किताब-
ख़िलाफ़त ओ मुलूकिय्यत
लेखक-
मौलाना अबुल आला मौदूदी
देवनागरी
लिप्यंतरण- फ़रीद अहमद
अध्याय
-3
भाग-5
(अंतिम)
खिलाफत-ए-राशिदा और उसकी खुसूसियात
7-
रूह-ए-ज़म्हूरियत
इस खिलाफत की अहम तरीन खुसुसियात में से एक यह थी कह इसमें तनक़ीद और इज़हार-ए-
राय की पूरी आज़ादी थी और खुल्फा हर वक़्त अपनी कौम की दस्तरस में से थे। वो खुद अपने अहल-ए-शूरा के
दरमियान और मुबाहिशों मे हिस्सा लेते थे। उनकी कोई सरकारी पार्टी न थी, न उन के खिलाफ किसी पार्टी
का कोई वुजूद था। आजादाना फिजा में शरीक-ए-मजलिस अपने ईमान व ज़मीर के मुताबिक़ राय देता था। तमाम मुआमलात में अहल-ए-हल-ओ-अक्द
के सामने बे`कम ओ कास्त रख दिए जाते और कुछ छुपा कर न रखा जाता। फैसले दलील की बुनियाद पर
होते थे न कह किसी के रुअब व असर, न किसी के मुफाद की पासदारी, या किसी जत्था बंदी
की बुनियाद पर। फिर यह खुल्फ़ा अपनी कौम का सामना सिर्फ शूरा के वास्ते ही से न करते थे, बल्कि
बराए-रास्त हर रोज़ पांच मर्तबा नमाज़े बा-जमात में, हर हफ्ते जुमे के इज्तिमे में,
हर साल ईदेन और हज के इज्तिमाआत में इनको कौम से और कौम को इन से साबिका पेश आता
था। उन के घर अवाम के दरमियान थे और किसी हाजिब ओ दरबान के बगैर उन के दरवाज़े हर
शख्स के लिए खुले हुए थे। वो बाजारों में किसी मुहाफ़िज़ दस्ते, और हटो-बचों के एहतमाम
के बगैर अवाम के दरमियान चलते फिरते थे। इन तमाम मोके पर हर शख्स को उन्हें टोकने, उन पट तनक़ीद
करने, और उनसे मुबाहिसा करने की खुली आज़ादी थी, और इस आज़ादी के इस्तेमाल की वो महज़
इज़ाज़त ही न देते थे, बल्कि उसकी हिम्मत अफजाई करते थे। हज़रत अबुबकर (रजि०) ने अपनी
खिलाफत की पहली तक़रीर में, जैसा कह पहले गुज़र चुका है, अलल-ए'लान कह दिया था कह अगर मैं सीधा चलूँ तो मेरी मदद करो, अगर टेढ़ा
हो जाऊ तो मुझे सीधा कर दो। हजरत उमर (रजि०) ने एक मर्तबा जुमे के ख़ुत्बे में इस राय
का इज़हार किया था कह किसी शख्स को निकाह में 400 दिरहम से ज्यादा मेहर बाँधने की
इज़ाज़त न दी जाए। एक औरत ने उन्हें वहीं टोक दिया कह आपको ऐसा हुक्म देना का हक नहीं है । कुरआन ढेर सा माल (किन्तार) मेहर देने की इज़ाज़त
देता है। आप उसकी हद मुक़र्रर करने वाले कौन होते हैं। हज़रत उमर (रजि०) ने फोरन् अपनी
राय से रुजू कर लिया।” [1]
एक मौके पर भरे मजमे में हजरत सुलेमान फारसी (रजि०) ने उसने मुहास्बा किया कह सब
के हिस्से में एक एक चादर आई है, आपने दो चादरें कैसे ले लीं। हजरत उमर (रजि०) ने उसी वक़्त
अपने बेटे अब्दुल्लाह (रजि०) बिन उमर (रजि०) की शहादत पैश दी कह दूसरी चादर
इन्होने अपने वालिद को मुस्त'आर दी है।” [2]
एक दफा अपनी मजलिस में उन्होंने लोगों से पूछा अगर में बअज़ मुआमलात में ठील
इख्तियार कर लूँ तो तुम क्या करोगे ? हजरत बशर (रजि०) बिन साद ने कहा अगर अप ऐसा
करेंगे तो हम आपको तीर की तरह सीधा कर देंगे। हजरत उमर (रजि०) ने फ़रमाया जब
तो तुम काम के लोग हो।[3] सबसे ज्यादा सख्त
तनक़ीद से हजरत उस्मान (रजि०) को साबिका पैश आया और उन्होंने ने कभी किसी का मुंह
ज़बरजस्ती बंद करने की कोशिश न की, बल्कि एतराज़ात और तनक़ीद के जवाब में बर-सर-ए-आम
अपनी सफाई पैश की। हजरत अली (रजि०) ने अपने ज़माने खिलाफत में ख्वारिज़ के इन्तिहाई बद ज़बानियों
को बड़े ठन्डे दिल से बर्दाश्त किया। एक मर्तबा पांच खारजी उनके पास गिरफ्तार कर के लाए गए जो अलल-ए'लान उन को गालियाँ दे रहे थे और उन में से एक बर-सर-ए-आम कह
रहा था कह खुदा की कसम अली (रजि०) को क़त्ल करूँगा। मगर हजरत अली (रजि०) उन सब को
छोड़ दिया और अपने आदमियों से फ़रमाया इन की बद ज़बानियों का जवाब तुम चाहो तो बद ज़बानी
से दे लो, मगर जब तक अमलन् कोई बागियाना कार्रवाई
नहीं करते, महज़ ज़बानी मुखालफत कोई ऐसा जुर्म नहीं जिस की वज़ह से इन पर हाथ डाला
जाए।” [4]
खिलाफात-ए-राशिदा का यह दौर जिसका हमने ऊपर ज़िक्र किया है एक रौशनी का मीनार
था जिस की तरफ बाद के तमाम अदवार में फिक्हा, मुहद्दसीन और आम दीनदार मुसलमान
हमेशा देखते रहे और इसी को इस्लाम के मज़हबी, सियासी, अख्लाकी और इज्तिमाई निजाम के
मामले में मयार समझते रहे।
जारी
है ...... अध्याय-4 भाग- 1
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