"अंगारे" कहानी -2
जन्नत की बशारत
सज्जाद ज़हीर
लखनऊ, इस पतन के
काल में भी इस्लामी शिक्षाओं का केंद्र है। कई अरबी मदरसे आजकल के फ़ितने फ़सादी
ज़माने में सच्चाई की शमा रोशन किए हुए है। हिंदुस्तान के हर कोने से ईमान की गर्मी
रखने वाले दिल यहाँ आकर दीन की शिक्षा प्राप्त करते हैं और इस्लाम की इज़्ज़त बनाए
रखने में मददग़ार होते हैं। बद-क़िस्मती से वह दो फ़िरक़े[1] जिन के मदरसे लखनऊ
में हैं एक दूसरे को जहन्नुमी समझते हैं। मगर हम अपनी आँखों से इस फ़िरक़ाबंदी का
चश्मा उतार दें और ठंडे दिल से इन दोनों गिरोह के शिक्षकों और विद्यार्थियों पर
नज़र डालें तो हम इन सब के चहरों पर उस ईमानी नूर की झलक पाएंगे जिस से उनके दिल और
दिमाग़ रोशन हैं। उनके लम्बे कुर्ते और चोगें, उन की जूती और स्लीपर, उनकी दो पल्ली
टोपियाँ, उनका घुटा हुआ गोल सर और उनकी मुबारक दाढ़ियाँ जिन के एक एक बाल को हूरें
अपनी आँखों से मलेंगे, इस सब से उन की पाकी और परहेज़गारी[2] टपकती है। मौलवी
मोहम्मद दाऊद साहब बरसों से एक मदरसे में पढ़ाते हैं और अपनी अक्लमंदी के लिए मशहूर
थे। इबादत गुजारी का यह हाल था कि रमज़ान मुबारक के महीने की रात क़ुरआन व नमाज़ पढ़ने
में गुज़र जाती थी और उन्हें ख़बर तक न होती। दूसरे दिन जब पढ़ाते वक़्त नींद झपकियाँ
आती थी तो विद्यार्थी समझते थे कि मौलाना को रूहानी सुरूर[3] हो रहा है और ख़ामोशी से उठकर चले जाते।
रमज़ान का मुबारक महीना हर मुसलमान के लिए
ख़ुदा की रहमत है। ख़ासकर जब रमज़ान मई और जून के लम्बे दिन और तपती हुई धूप के साथ
पड़ें। ज़ाहिर है कि इंसान जितनी ज़्यादा तकलीफ़ बर्दाश्त करता है उतना ही सवाब का
हक़दार होता है। उन जबरज़स्त गर्मी के दिनों में अल्लाह का हर नैक बंदा उस एक बिछड़े
हुए शेर के जैसा होता है जो ख़ुदा की राह में जिहाद[4] करता है। उसका सूखा हुआ चेहरा और उसकी धंसी हुई आँखें
पुकार पुकार कर कहती हैं :-
“ ऐ वह गिरोह ! जो ईमान नहीं लाते और ऐ वो बदनसीबों! जिनके ईमान डगमगा रहे हैं, देखो ! हमारी सूरत देखो ! और शर्मिंदा हो। तुम्हारे दिलों पर, तुम्हारी सुनने की ताक़त पर और तुम्हारी देखने की ताक़त पर अल्लाह पाक ने मोहर लगा दी है। मगर वो जिनके दिल ख़ुदा के डर से थर थरा रहे हैं, इस तरह उसके हुक्म मानते हैं।”
यूँ तो इस मुबारक महीने का हर दिन और हर रात इबादत के लिए है। लेकिन सबसे
ज़्यादा बड़ाई शब ए क़द्र[5] की है। इस रात को ख़ुदा के दर के दरवाज़े दुआ क़ुबूल के लिए खोल दिए जाते हैं।
गुनाहगारों की तौबा क़ुबूल कर ली जाती है और मोमिन बेहिसाब सवाब लूटते हैं। ख़ुशनसीब
है वो बन्दे जो इस मुबारक रात को नमाज़ और क़ुरआन पढ़ने में बिताते हैं। मौलवी दाऊद
साहब कभी ऐसे अच्छे मोक़ों पर ग़लती नहीं करते थे। इंसान हर पल और हर वक़्त में न
जाने कितने गुनाह करता है।अच्छे बुरे हज़ारों ख्याल दिमाग़ से गुज़रते हैं। क़यामत के
भयानक दिन जब हर इंसान के गुनाह और सवाब तोले जाएँगे और रत्ती रत्ती का हिसाब देना
होगा तो क्या मालूम क्या परिणाम हो। इस लिए बहतर यही है जितना ज़्यादा सवाब हासिल
कर सकते हैं उतना ज़्यादा हासिल कर लिया जाए। मौलवी दाऊद साहब को जब लोग मना करते
थे कि इतनी ज़्यादा मेहनत न करें तो वो हमेशा यही जवाब देते ।
मौलाना की उम्र कोई पचास साल होगी। क़द छोटा था। रंग गेहुँआ, तिकुनी दाढ़ी, बाल
खिचड़ी थे। मौलाना की शादी उन्नीस या बीस बरस में हो गई थी।आठवें बच्चे के जन्म के
समय उनकी पहली बीवी की मौत हो गई। दो साल बाद उनचास बरस की उम्र में मौलाना ने
दूसरा निकाह किया। मगर इन नई बीवी की वज़ह से जान मुश्किल में रहती। बीवी और मौलवी
दाऊद साहब की उम्र में करीब बीस बरस का फ़र्क़ था। इस लिए मौलाना उन्हें यकीन दिलाया
करते थे कि उनकी दाढ़ी के कुछ बाल जुखाम की वज़ह से सफ़ेद हो गए हैं। लेकिन उनकी जवान
बीवी फ़ौरन दूसरे सुबूत पैश करतीं और मौलाना को चुप होना पड़ता।
एक साल के लम्बे इंतिज़ार के बाद शब ए कद्र फिर आई। इफ़्तार[6] के बाद मौलाना घंटे आधे घंटे लेटे, उसके बद नहा कर मस्जिद में नमाज़ व दुआ के लिए फ़ौरन चले गए। मस्जिद में मुसलामानों का हुजूम था। अल्लाह के मानने वाले और नैक बन्दे , तहमद[7] बांधे लम्बी लम्बी डकारे लेते हुए मौलाना दाऊद साहब से हाथ मिलाने के लिए लपके। मौलाना के चहरे से नूर टपक रहा था और उनका असा,[8] पूरे हुजूम पर उनके ईमान की पाकी का रोब जता रहा था। इशा[9] के बाद डेढ़ दो बजे रात तक सवाब का सिलसिला लगातार जारी रहा। इसके बाद सहरी[10] के लज़ीज़ पकवानों से जिस्म ने ताक़त पाई और मौलाना घर वापस चले। जम्हाई पर जम्हाई चली आती थी, शीरमाल, पुलाव और खीर से भरा हुआ पेट आराम ढून्ढ रहा था। ख़ुदा ख़ुदा करके मौलाना घर वापस पहुँचे। आत्मा और शरीर के बीच जबरजस्त जंग जारी थी। शब ए कद्र के अभी तीन घंटे शेष थे। जो इबादत में लगाए जा सकते थे। मगर जिस्म को भी सुकून और नींद की बेहद ज़रूरत थी। आख़िरकार उस पुराने नैक बंदे ने रूह का दामन थाम लिया और आँखे मल कर नींद भगाने की कोशिश की।
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सज्जाद ज़हीर |
घर में अँधेरा छाया हुआ था, लालटेन मुझी पड़ी थी। मौलाना ने माचिस इधर उधर
टटोली मगर वो न मिली। आँगन के एक कोने में उनकी बीवी का पलंग था। मौलाना दबे पाऊँ,
डरते डरते, उधर बढ़े और आहिस्ता से बीवी का कंधा हिलाया। गर्मियों की तारों भरी रात
और रात के आख़री सन्नाटे में मौलवी साहब की जवान बीवी गहरी नींद में सो रही थी।
आख़िरकार उन्होंने करवट बदली, और आधी जागती हुई, आधी सोती हुई धीमी आवाज़ में पूछा
“ऐ क्या है ?”
मौलाना इस नरम आवाज़ के सुनने के आदी न थे। हिम्मत करके एक लफ्ज़ बोले “माचिस”।
मौलवी साहब की बीवी पर अभी तक नींद हावी थी, मगर कच्ची पक्की नींद के माहौल
में, रात का अँधेरा, सितारों की जगमगाहट, और हवा की ठंडक ने जवानी पर इतना जादू कर
दिया था कि अचानक उन्होंने मौलाना का हाथ अपनी तरफ खींचा और उनके गले में दोनों
बाहें डाल कर, अपने गाल को उनके मुँह पर रख कर लम्बी लम्बी साँसें लेते हुए कहा
“आओ लेटो” !
एक पल के लिए मौलाना का दिल फड़क गया। मगर दूसरे पल उन्हें “हव्वा की ख़्वाइश,
आदम का पहला गुनाह, जुलेख़ा का इश्क़, युसूफ का दामन फटना[11]”, यहाँ तक कि औरत
के गुनाहों की पूरी की पूरी लिस्ट याद आ गई और अपने पर क़ाबू हो गया। चाहे यह उम्र
की वज़ह से हो या ख़ुदा का डर या रूहानियत की वजह से हो, लेकिन मौलाना जल्दी से अपनी
बीवी के हाथ से निकल कर उठ खड़े हुए और पतली आवाज़ से पूछा “माचिस कहाँ है ?”
एक मिनट में औरत की नींद और
ख्वाइशों की उमंग दोनों ग़ायब होकर ता`ने वाले ग़ुस्से से बदल गईं। मौलाना की बीवी
पलंग पर उठ बैठीं और ज़हर से भुजी हुई ज़बान से एक एक लफ्ज़ तौल तौल कर कहा “बुड्ढा
मुआ ! आठ बच्चों का बाप ! बड़ा नमाज़ी बना है ! रात की नींद हराम कर दी, माचिस,
माचिस ! ताक़ पर पड़ी होगी।”
एक बूढ़े मर्द का दिल दुखाने के लिए इससे ज़्यादा तकलीफ वाली बात और क्या होगी
कि उसकी जवान बीवी उसे बुड्ढा कहे। मौलाना काँप गए मगर कुछ बोले नहीं। उन्होंने
लालटेन जला कर एक चोकी पर जा-ए-नमाज़[12] बिछाई और कुरआन पढ़ने में मशग़ूल हो गए । मौलाना की नींद तो
उड़ गई थी मगर लगभग आधे घंटे के बाद भरे हुए पेट में उठती हवाओं ने जिस्म को चूर
करके आँखों को दबाना शुरू किया। ‘सूरह रहमान’[13] का लुत्फ़ और मौलाना की दिल को छूने वाली आवाज़ ने लोरी का
काम किया। तीन चार बार ऊंघ कर मौलाना जा-ए-नमाज़ ही पर फ़बि अय्यि, अय्यि[14] कहते कहते सो गए।
पहले तो उन पर नींद में खो जाने की
हालत रही, उसके बाद उन्होंने अचानक महसूस किया कि वो अकेले, तन्हा, एक अँधेरे
मैदान में खड़े हुए हैं। और डर से काँप रहे हैं। थोड़ी देर के बाद यह अंधेरा रौशनी
से बदलने लगा और किसी ने उनके पास आकर कहा “सज्दा कर ! तू ख़ुदा के दरबार में है।”
कहने की देरी थी कि मौलवी साहब सज्दे में गिर पड़े और एक दिल दहला देने वाली आवाज़,
बादल के गरज की तरह, चारों तरफ़ से गूंजती हुई मौलवी साहब के कानों में आई:-
“मेरे बन्दे हम तुझ से खुश हैं ! तू हमारे हुक्म
मानने में पूरी ज़िन्दगी इस तरह डूबा रहा कि कभी अपनी अक्ल और अपनी सोच को हावी न
किया, यह जो दोनों शैतानी ताक़ते हैं ‘कुफ़्र-ओ-इल्हाद[15]’ की जड़ें हैं। इंसानी समझ ईमान व भरोसे की दुश्मन है। तू
इस राज़ को खूब समझा और तूने कभी ईमान की रौशनी को अक्ल के जंग से अँधेरा न होने दिया
तेरा ईमान हमेशा के लिए जन्नत है जिसमें तेरी ख्व़ाइश पूरी की जाएगी।”
थोड़ी देर तक तो मौलवी साहब पर ख़ुदा का रोब इस तरह हावी रहा कि सज्दे से सर
उठाने की हिम्मत न हुई। कुछ जब दिल की धड़कन कम हुईं तो उन्होंने लेटे लेटे कनखियों
आँखों से अपने दाएँ बाएँ नज़र डाली। इन आँखों ने कुछ और ही नज़ारा देखा। सुनसान
मैदान एक बड़ा आलिशान गोल कमरे से बदल गया था। इस कमरे की दीवारें जो जवाहरात की
थीं जिन पर अनोखे निशान बने हुए थे। लाल, हरे, पीले, सुनहरे और सफ़ेद। जगमगाते हुए
फूल और फल मालूम होता था कि दिवार से टपके पड़ते हैं। रोशनी दीवारों से छन छन कर आ
रही थी, लेकिन ऐसी रोशनी जिससे आँखों को ठंडक पहुंचे ! मौलाना उठ बैठे और चारो तरफ
नज़र दौड़ाई।
अजब ! अजब ! चारो तरफ कमरे की दीवारों पर कोई साठ या सत्तर इंसानी लम्बाई के
बराबर खिड़कियाँ थीं और हर खिड़की के सामने एक छोटा सा झरोखा। हर एक झरोखे पर एक हूर[16] खड़ी हुई थीं।
मौलाना जिस तरफ नज़र फैराते हूरें उनकी तरफ देख कर मुस्कुरातीं और दिल लुभाने वाले
इशारे करतीं। मगर मौलाना झैंप कर आँखे झुका लेते। दुनिया का भला आदमी इस लिए
शर्मिदा था कि यह सब की सब हूरें सर से पैर तक नंगी थीं। अचानक मौलाना ने अपने जिस्म
पर जो नज़र डाली तो खुद भी इसी नूरानी कपड़ों में थे। घबरा कर उन्होंने इधर उधर देखा
कि कोई हँस तो नहीं रहा है, मगर उन हूरों के अलवा कोई और नज़र नहीं आया। दुनिया की
शर्म अभी बिलकुल ख़त्म नहीं हुई थी लेकिन दुश्मनों के तंज़ और हँसी जन्नत में कहीं
नाम को भी न थी। मौलाना की घबराहट कम हुई। उनकी रगों में जवानी का ख़ून फिर से दौड़
रहा था, वह जवानी.......... जिसकी ढलान नहीं !
मौलाना ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फैरा और मुस्कुराते हुए एक
खिड़की की तरफ़ बड़े, हूर आगे बढ़ी और उन्होंने उस पर सर से पैर तक नजर डाली। उसके
जिस्म का दमकता हुआ चम्पई रंग, उसकी कटीली आँखें, उसकी दिल लुभाने वाली मुस्कराहट,
इस जन्नत के नज़ारे से मौलाना की आँख हटती ही न थी। लेकिन इंसान एक अच्छी चीज़ से
भला कब तक ख़ुश हो सकता है। मौलाना के क़दम उठे और वो दूसरे झरोखे की तरफ बढ़े। इसी
तरह वो हर झरोखे पर जाकर थोड़ी थोड़ी देर रुकते, इन जन्नती हस्तियों के बदन के हर हर
हिस्से को गौर से देखते और मुस्कुरा कर दुरूद[17] पढ़ते हुए आगे बढ़
जाते। किसी के काले घुंघराले बाल उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद आते तो किसी के गुलाबी
गाल, किसी के गहरे लाल होंट, किसी की टांगें, किसी की पतली उंगलियाँ, किसी की नशीली
आँखें, किसी की नुकीली छातियाँ, किसी की नाज़ुक कमर, किसी का नरम पेट।
आख़िरकार एक हूर की प्यारी अदा ने मौलाना का दिल मोह लिया।
वो फ़ौरन उचक कर उसके कमरे में आए और उसे तुरंत अपनी सीने से लगा लिया। मगर अभी
होंट से होंट मिले ही थे कि पीछे से हँसने की आवाज़ आई। इस असमय हँसी पर मौलाना के
ग़ुस्से की कोई हद न रही। उनकी आँख खुल गई। सूरज निकल आया था। मौलाना जा-ए-नमाज़ पर
पेट के बल पड़े हुए कुरआन को सीने से लगाए थे। उनकी बीवी पास में खड़ी हँस रही थी।
[1] पंथ, सम्प्रदाय, गिरोह।
[2] संयम-नियम का पालन करने
वाला।
[3] आत्मिक आनंद,
[4]नैतिक मूल्यों के लिए किया जाने वाला संघर्ष,धर्मयुद्ध
[5]रमज़ान के महीने की 27 वीं रात, इस रात में इबादत करने का बहुत सवाब(पुण्य) मिलता
है।
[6] दिन भर व्रत,रोज़ा के बाद सूर्यास्त के समय खाना खाना।व्रत
तोड़ना।
[7] लुंगी
[8] हाथ में पकड़ी जाने वाली लकड़ी,छड़ी।
[9] रात की नमाज़।
[10] व्रत के लिए सुबह तड़के किये जाने वाला भोजन।
[11] “हव्वा की ख़्वाइश, आदम का
पहला गुनाह, जुलेख़ा का इश्क़, युसूफ का दामन फटना”
“हव्वा”-
यहूदी, ईसाई तथा मुस्लिम मतानुसार संसार की वह पहली स्त्री
जो आदम की पत्नी थी। स्वर्ग में हव्वा ने ईश्वर द्वारा निषेद किए गए
फल (गंदुम ) को खाने की ख्वाइश (इच्छा) जताई, जिस कारण से हव्वा और आदम को स्वर्ग
से निकाल दिया गया।
“जुलेख़ा”-
मिस्र नरेश की स्त्री थी जो कि “युसुफ़” (यहूदी, ईसाई तथा मुस्लिम मतानुसार ईशदूत, रसूल हैं) की ख़ूबसूरती पर आशिक़ हो जाती है
और एक दिन उत्तेजित होकर युसुफ को पकड़ने की कोशिश करती है, जिस कारण से युसुफ का
दमन फट जाता है।
[12] नमाज़ पढ़ने के लिए बिछाए जाने वाला कपड़ा,चटाई,कालीन।
[13] क़ुरआन के एक अध्याय का
नाम।
[14] क़ुरआन अध्याय 55 की एक आयत जिसका अर्थ है- तुम अपने रब की कौन-कौन
सी नेमत,वरदान को झुटलाओगे।
[15] अधर्मी और नास्तिकता
[16] स्वर्ग अप्सरा
[17] मोहम्मद स० और उनके परिवार पर दुआ व सलाम पढ़ना।
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