हक से बढ़कर फ़र्ज़ का शऊर, अफराद और मुआशरे और रियासत सब का एक मकसद पर मुत्तफ़िक़ होना, और मुआशरे में किसी शख्स को नागुजीर लावाज़िम-ए-हयात से महरूम न रहने देना, यह इस रियासत की बुनियादी क़दरें हैं

9-      फर्द और रियासत के दरमियान इस निजाम में ऐसा तावाज़ुम काइम किया गया है कह न रियासत मुख्तार-ए-मुतलक और हमागीर इक्तेदार की मालिक बन कर फर्द को अपना बेबस ममलूक बना सकती है, और न फर्द बे-क़ैद आज़ादी पाकर खुद सर और इज्तिमाई मफाद का दुश्मन बन सकती है इस में एक तरफ अफराद को बुनियादी हुकूक दे कर और हुकूमत को बालातर कानून और शूरा का पाबंद बना कर इन्फिरादी शख्सियत के लिए नशुनुमा के पूरे मवाक़े फराहम किये गए हैं और इक्तिदार की बेज़ा मुदाख्लत से इस को महफूज़ कर दिया गया है मगर दूसरी तरफ फर्द को भी ज़ाबिता अखलाक में कसा गया है और उस पर ये फ़र्ज़ आइद किया गया है कह कानून-ए-खुदावन्दी के मुताबिक़ काम करने वाली हुकूमत के दिल से इताअत करे, भलाई में उस के साथ मुमकिन तआवुन करे, उस के निजाम में खलल डालने से बाज रहे, और उस की हिफाज़त के लिए जान ओ माल की किसी कुर्बानी से दरेग न करे |

                                                                                                                                अध्याय 1 समाप्त 

                                                                 जारी है .................अध्याय-2, भाग-1



[1] फुकहा का तकरीबन्न इस पर इत्तिफाक है कह उस से मुराद दरअस्ल वो लोग हैं जो राहजनी और डाकाजनी करें या मुसल्लह होकर मुल्क में बदअमनी फैलाएं (अल जस्सास, जि० 2, सफ०493)

[2]  यानी तुम्हारे और उनके दरमियान जो मुआहिदा या सुलहना हुआ था उस का फिस्ख हो जाने की इत्तला उन्हें दे दो ताकह फर्कीन उससे फिस्ख हो जाने के इल्म में बराबर हो जाएँ, और अगर तुम उनके खिलाफ कोई कारवाही करो तो फरीक सानी इस ख्याल में ना रहे कह तुम ने उससे बदऔहदी की है | (अल जस्सास, जि० 3, सफ०83)

 

[3] यानी धोका देने की नियत से मुआहिदा न करो फरीक सनी तो तुम्हारी कसमों की बिना पर तुम्हारी तरफ से मुतमईन हो जाए और तुम्हारा इरादा यह हो कह मोका पाकर उस से ग़दर करोगे |” ( इब्ने ज़रीर, जि०14, सफ०112)

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