Ad Code

New Update
Loading...

Angare: Story-1/ अंगारे: कहानी-1


 "अंगारे" कहानी -1 

नींद नहीं आती 

सज्जाद ज़हीर


घड़ घड़ घड़ घड़, टिक टिक, चट, टिक टिक टिक, चट चट चट ।

       गुज़र गया ज़माना गले लगाए हुए...  ए....... ए....... ख़ामोशी और अँधेरा, अँधेरा। आँख एक पल के बाद खुली, तकिया के ग़िलाफ़ की सफेदी अँधेरा, मगर बिलकुल अँधेरा नहीं........ फिर आँख बंद हो गई। मगर पूरा अँधेरा नहीं। आँख दबा कर बंद की, फिर भी रौशनी आ ही जाती है। पूरा अँधेरा क्यूँ नहीं होता ? क्यूँ नहीं ? क्यूँ नहीं ?

       बड़ा मेरा दोस्त बनता है, जब मुलाक़ात हुई, आइए अकबर भाई, आप के देखने को आँखें तरस गईं, हैं.... हैं... हैं। कुछ ताज़ा कलाम सुनाइए...... लीजिए सिगरेट पी जिए । मगर समझता है शे`र ख़ूब समझता है।वह दूसरा उल्लू का पट्ठा तो बिलकुल कम दिमाग़ है। अहा ! आज तो आप नई अचकन पहने हुए हैं, नई अचकन पहने हुए हैं............ तेरे बाप का क्या बिगड़ता है जो मैं नई अचकन पहने हुए हूँ। तू चाहता है कि बस एक तेरे ही पास नई अचकन हो। और शे`र समझना तो एक तरफ तू सही से पढ़ भी नहीं सकता। नाक में दम कर देता है। बेकार, बदतमीज़ कहीं का ! मगर बड़ा मेरा दोस्त बनता है। ऐसों की दोस्ती क्या! मेरी बातों से उसका दिल ज़रा बहल जाता है, बस यही दोस्ती है। मुफ्त का ख़ुशामदी मिला, चलो मज़े हैं...... ख़ुदा सब कुछ करे , ग़रीब न करे, दूसरों की ख़ुशामद करते करते ज़बान घिस जाती है, और वह है कि चार पैसे जो जेब में हम से ज्यादा हैं तो मिज़ाज ही नहीं मिलते। मैंने आखिर एक दिन कह दिया कि मैं नौकर हूँ, कोई आपका ग़ुलाम नहीं हूँ। तो आँखे निकाल कर लगा मुझे देखने। बस जी में आया कि कान पकड़ के एक चांटा रसीद करूँ, साले का दिमाग़ ठीक हो जाए।

 टप टप खट, टप टप खट, टप टप खट, टप टप टप.........ट...........

       इस वक़्त रात को यह आख़िर कौन जा रहा है ? मौत है इसकी, और कहीं पानी बरसने लगे तो और मज़ा है। लखनऊ में जब मैं था, एक जलसे में मूसलाधार बारिश। अमीन उद्दौला पार्क तालाब मालूम होता था। मगर लोग हैं कि अपनी जगह से टस से मस नहीं होते। और क्या है क्या जो यूँ सब जान पर झेलने को तैयार हैं। महात्मा गाँधी के आने का इंतिज़ार है। अब आए, तब आए, वह आए, आए, आए। वह मचान पर महात्मा जी पहुँचे........... जय, जय, जय, ख़ामोशी।

       मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूँ कि आप लोग विदेशी कपड़ा पहनना बिलकुल छोड़ दें। यह सेतानी गवर्नमेंट.............

       यहाँ पानी सर से होकर पैरों से परनालों की तरह बहने लगा। क़ुदरत मूत रही थी सेतानी गवर्नमेंट, शैतानी, गवर्नमेंट की नानी। इस गाँधी से शैतानी गवर्नमेंट की नानी मरती है। अहा...., शैतानी और नानी................ अकबर साहब, आप तो माशा अल्लाह शायर हैं, कोई देशभक्ति कविता लिखिए, यह गुल व बुलबुल की कहानियाँ कब तक, क़ौम की ऐसी की तेसी ! मेरे साथ क़ौम ने क्या अच्छा सुलूक किया है कि मैं गुल व बुलबुल छोड़ कर क़ौम के आगे थिरकूँ।

       मगर मैं यह कहता हूँ कि मैंने आखिर किसी के साथ क्या बुरा व्यवहार किया है कि सारा ज़माना हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ा है। मेरे कपड़े मैले हैं......... इन से बदबू आती है....... बदबू सही। मेरी टोपी देख कर कहने लगा कि तेल का धब्बा पड़ गया, नई टोपी क्यूँ नहीं खरीदते ? क्यूँ खरीदूँ नई टोपी, नई टोपी में क्या सुरख़ाब[1] का पर लगा है ?

अंगुश्त नुमा थी कज कुलाही जिन की

वो  जूतियाँ  चटखाते  फ़िरते  हैं  आज

हम औज ए ताले लअल व गौहर को ............

वाह वा वाह ! क्या बेतुकापन है। जार्ज पंचम के ताज में हमारा हिन्दुस्तानी हीरा है। ले गए चुरा के अंग्रेज, रह गए न मुँह देखते ! उड़ गई सोने की चिड़िया रह गई दुम हाथ में। अब चाहते हैं कि दुम भी हाथ से निकल जाए, दुम न छूटने पाए। शाबाश है मेरे पहलवान ! लगाए जा ज़ोर ! दुम छूटी तो इज़्ज़त गई। क्या कहा ? इज़्ज़त ? इज़्ज़त ले के चाटना है। रोटी और नमक खाकर क्या बाँका जिस्म निकल आया है। फ़ाकह[2] हो तो फ़िर क्या कहना, अच्छा है। फिर तो बस इज़्ज़त है और इज़्ज़त के ऊपर ख़ुदावंद पाक।       

ख़ुदावंद पाक, अल्लाह बारी त`आला, रब्बुल इज़्ज़त, परमेश्वर, परमात्मा लाख नाम ले जाओ। जल्दी, जल्दी, जल्दी और जल्दी। क्या हुआ ? आत्म-शान्ति ? बस तुम्हारे लिए यही काफ़ी है। मगर मेरे पेट में तो आग है। दुआ करने से पेट नहीं भरता, पेट से हवा निकल जाती है भूक और ज्यादा मालूम होने लगती है।

भौं-भौं-भौं ................. 

सज्जाद ज़हीर
अब इनका भौंकना शुरू हुआ तो रात भर जारी रहेगा। मच्छर अलग सता रहे हैं।तौबा है तौबा है ! एक जाली का पर्दा गर्मियों में बहुत आराम देता है। मच्छरों से छुटकारा मिलता है। मगर छुटकारा क्या ! दिन भर की मेहनत, चीख़-पुकार, कड़ी धूप में घंटों एक जगह से दूसरी जगह घूमते घूमते जान निकल जाती है । अम्मा कहा करती थीं, अकबर धूप में मत दौड़ो, आ, मेरे पास आ के लेट बच्चे ! लू लग जायेगी तुझे बच्चे। एक मुद्दत हो गई इसे भी। अब तो यह बातें ख्व़ाब मालूम होती हैं। और मौलवी साहब हमेशा मेरी तारीफ़ करते थे,  देखों नालायकों, अकबर को देखों इसे शोक़ है इल्म का। ख्व़ाब वो सब बातें ख्व़ाब मालूम होती हैं। मैं बस्ता तख़्ती लिए दौड़ता हुआ वापस आता था। अम्मा गोद में चिमटा लेती थी। मगर क्या आराम था ! उस वक़्त भी क्या आराम था ! यह सब चीजें मेरी क़िस्मत में ही नहीं। मगर जो मुसीबत मैं बर्दाश्त कर चुका शायद ही किसी को उठानी पड़ी हों। इसे याद करने से फ़ायदा ? ख़ैराती अस्पताल, नर्सें, डॉक्टर,सब नाक भों चढ़ाए और अम्मा का यह हाल कि  करवट लेना मुहाल। और उनके उगलदान में ख़ून के टुकड़े ही टुकड़े। मालूम होता था कि गोश्त के लोथड़े हैं............. और मैं सब को ख़त पे ख़त लिखता था। यही सब लोग जो रिश्तेदार बनते हैं ! आइए अकबर भाई आइए ! आपसे तो बरसों से मुलाक़ात नहीं हुई ....... यही ! इन्हीं के माँ-बाप। क्या हो जाता थोड़ी और मदद कर देते। दुनिया भर की ख़ुराफात पर पानी की तरह पैसा बहाते हैं। किसी रिश्तेदार की मदद करते वक़्त मिल मिल कर पैसा देते हैं। और फिर एहसान जताना इतना कि ख़ुदा की पनाह ! एक दिन मैं कहीं बाहर गया हुआ था। इन्हीं साहबज़ादे की माता जी, अम्मा को देखने आईं। मैं जो पहुँचा तो इन्हें आए हुए कुछ मिनट ही हुए थे। चहरे से लग रहा था कि इन्हें डर है बैक्टीरिया इनके सीने के अंदर न घुस जाएँ। मगर बीमार को देखने आना फ़र्ज़ है, सवाब[3] का काम है।

 यह सब तो सब, उल्टा मुझे डाँटना शुरू किया, कहाँ गए थे तुम अपनी अम्मा को छोड़कर। इनकी हालत ऐसी नहीं कि इन्हें इस तरह छोड़ा जाए ............ मरीज़ में मुँह पर इस तरह की बातें। मैं ग़ुस्से से खोलने लगा, मगर मरता क्या न करता । अस्पताल का ख़र्च इन्हीं लोगों से लेना है । मेरी बीवी-बच्चे का ठिकाना इन्ही के यहाँ था................... मेरी शादी का जिसने ज़ोरदार विरोध किया। लेकिन अम्मा बेचारी का सबसे बड़ा अरमान मेरी शादी थी। अकबर की दुल्हन ब्याह के लाऊँ, बस यह मेरी आखरी तमन्ना है। लोग कहते थे घर में खाने को नहीं, शादी किस बूते पर करोगी। ख़ुदा अन्नदाता है। जब मेरा रिश्ता पक्का हो गया, शादी की तारीख़ रख दी गई, शादी का दिन आ गया, तो वोही लोग जो विरोध करते थे शादी में जाने को तैयार होकर आ गए। सारी बची बचाई पूँजी अम्मा की मेहमानदारी और शादी के ज़रूरी ख़र्चों में ख़र्च हो गई।गैस की रौशनी, रेशमी अचकनें, पुलाओ, बाजा, गद्दी, हँसी-मज़ाक़, भीड़। खाने में कमी पड़ गई। बावर्ची ने चोरी की। बादशाह अली साहब का जूता चुर गया, ज़मीन आसमान एक कर दिय। अबे उल्लू के पट्ठे तूने जूता संभाल के क्यूँ नहीं रखा। जी हुज़ूर ! क़ुसूर मेरा नहीं........... मेहर[4] का झगड़ा होना शुरू हुआ। मुवज्जल[5] और ग़ैर-मुअज्जल[6] की बहस। मुँह दिखाई की रस्म। मज़ाक़, फूल, गाली-गलौच। शादी हो गई। अम्मा का अरमान पूरा हो गया।

मुहर्रम अली बेचारा चालीस बरस का हो गया उसकी शादी नहीं हुई। अकबर मियाँ शादी करवा दीजिए, शैतान रात को बहुत सताता है। शादी, ख़ुशी, कोई हमदर्द बात करने वाला, जिसे दिल की सारी बातें अकेले सुना दें।कोई औरत जिस से मोहब्बत कर सकें, दो घड़ी हँसें बोलें, छाती से लगाएँ, प्यार करें........... अरे मान भी जाओ मेरी जान ! मेरी प्यारी मेरी सब कुछ। ज़बान बेकार है। हाथ-पैर, सारा जिस्म, जिस्म का एक एक रोंगटा........ क्यूँ आज मुझसे ख़फ़ा हो ?  बोलो ! अरे तुमने तो रोना शुरू कर दिया। ख़ुदा के वास्ते बताओ आख़िर बात क्या है ? देखो, मेरी तरफ देखो तो सही। वो आई हँसी, वो आई होंटों पर। बस अब हँस तो दो। क्या दो दिन की ज़िंदगी में ख़्वाह-मख़ाह का रोना धोना। ओफ़्फ़ो, यूँ नहीं यूँ। और और और ज़ोर से मेरे सीने से लिपट जाओ।

लखनऊ के कोठों की सैर मैंने भी की है। ऐसा ग़रीब नहीं हूँ कि दूर से ही रंडियों को देख कर सिसकियाँ लिया करूँ। आइए हुज़ूर अकबर साहब! यह क्या है जो मुद्दतों से हमारी तरफ रुख ही नहीं करते। इधर कोई नई चलती हुई ग़ज़ल कहीं हो तो मेहरबानी फ़रमाइए। गाकर सुनाऊँ। लीजिये पान खाइए। अरे और लो और लो, ज़रा दम तो लीजिए। अरे आज तो माफ़ फ़रमाइए, फ़िर कभी। मैं तो आपकी ख़ादिम हूँ ..................रूपये की ग़ुलाम। समझती है मेरे पास पैसे नहीं। रूपये देख कर राज़ी हो गई। क्या सुनाऊँ  हुज़ूर ............. तबले की थाप, सारंगी की आवाज़, गाना-बजाना। फिर तो मैं था और वो थी और सारी रात थी। नींद जिसे आई हो वो काफ़िर। यह रातों का जागना। दूसरे दिन दर्द ए सर, थकावट, उदासी।

अम्मा की बीमारी के ज़माने में उनकी पलंग की पट्टी से लगा घंटो बैठा रहता था और उनकी खाँसी। कभी-कभी तो मुझे ख़ुद डर मालूम होने लगता। मालूम होता था कि हर खाँसी के साथ अम्मा के सीने में एक गहरा ज़ख़्म और पड़ गया। हर साँस के साथ जैसे ज़ख्मों पर से किसी ने तेज़ छुरी की धार चला दी। और वो घर-घराहट जैसे किसी पुराने खण्डहर में लू चलने की आवाज़ होती है। डरावनी। मुझे अपनी माँ से डर मालूम होने लगता।

इस हड्डी चमड़े के ढाँचे में मेरी माँ कहाँ ! मैं उनके हाथ पर अपना हाथ रखता, धीरे से दबाता, उनकी आधी खुली आधी बंद आँखें मेरी तरफ मुड़तीं, उनकी नज़रे मुझ पर होती। उस वक़्त उस कमज़ोर, मुर्दा ज़िस्म भर में बस आँखें ज़िन्दा होतीं। उनके होंट हिलते। अम्मा ! अम्मा ! आप क्या कहना चाहती हैं, जी ! मैं अपना कान उनके लबों के पास ले जाता। वो अपना हाथ उठाकर मेरे सर पर रखतीं। मेरे बालों में उनकी उंगलियाँ मालूम होता था कि फंसी जाती हैं और वो छुड़ाना नहीं चाहतीं। बहुत देर हो गई, जाओ तुम सो रहो.......... अम्मा यूँ ही पलंग पर लेती हैं। एक महीना, दो महीना, तीन महीना, एक साल, दो साल, सौ साल, हज़ार साल। मौत का फ़रिश्ता आया। बदतमीज़, बेहूदा कहीं का ! चल निकल यहाँ से, भाग, अभी भाग, वरना तेरी दुम काट लूँगा, डाँट पड़ेगी फिर बड़े मियाँ की ! हँसता है ? क्यूँ खड़ा है सामने दांत निकाले, तेरे फ़रिश्ते की ऐसी की तेसी। तेरे.........फ़रिश्ते........ की........

सारी दुनिया की ऐसी की तेसी, मियाँ ! अकबर तुम्हारी ऐसी की तेसी। ज़रा आपका रंग-ढंग देखें- फूँक दो तो उड़ जाए। बड़े शायर बने हैं। मुशायरों में तारीफ़ क्या हो जाती है कि समझते हैं .......... क्या समझते हैं बेचारे समझेंगे क्या ! बीवी जान को समझने भी दें। सुबह से शाम तक शिकायत, रोना-धोना।कपड़ा फटा है।बच्चे की टोपी खो गई, नई ख़रीद के ले आओ.......... जैसे मेरी अपनी टोपी नई है......... कहाँ खो गई टोपी ? मैं क्या जानू कहाँ खो गई। इसके साथ कोने –कोने में थोड़ी भागती फिरती हूँ। मुझे काम करना होता है। बर्तन धोना, कपड़े सीना। सारे घर का काम मेरे ज़िम्मे है। मुझे किसी तरह शे`र कहने की फ़ुर्सत नहीं। सुन लो खूब अच्छी तरह से, मुझे काम करना होता है। ततैया का छत्ता छेड़ दिया अब जान बचानी मुश्किल हो गई। क्या कैंची की तरह ज़बान चलती है। माशा अल्लाह, नज़र न लगे ........... अच्छी तरह जानते हो मेरे पास पहनने को एक ठिकाने का कपड़ा नहीं है। लड़का तुम्हारा अलग नंगा घूमता है, मगर तुम हो कि मालूम होता है कि कोई वास्ता ही नहीं। जैसे किसी ग़रीब के बीवी-बच्चे हैं। हाय अल्लाह मेरी किस्मत फूट गई। 

अब रोना शुरू होने वाला है। मियाँ अकबर बेहतर यही है कि तुम चुपके से खिसक लो। इसमें शर्माने की क्या बात। तुम्हारी मर्दानगी में कोई फ़र्क नहीं आता। खैरियत बस अब इस बात में है कि ख़ामोशी के साथ खिसक जाओ। हिजरत[7] करने से एक रसूल[8] की जान बची। मालूम नहीं ऐसे मौक़े पर रसूल बेचारे क्या करते थे, औरतों ने उनकी भी नाक में दम कर रखा था। तो फिर मेरा क्या आस्तित्व है। ऐ ख़ुदा आख़िर तूने औरत को क्यूँ पैदा की ? मुझ जैसा ग़रीब, कमज़ोर आदमी तेरी इस अमानत का भार अपने कांधों पर नहीं उठा सकता और क़यामत के दिन मैं जानता हूँ क्या होगा। यही औरतें वहाँ भी चीख़ पुकार मचाएंगी, नख्ररे करेंगी, आँखें मरेंगे कि अल्लाह मियाँ बेचारे खुद अपनी सफ़ेद दाढ़ी खुजाने लगेंगे। क़यामत का दिन आखिर कैसा होगा ? सवा नेज़े पर सूरज, मई जून की गर्मी उसके सामने कुछ नहीं होगी..... गर्मी की तकलीफ़, तौबा तौबा अरे तौबा ! यह मच्छरों के मारे नाक में दम, नींद हराम हो गई।

पिन-पिन,चट । वो मारा। आखिर यह कमबख़्त ठीक कान के पास आ के क्यूँ भिन्न भिनाते हैं। ख़ुदा करे क़यामत के दिन मच्छर न हों। मगर क्या ठीक। कुछ ठीक नहीं। आखिर मच्छर और खटमल इस दुनिया में ख़ुदा ने किस उद्देश्य से पैदा किए ? मालूम नहीं पैगम्बरों[9] को खटमल और मच्छर काटते हैं या नहीं। कुछ ठीक नहीं, कुछ ठीक नहीं........ आप का नाम क्या है ? मेरा नाम है। कुछ ठीक नहीं। वाह वा वाह ! मस्लहत ए ख़ुदावंदी[10]। ख़ुदावंदी और रंडी और भिंडी। ग़लत ! भिन डी है। भिंडी थोड़ी है। मियाँ अकबर इतना भी अपनी हद से न बाहर निकल चलें और क्या है ? बहर-ए -रज्ज़[11] में डाल के बहर-ए-रमल चले, बहर-ए-रमल चले[12], खूब ! वो तिफ्ल (बच्चा) क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले। अंगूर खट्टे ! आपको खटास पसंद है ? पसंद, पसंद से क्या होता है ? चीज हाथ भी तो लगे। मुझे घोड़ी गाड़ी पसंद है मगर पहुँचा नहीं कि वो दुलत्ती पड़ती है कि सर पाऊँ रख कर भागना पड़ता है और मुझे क्या पसंद है ? मेरी जान ! मगर तुम तो मेरी जान से ज्यादा प्यारी हो।

चलो हटो ! बस रहने भी दो, तुम्हारी मीठी- मीठी बातों का स्वाद मैं खूब चख चुकी हूँ.......... क्यूँ क्या हुआ क्या ......? हुआ क्या ? मुझसे यह बेशर्मी नहीं सही जाती। तुम जानते हो कि दिन भर नौकरानी की तरह से काम करती हूँ, बल्कि नौकरानी से भी बद्तर। जब से मैं इस घर में आई हूँ किसी कामवाली को एक महीने से ज़्यादा टिकते न देखा। मुझे साल भर से ज़्यादा हो गए और कभी ज़रा दम लेने की फ़ुर्सत मिली हो। अकबर की दुल्हन यह करो, अकबर की दुल्हन वो करो...... अरे अरे क्या, हुआ क्या, तुमने तो फिर रोना शुरू किया.......  मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूँ, मुझे यहाँ से कहीं ओर ले जा के रखो...... मैं शरीफ़ज़ादी हूँ....... सब कुछ सह लिया अब मुझसे गाली न बर्दाश्त होगी। गाली ! गाली ! मालूम नहीं क्या गाली दी। मेरी बीवी पर गालियाँ पड़ने लगीं।

या अल्लाह ! या अल्लाह ! बेगम कमबख़्त का गला और मेरा हाथ। उसकी आँखें निकल पड़ीं, ज़बान बहार निकलने लगी। ख़स कम जहाँ पाक[13]....... ख़ुदा के लिए मुझे छोड़ दो ! गलती हुई, माफ़ करो, अकबर, मैंने तुम्हारे साथ एहसान भी किये हैं.... एहसान तो ज़रूर किये हैं। एहसानों का शुक्रिया अदा करता हूँ। मगर अब तुम्हारा वक़्त आ गया। क्या समझ के मेरी बीवी को गालियाँ दी    थीं ? बस ख़त्म ! आख़री दुआ माँग लो ! गला घोटने से सर काटना बेहतर है। बालों को पकड़ कर कटा हुआ सर उठाना, ज़बान का एक तरफ को निकली पड़ रही है। खून टपक रहा है। आँखें घूर रही हैं...... या अल्लाह आखिर मुझे क्या हो गया ? ख़ून का समुंदर ! मैं ख़ून के समुंदर में डूबा जा रहा हूँ। चरों तरफ से लाल लाल गोले मेरी तरफ़ बढ़ते चले आ रहे हैं। वो आया ! वो आया ! एक, दो,    तीन ! सब मेरे सर पर आकर फटें रोंगटे जल रहे हैं। दौड़ों ! अरे दौड़ों ! ख़ुदा के लिए दौड़ो !  मेरी मदद करो, मैं जला जा रहा हूँ। मेरे सर के बाल जलने लगे। पानी ! पानी ! कोई सुनता क्यूँ नहीं ? ख़ुदा के वास्ते मेरे सर पर पानी डालो ! क्या ? इन जलते हुए अंगारों पर से मुझे नंगे पैर चलना पड़ेगा ? क्या ? मेरी आँखों में दहकते हुए लोहे की सलाखें डाली जायेंगी ? क्या ? मुझे खोलता हुआ पानी पीने को मिलेगा ? क्या क्या क्या ? मुझे पीप खाना पड़ेगी ?

यह शोले मेरी तरफ़ क्यूँ बढ़ते चले आ रहे हैं ? यह शोले हैं या भाले हैं ? आग के भाले ! ज़ख़्म की भी तकलीफ़ और जलने की भी। यह किस के चीख्नने की आवाज आई ? मैं तो सुन चुका हूँ इस आवाज़ को। ऊ ऊ ऊ......... ऊऊऊऊ आवाज़ दूर होती जाती है। मेरे लड़के ने आख़िर क्या क़ुसूर किया  है ? मेरे लड़के को किस जुर्म की सज़ा मिल रही है ? मेरा लड़का तो अभी चार बरस का है। इसे तो माफ़ कर देना चाहिए। मैं गुनाहगार हूँ ! मैं ख़तावार हूँ ! यह कौन आ रहा है मेरे सामने से ? अरे म`आज़ अल्लाह[14] ! सांप चिमटे हुए हैं उसकी गर्दन से। उसकी छाती को काट रहे हैं........ ऐ हुज़ूर ! आदाब अर्ज़ है ! ऐ हुज़ूर भूल गए हम ग़रीबों को ? मैं हूँ मुन्नी जान ! कोई ठुमरी[15], कोई दादरा[16], कोई ग़ज़ल। ऐ है आप तो जैसे डरे जाते हैं हुज़ूर ! यह साँप आपसे कुछ नहीं बोलेंगे। इनकी भी अनोखी मेहरबानी है। मैं जब यहाँ आई तो दरोग़ा साहब ने कहा, बी मुन्नी जान ! सरकार का हुक्म है पाँच बिच्छु तुम्हारी ख़िदमत के लिए हाज़िर किए जाएँ। मैं हुज़ूर सहम गई। बचपन से मुझे बिच्छु से नफरत थी। मैंने हुज़ूर के बहुत हाथ-पैर जोड़े, मगर दरोग़ा साहब ने कहा कि सरकार के हुक्म को पूरा करना उन पर फ़र्ज़ है। तब मैंने कहा कि अच्छा आप मुझे सरकार के दरबार में पहुँचा दें, मैं खुद उन से प्रार्थना करुँगी।

 दरोग़ा साहब बेचारे भले आदमी थे, अपने पास बुला कर बैठाया, मेरे गालों पर हाथ फेरे, आखिरकार राज़ी हो गए। पहले तो मुझे कई घंटे इंतिज़ार करना पड़ा। दरोग़ा साहब ने कहा इस वक़्त सरकार पैगम्बरों की कोंसिल कर रहे हैं। जब उससे फ़ुर्सत होगी तब मेरी पेशी होगी। मैंने जब यह सुना तो कोशिश की कि झाँक कर अपने पैगम्बर साहब का जलवा देख लूँ, मगर दरवाज़े के दरबान, मूंछ मुस्टंडे देव ने मुझे धक्का देकर अलग कर दया। ख़ैर हुज़ूर, आख़िरकार मेरी बारी आई। मेरा दिल धड़-धड़ कर रहा था कि देखो क्या होता है। सरकार के दरबार में दाख़िल होते ही मैं घुटनों के बल गिर पड़ी। मेरी अपनी ज़बान से कुछ बोला न जाता था, दरोग़ा साहब ने मेरा हाल बयान किया।

इतने में हुक्म हुआ, खड़ी हो। मैं हुज़ूर खड़ी हो गई। तो सरकार ख़ुद उठ कर मेरे पास तशरीफ़ लाए। बड़ी सी सफ़ेद दाढ़ी, गोरा चिट्टा रंग, और मेरी तरफ मुस्कुरा के देखा। फिर मेरा हाथ पकड़ कर बग़ल के कमरे में ले गए। मेरी हुज़ूर समझ में नहीं आता था कि आखिर मामला किया है.............. मगर हुज़ूर देखने ही में बुड्ढे मालूम होते हैं, ऐसे मर्द दुनिया में तो मैंने देखे नहीं और आपकी दुआ से हुज़ूर मेरे यहाँ बड़े बड़े रईस आते   थे ! ख़ैर तो हुज़ूर बाद में सरकार ने फ़रमाया कि सज़ा तो मुझे ज़रूर मिलेगी, क्यूंकि उनका इंसाफ तो सबके साथ बराबर है, मगर बिच्छुओं के बदले मुझे दो ऐसे साँप मिले जो बस मेरा सीना चाटा करते हैं। सच पूछिए हुज़ूर इसमें तकलीफ कुछ नहीं और मज़ा ही है.................. मगर आप तो मुझसे डर जाते हैं। अकबर साहब ! ऐ हुज़ूर अकबर साहब......... कोई ठुमरी, कोई दादरा, कोई ग़ज़ल..........

या अल्लाह मुझे जहन्नुम की आग से बचा ! तू रहम करने वाला है। मैं तेरा एक छोटा सा गुनाहगार बंदा हूँ........... मगर कुछ भी हो बे-इज़्ज़ती मुझसे बर्दाश्त न होगी। मेरी बीवी पर गालियाँ पड़ने लगी हैं। मगर मैं करूँ तो क्या करूँ ? भूका मरुँ ? हड्डियों का एक ढाँचा, उस पर एक खोपड़ी, खट खट करती सड़क पर चली जा रही है। अकबर साहब ! आपके ज़िस्म का गोश्त क्या हुआ ? आपकी चमड़ी किधर गई ? जी मैं भूका मर रहा हूँ, गोश्त अपना मैंने गधों को खिला दिया। चमड़ी के तबले बनवाकर बी मुन्नी जान को तोहफ़े दे दिए।

क्या ख़ूब सूझी ! आपको जलन हो रही हो तो बिस्मिल्लाह[17] मेरी पैरवी कीजिए। मै किसी की पैरवी नहीं करता ! मैं आज़ाद हूँ हवा की तरह से! आज़ादी की आजकल अच्छी हवा चली है। पेट में आंतें कुलबुला रही हैं और आप हैं कि आज़ादी के चक्कर में हैं।

मौत या आज़ादी ! न मुझे मौत पसंद है न आज़ादी। कोई मेरा पेट भर दे।

 

पिन, पिन पिन। चट, हट तेरे मच्छर की...... टन टन टन .. टन टन.....



[1] चकवा नामक पक्षी जिसके पर लाल व मोहक होते हैं।

[2] निराहार रहने की अवस्था, भूका प्यासा

[3] पुण्य, नेकी, भलाई

[4] मुस्लिम विवाह में वर द्वारा वधु को दी जाने वाली धनराशि

[5] वह मेहर जो निकाह (विवाह) के समय तत्काल दिए जाएँ

[6] वह मेहर जो निकाह (विवाह) के बाद कभी भी दिए जा सकते हैं

[7] संकट के समय अपनी जन्म-भूमि छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाना। पलायन

[8] ईशदूत,ईश्वर के प्रतिनिधि को इस्लाम धर्म में रसूल कहा जाता है। यहाँ रसूल से अभिप्राय मुहम्मद स० हैं

[9] ईशदूत, रसूल

[10] ख़ुदा (ईश्वर) की भलाई दृष्टि

[11] एक प्रकार का छंद,वज़न जिसके अनुसार ग़ज़ल लिखी जाती है।

[12] एक प्रकार का छंद,वज़न जिसके अनुसार ग़ज़ल लिखी जाती है।

[13] कहावत: बुरे इंसान की मृत्यु पर कही जाती है। चलो अच्छा हुआ, संसार पवित्र हुआ

[14] एक अरबी वाक्य जिसका अर्थ है ‘अल्लाह क्षमा करे’।

[15] एक प्रकार का छोटा सा गीत, स्त्री प्रेमालाप

[16] एक प्रकार का गाना, ताल

[17] अरबी का वाक्य जिसका अर्थ है ‘अल्लाह के नाम से आरम्भ’। किसी नेकी, भलाई या सही कार्य को आरम्भ या  प्रारम्भ करते समय उच्चारण किया जाता है।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ