सामाजिक परिवर्तन
के सिद्धांत-II
-फ़रीद अहमद
सामाजिक परिवर्तन का रेखीय सिद्धांत –
सामाजिक परिवर्तन
के रेखीय सिद्धांतकार उद्विकस्वादियों से प्रभावित थे । वे इस मत को नहीं मानते कि
परिवर्तन ‘चक्रीय’ गति से होता है वरन उनका मत है कि परिवर्तन सदैव एक सीधी रेखा
में नीचे से ऊपर के ओर भिन्न चरणों में होता है । उदविकासीय एवं रेखीय
सिद्धानात्कारों में कॉम्ट, स्पेंसर, हॉबहाउस, आदि प्रमुख
हैं । कॉम्ट समाज के उदविकासीय रूप के तीन स्तरों (धर्म से विज्ञान तक ), स्पेंसर
चार स्तरों (शिकारी से औद्योगिक तक ) तथा मार्क्स पांच स्तरों (आदिम साम्यवादी से
आधुनिक साम्यवादी तक) के रूप में मानते हैं । मार्क्स एवं वेब्लिन सामाजिक
परिवर्तन के रेखीय क्रम को तो प्रस्तुत करते ही हैं, किन्तु आर्थिक एवं
प्रोद्योगिक कारकों को अधिक महत्व देते हैं । अतः इनके सिद्धांतों को निर्धारणवादी
सिद्धांत (Deterministic Theories) कहते हैं ।
कॉम्ट का सिद्धांत (Theory of Comte) –
आगस्ट कॉम्ट ने
सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव के बौधिक विकास से जोड़ा है । उन्होंर बौधिक
विकास एवं सामाजिक परिवर्तन के तीन स्तर माने है-
1-
धार्मिक स्तर (Theological Stage)
2-
तात्विक स्तर (Metaphysical Stage)
3-
वैज्ञानिक स्तर (Positive Stage)
1-धार्मिक
स्तर (Theological Stage)- धार्मिक स्तर समाज
की प्राथमिक अवस्था थी, जिसमे मानव प्रत्येक घटना को इश्वर एवं धर्म के संदर्भ में
समझने का प्रयत्न करता था । विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म एवं इश्वर को ही
माना गया । उस समय अलग-अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न स्वरूप , जैसे – बहुदेववाद,
एकदेववाद अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थी ।
2- तात्विक
स्तर (Metaphysical Stage)- द्वितीय स्तर
तात्विक स्तर है, जिसमे मानव घटनाओं की व्याख्या उन गुणों के आधार पर करता था । इस
व्यवस्था में मानव का अलौकिक शक्ती में विशवास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान
अमूर्त शक्ती को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदायी माना गया ।
3-वैज्ञानिक स्तर (Positive Stage)- वैज्ञानिक स्तर में मानव सांसारिक घटनाओं की व्याख्या धर्म,
इश्वर एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता, वरन वैज्ञानिक नियमों और तर्क के
आधार पर करता है ।वह कार्य और कारन के सह-संबंधों को ज्ञात कर नियमों एवं
सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है । मानव घटनाओं का अवलोकन कर उनकी तार्किक एवं
वैज्ञानिक व्याख्या करके सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता है । इस प्रकार चिंतन के
विकास के साथ-साथ सामाजिक संरचना, संगठन एवं व्यव्थाओं का भी विकास एवं परिवर्तन
हुआ है ।
समालोचना- निःसंदेह समाज
में होने वाले परिवर्तन में एक योजनाबद्ध एवं क्रमबद्ध व्याख्या कॉम्ट का सराहनीय
प्रयास है । किन्तु उनके इस सिद्धांत को पूरी तरह सही नहीं मन जा सकता । उन्होंने
मानव चिंतन और सामाजिक विकास के तीन स्तरों का उल्लेख किया है , उन स्तरों से
विश्व के सभी समाज गुज़रे हों, यह आवशयक नहीं । ये स्तर किसी समाज में पहले व किसी
में बाद में अथवा दो स्तर साथ-साथ भी चल सकते हैं ।
स्पेंसर का सिद्धांत (Theory of Spencer) –
स्पेंसर ने सामाजिक परिवर्तन का उदविकासीय सिद्धांत प्रस्तुत किया । आपने
सामाजिक परिवर्तन को प्राकृतिक प्रवरण (Natural selection) आधार पर प्रकट
किया है । स्पेंसर डार्विन के उद्विकास से प्रभावित थे । डार्विन ने जीवों का उद्विकास का सिद्धांत
प्रतिपादन किया, जिसे स्पेंसर ने समाज पर भी लागू किया । डार्विन का मत था कि
जीवों में आस्तिव के लिए संघर्ष (Struggle for existence) पाया जाता है । इस
संघर्ष में वोही प्राणी बचे रहते हैं जो शक्तिशाली होते हैं और प्रकृति के अनुकूल
कर लेते हैं, और कमज़ोर इस संघर्ष में समाप्त हो जाते हैं । क्यूंकि प्रकृति भी ऐसे
जीवों का वरण करती हैं जो युग्य एवं सक्षम होते हैं । अतः इस सिद्धांत को ‘प्राकृतिक
प्रवरण का सिद्धांत’ कहते हैं । चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है , अतः इसके
प्रवरण अथवा जन्म और मृत्यु-दर पर सामाजिक कारकों, जैसे- प्रथाओं एवं आदर्शों का
भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है । इस प्रवरण में श्रेष्ठ मनुष्य ही बचते हैं जो समाज का
निर्माण करते हैं और उसमे परिवर्तन लाते
हैं । प्रत्येक नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में अधिक
उन्नत होती है और समाज को आगे की ओर बढाती
है । इस प्रकार समाज क्रमशः आगे बढ़ता है और परिवर्तित होता जाता है । इस प्रकार
स्पेंसर सामाजिक परिवर्तन के लिए अप्राकृतिक एवं प्राकृतिक एवं समाज परिवर्तन को
आधार मानते हैं ।
समालोचना- स्पेंसर तथा अन्य जीववादियों के सिद्धांतों की अनेक
विद्वानों ने यह कह कर आलोचना की कि मानव समाज पर प्रकृति प्रवरण को लागु नहीं
किया जा सकता है तथा उन्होंने परिवर्तन के अन्य सिद्धोंतों की अवेहलना की है ।
कार्ल मार्क्स का सिद्धांत (Theory of Karl Marx) –
कार्ल मार्क्स ने सामजिक परिवर्तन को प्रौद्योगिक एवं आर्थिक कारण से जनित
माना है । अतः उनके सिद्धांत को आर्थिक निर्धारणवाद (Economic Determinism)
अथवा सामाजिक परिवर्तन का प्रौद्योगिक सिद्धांत (Tecnological Theory of
Social Change) कहा जाता है । मार्क्स का सिद्धांत वर्तमान समय में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण एवं क्रान्तिकारी माना जाता है । उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की
और कहा कि मानव इतिहास में अब तक जो भी परिवर्तन हुए हैं, वे उत्पादन प्रणाली (Mode
of Production) के परिवर्तन के कारण हुए
हैं । उनका मत है कि जनसंख्या, भौगिलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारणों का
मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है, किन्तु वे परिवर्तन के निर्णायक करक नहीं हैं ।
निर्णायक कारण तो आर्थिक करक अथवा उत्पादन प्रणाली है ।
मार्क्स ने अपने
सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए कुछ भौतिक
मूल्यों (जैसे- रोटी, कपडा, माकन इत्यादि ) की आवश्यकता होती है । इन मूल्यों या
आवश्यकता को जुटाने के लिए मानव को उत्पादन करना होता है । उत्पादन करने के लिए
उत्पादन के साधनों (Means of Production)
की आवश्यकता होती है । जिन साधनों के द्वारा व्यक्ति उत्पादन करता है,
उन्हें प्रौधोगिकी कहते हैं । प्रौद्योगिकी में छोटे-छोटे औज़ार तथा बड़ो-बड़ी मशीनें
सम्मलित हैं ।
प्रौद्योगिकी में
जब परिवर्तन आता है तो उत्पादन प्रणाली में भी परिवर्तन आता है । मार्क्स का मत है
कि मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी ना किसी उत्पादन प्रणाली (Mode of
Production) को अपनाता है ।
उत्पादन प्रणाली
दो पक्षों से मिलकर बनी होती है , प्रथम पक्ष -उत्पादन के उपकरण या प्रौद्योगिकी,
श्रमिक, उत्पादन का अनुभव एवं श्रम कौशल , तथा द्वितीय पक्ष- उत्पादन के सम्बन्ध ।
किसी भी वास्तु के उत्पादन के लिए हमें औज़ार, श्रम, अनुभव एवं कुशलता की आवश्यकता
होती है तथा साथ ही जो लोग उत्पादन के
कार्यों में लगे होते हैं, उनके बीच आर्थिक सम्बन्ध भी पैदा होता है । जैसे- किसान
कृषि के क्षेत्र में उत्पादन करने के दौरान मजदूरों, सुनार, लौहार एवं उसके द्वारा
उत्पादित वास्तु के खरीदारों से सम्बन्ध बनता है । जब उत्पादन प्रणाली में
परिवर्तन होता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है । उत्पादन प्रणाली की यह विशेषता
है कि यह किसी भी अवस्था में स्थिर नहीं रहती, सदैव बदलती रहती है । उत्पादन
प्रणाली समाज का मूल है और उसी पर समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक- राजनितिक
संरचनाएं, कला, साहित्य, प्रथाएं, विज्ञान एवं दर्शन टिके हुए हैं । जिस प्रकार की
उत्पादन प्रणाली होती है समाज की अधिसंरचना (Super-Structure) अर्थात उपरी संरचना जिसमे धर्म, प्रथाएं,
राजनीती, साहित्य, कला, विज्ञान एवं संस्कृति इत्यादि भी उसी प्रकार की बन जाती
हैं । जब उत्पादन प्रणाली बदलती है तो समाज की उपरी संरचना में परिवर्तन आता है और
समाज की संस्थाएं बदलती हैं, तथा सामाजिक परिवर्तन घटित होता है ।
मार्क्स का कहना
है कि जब हाथ की चक्की से उत्पादन किया जाता था तो एक विशेष प्रकार का समाज था ।
और जब आज बिजली के चक्की है तो दुसरे प्रकार का समाज है, जो पहले प्रकार के समाज
से भिन्न है । इसी प्रकार जब कृषि का कार्य हल एवं बैलों की सहायता से तथा उत्पादन
का कार्य कुटीर उद्योगों में छोटे-छोटे औजारों से किया जात अता तो एक विशेष प्रकार
का समाज, संस्कृति, धर्म एवं राजनीती थी । और आज जब कृषि में ट्रेक्टर एवं
वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग तथा बड़ी-बड़ी मशीनों एवं कारखानों द्वारा प्रौद्योगिक
उत्पादन हो रहा है तो एक भिन्न प्रकार का समाज पाया जाता है । इस दोनों अवस्थाओं
की राजनीती, धर्म, संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन, प्रथा, नैतिकत एवं लोकाचारों
में बहुत अंतर है ।
अतः स्पष्ट है कि
उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने पर ही समाज मे परिवर्तन आता है । उत्पादन में
लगे लोगों के पारस्परिक संबंधों में भी परिवर्तन आता है । आज के युग में पूँजीपति
व श्रमिकों में जो सम्बन्ध पाये जाते हैं वो कृषि युग के भू-स्वामियों एवं मजदूरों
के सम्बन्ध से इसलिए भिन्न है।
मार्क्स का मत है
कि उत्पादन के संबंधों के सम्पूर्ण योग से है समाज की आर्थिक संरचना
(Ecomonic Structure) का निर्माण होता है । उदहारण के लिए कृषि, युग में जमीदारों,
कृषकों एवं कृषि-श्रमिकों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों से एक विशेष प्रकार की
आर्थिक संरचन का निर्माण हुआ, जिसे हम कृषि अर्थव्यवस्था कहते हैं । वर्तमान
समय में पूंजीपतियों, कारखानों के स्वामियों एवं श्रमिकों के संबंधों से मिलकर
बनने वाली आर्थिक संरचना है ।
संक्षेप में
मार्क्स के अनुसार उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन के लिए
उत्तरदायी है, जब उत्पादन के उपकरणों (प्रौद्योगिक), उत्पादन के कौशल ज्ञान,
उत्पादन के सम्बन्ध आदि जो कि आर्थिक संरचना का निर्माण करते हैं, में परिवर्तन
आता है तो सम्पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक (Super-Structure) में परिवर्तन आता है, जिसे हम सामाजिक परिवर्तन
कहते हैं ।
मार्क्स का मत है
कि इतिहास के प्रत्येक युग में दो वर्ग होते हैं । मानव समाज का इतिहास इन दो
वर्गों के संघर्ष का इतिहास है । मार्क्स ने समाज के विकास को पांच युगों मर
विभक्त किया और प्रत्येक में पाए जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया । प्रथम वह
वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा, और दूसरा वह जो श्रम के द्वारा
जीवनयापन करता है । इस दोनों वर्गों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष होता है ।
प्रत्येक वर्ग-संघर्ष का अंत नये समाज एवं नये वर्गों के उदय के रूप में हुआ ।
वर्तमान में भी पूंजीपति और श्रमिक दो वर्ग है, जो अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष
कर रहे हैं । मार्क्स कहते है कि वर्गों की रचना और प्रकृति ही समाज अवस्था का
निर्धारण करती है । एक युग के संघर्ष के परिनाम स्वरूप नये वर्गों का जन्म होता
है, जो नई समाज व्यवस्था को जन्म देता है । इस प्रकार वर्ग-संघर्ष एवं उसके परिणाम
स्वरूप नये वर्गों के जन्म के कारण ही समाज में परिवर्तन होते हैं ।
समालोचना- अन्य विद्वानों की भांति कार्ल मार्क्स के भी सामाजिक
परिवर्तन के सिद्धांत की भी आलोचना विद्वानों द्वारा की गई-
1-
मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के लिए केवल एक ही करक ‘आर्थिक-करक’ (उत्पादन
प्रणाली) को सामाजिक परिवर्तन का उत्तरदायी मानकर, परिवर्तन के अन्य कारकों की
अवहेलना की है । सामाजिक, धार्मिक,
भौगिलोक एवं जनसंख्यात्मक कारकों का भी परिवर्तन में महत्वपूर्ण स्थान होता है तथा
स्वम् आर्थिक करक भी अन्य कारकों से प्रभावित होते हैं ।
2-
मार्क्स का मानना है कि सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी, आर्थिक सम्बन्ध एवं
आर्थिक संरचना में परिवर्तन के कारण आते हैं । किन्तु मार्क्स ये स्पष्ट करने में
असमर्थ रहे है कि प्रौद्योगकी आदि में परिवर्तन क्यूँ होता है या उसके परिवर्तन
करने वाले करक कौन-कौन से हैं ।
3-
मार्क्स द्वारा प्रयुक्त शब्दों जैसे- आर्थिक करक, उत्पादन की शक्तियाँ तथा
सम्बन्ध, आर्थिक सुधार, प्रौद्योगिकी आदि की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है । कुछ
विद्वान इसमें केवल आर्थिक प्रविधियों को ही सम्मलित करते हैं जबकि एंजिल
तथा सेलिगमैन आदि ने उत्पादन से सम्बंधित संही दशाओं को आर्थिक कारकों के
अंतर्गत सम्मलित किया है ।
4-
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष पर अत्याधिक जौर फिय है , किन्तु समाज की नीव संघर्ष
पर नहीं वरन सहयोग पर आधारित है ।
देखा जाये तो
मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का पूरा
प्रयास किया है फिर भी मार्क्स ने अपने आर्थिक करक पर जरूरत से ज्यादा जौर दिया है
। मैक्स वेबर ने मार्क्स के सिद्धांत की आलोचना की है तथा आर्थिक कारण के
स्थान पर धर्म को सामाजिक परिवर्तन का आधार माना है ।
थार्सटीन
वेबलिन का सिद्धांत
(Theory of Thorstein Veblen)
वेबलिन सामाजिक सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं
को उत्तरदायी मानते हैं । उनका मत है कि प्रौद्योगिक दशाएं प्रत्यक्ष रूप से
सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं । इस लिए वेबलिन के सिद्धांत को प्रौद्योगिक
निर्णयवाद कहा जाता है । वेबलिन ने मानवीय विशेषताओं को दो भागों में विभाजित
किया है –
1-
स्थिर विशेषताएं
2-
परिवर्तनशील विशेषताएं
1-स्थिर
विशेषताएं- स्थिर विशेषताएं वह हैं
जिनका सम्बन्ध मानव की मूल प्रवृत्तियों
और प्रेरणाओं से है, जिनमे बहुत कम परिवर्तन होता है ।
2-परिवर्तनशील
विशेषताएं- परिवर्तनशील विशेषताएं जैसे- आदतें, विचार, मनोवृत्ति इत्यादि हैं ।
वेबलिन का मत है
कि सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव की इन दूसरी विशेषताओं अर्थात परिवर्तनशील
विशेषताएं से है । विशेषकर मानव के विचार करने की आदतों से है ।
वेबलिन अपने
सिद्दांत में कहते हैं कि मनुष्य अपनी आदतों द्वारा ही नियंत्रित तथा उनका दास
होता है । तथा वे आदतें किस प्रकार की होंगी ये निर्भर करता है मानव के भौतिक पर्यावरण पर । तथा भौतिक
पर्यावरण में भी विशेषकर प्रौद्योगिकी पर । जब भौतिक पर्यावरण अर्थात प्रौद्योगिकी
में परिवर्तन आता है तो मानव की आदतें में भी परिवर्तन आता है , मानव अपनी आदतें
बदलता है । मानव की आदतों का निर्माण किस प्रकार से होता है ? किस कारण से होता है
? इसके उत्तर में वेबलिन कहते हैं कि मानव जिस प्रकार के कार्य तथा प्राविधि
द्वारा जीवनयापन करता है , उसी प्रकार की उस मानव की मनोवृत्ति तथा आदतें होती हैं
। जीवन यापन के लिए मानव जिस प्रकार की प्राविधि को अपनाता है, अपनी आदतों को भी
उसी प्रविधि के अनुकूल ढाल लेता है । तथा ए आदतें मानव को एक निश्चित प्रकार का
जीवन यापन करने को बाध्य करती हैं और उस व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला कार्य उस
व्यक्ती के विचारों को प्रभावित करता है । जैसे- कृषक, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक
इत्यादि जिस प्रकार का कार्य करते हैं उबकी आदतें, विचार भी वैसी हीं हो जाती हैं ।
मानव अपने जीवन यापन के लिए कौन सा कार्य करेगा, ये निर्भर करता है मानव के भौतिक
पर्यावरण पर । भौतिक पर्यावरण मानव के कार्य, विचार एवं आदतों को निश्चित करता है ।
उदहारण – कृषि युग में मानव जीवन यापन के लिए प्रौद्योगिकी को काम में लाता यह,
उसी के अनुसार उसका भौतिक पर्यवरण भी बना हुआ था । कृषि के आधार पर ही मानव की
आदतें, विचार और मनोवृत्तियां बनीं हुईं थी । परन्तु जब मशीनों का आविष्कार हुआ तो
मानव का भौतिक पर्यावरण बदला, प्रौद्योगिकी में परिवर्तन हुए, और उसके साथ साथ
मानव की आदतें और मनोवृत्तिओं में भी बदलाव आये ।
वेबलिन का मत है
कि आदतें हीं धीरे-धीरे स्थापित एवं सुदृष्ट होकर संस्थाओं का रूप ग्रहण करती हैं
, संस्थाएं ही सामाजिक ढांचें का निर्माण करती हैं । अतः जब आदतों में परिवर्तन
होता है तो सामाजिक संस्थाओं और ढांचों में भी परिवर्तन होता है । जिसे हम सामाजिक
परिवर्तन कहते हैं ।
समालोचना- वेबलन और मार्क्स के सिद्दांत में समानता पायी जाती है ।
वेबलन भी मार्क्स की तरह प्रौद्योगिकी को ही परिवर्तन का करक मानते हैं ।
इस परकार वेबलन के सिद्धांत में वोही कमियां हैं जो कि मार्क्स के सिद्धांत में
हैं –
1.
वेबलिन ने अपने सिद्धांत में मानव को अपनी आदतों द्वारा नियंत्रित प्राणी माना
है जो कि पुर्णतः सत्य और सही नहीं हैं । जबकि मानव अपनी आदतों के अतिरिक्त अपने
विवेक से अधिक नियंत्रित होता है ।
2.
वेबलिन का यह कहना कि प्रौद्योगिक परिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन आता है ,
यह उचित नहीं हैं । क्यूंकि कभी-कभी भौतिक पर्यावरण बिलकुल भी नहीं बदलता है
परन्तु फिर भी धार्मिक, नैतिक तथा अन्य कारकों के कारन समाज में परिवर्तन आ जाता
है ।
3.
वेबलिन का सिद्धांत भी उसी प्रकार से एकपक्षीय है जिस प्रकार से अन्य
कराकवादियों अथवा निर्धारणवादियों के सिद्धांत हैं । सामाजिक परिवर्तन किस एक करक
के परिणामस्वरूप या प्रिफल ना होकर कई कारकों के कारण होता है , तथा सामाजिक
परिवर्तन एक जटिल प्रक्रिया है जिसे वेबलिन ने अत्याधिक सरल रूप में प्रस्तुत किया है ।
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